जैन शास्त्री के अनुसार नए वर्ष का प्रारम्भ श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को होता है। युग का प्रारम्भ अथवा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप कहालों का आरम्भ इसी तिथि से हुआ है। युग की समाप्ति आषाढ पूर्णिमा को होती है, पश्चात श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को अभिजित नक्षत्र, बालवकरण और रौद्रमुहूर्त में युग का आरम्भ हुआ करता है1। तिलोयपण्णत्ती में कहा है -
सावण बहुले पाडिबरूद्दमुहुत्ते सुहोदये रविणो। अभिजस्स पढमजोए जुगस्स अदीइमस्स पुढं।।
श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को ही भगवान महावीर की सर्वप्रथम दिव्य ध्वनि खिली थी। ऋषभादि पाश्र्वपर्यन्त तेईस तीर्थकरों में से प्रत्येक ने केवलज्ञान की प्राप्ति के उपरांत अपने-अपने धर्मचक्र का प्रवर्तन करके अपनी धर्मव्यवस्था, धर्मशासन या जिनशासन की स्थापना की थी और सच्चे सुख के साधन मोक्षमार्ग का पुनः-पुनः उद्घाटन किया था। एक तीर्थकर द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन से लेकर अगले तीर्थकर के धर्मचक्र प्रवर्तन पर्यन्त उक्त पूर्ववर्ती तीर्थकर का ही शसन चला और लोकप्रसिद्ध रहा। इस प्रकार भगवान पाश्र्वनाथ (ई. पू. 877 - 777) का धर्मशासन ईसापूर्व 846 से लेकर 557 तक चला जिसके उपरांत अंतिम तीर्थकर निग्र्रन्थ ज्ञातृपुत्र वर्द्धमान महावीर का शासन प्रवर्तित हुआ2।
तीस वर्ष के बाद जब कि चन्द्रमा उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र पर था तब मगसिर वदी दशमी के दिन भगवान महावीर वन को चले गए और उन्होंने बारह वर्ष तक अनशनादिक बारह प्रकार का तप किया। तत्पश्चात वे विहार करते हुए ऋजुकूला नदी के तट पर स्थित जृम्भिक गांव के समीप पहुंचे। वहां वैसाख सुदी दशमी के दिन दो दिन के उपवास का नियम कर वे सालवृक्ष के समीप स्थित शिलातल पर आतापन योग में आरूढ़ हुए। उसी समय जब कि चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में स्थित था तब शुक्लध्यान को धारण करने वाले वर्द्धमान जिनेन्द्र घातिया कर्मों के समूह को नष्टकर केवलज्ञान को प्राप्त हुए। भगवान छयासठ दिन तक मौन विहार करते हुए वे राजगृह नगर आये। नियमानुसार तो
1. डाॅ. नेमिचन्द्रशास्त्रीः व्रततिथि निर्णय पृ. 12
2. डाॅ. ज्योतिप्रसाद जैनः वीरशासन जयन्ती का संदेश (जैन सन्देश 16 अग. 79)
जहां तीर्थकरों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ वहां तत्काल बाद उनकी दिव्य ध्वनि खिरने लगती है, पर भगवान महावीर इसके उपवाद स्वरूप है। इसका कारण यह बतलाया जाता है कि उस समय तक उनका कोई गणधर नहीं था। राजगृह के वैभार पर्वतपर जो कि उस नगरी के पश्चिम दक्षिण कोण पर स्थित था, आषाढ़ शुक्ल 15 दिन महा तेजस्वी विप्रश्रेष्ठ इन्द्रभूति गौतम, अग्रिभूति वायुभूति तथा कोण्डिन्य आदि पण्डित इन्द्र की प्रेरणा से श्री अरहन्तदेव के समवसरण में आए। वे सभी पण्डित अपने पांच-पांच सौ शिष्यों सहित थे तथा सभी ने वस्त्रादि का सम्बंध त्यागकर संयम धारण कर लिया । उसी समय राजा चेटक की पुत्री चन्दना कुमारी एक स्वच्छ वस्त्र धारणकर आर्यिकाओं में प्रमुख हो गई। राजा श्रेणिक भी अपनी चतुरंगिनी सेना के साथ समवसरण में पहुंचा और वहां सिंहासन पर विराजमान श्री वर्द्धमान जिनेन्द्र को उसने नमस्कार किया। इस प्रकार भगवान के मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ का गठन हुआ। इसी कारण आषाढ़ की पूर्णिमा गुरू पूर्णिमा के नाम से प्रसिद्ध हुई है।
वर्द्धमान प्रभु ने श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के प्रातः काल के समय अभिजित नक्षत्र में समस्त संशयों को छेदने वाले, दुन्दुभि शब्द के समान गम्भीर तथा एक योजन तक फैलने वाली दिव्यध्वनि के द्वारा शासन की परम्परा पर चलने के लिए उपदेश दिया। उनकी सभी में देव, मनुष्य, स्त्री, पशु-पक्षी सभी बिना किसी भेद-भाव के बैठकर उनकी अमृतवाणी का पान करते थे। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वीर प्रभु की दिव्य ध्वनि के लिए गणधर के बिना 66 दिन तक क्यों रूकना पड़ा? इसका उत्तर आचार्य समन्तभद्र ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में दिया हैं-
बाह्येतरोपाधि समग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। नैवान्यथा मोक्ष विधिश्च पुंसा तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बधानाम्।। - स्वयम्भू स्तोत्र 5 (60)
‘कार्यों में बाह्य और अभ्यांत्तर दोनों कारणों की जो यह पूर्णता है। वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है, अन्यथा पुरूषों के मोक्ष की विधि भी नहीं बनती है। इसी से परमर्द्धि सम्पन्न ऋषि आप बुधजनों के अभिवन्द्य हैं।’ अर्थात द्रव्यों में कर्य रूप से परिणत होने का स्वभाव यही है कि बाहरी निमित्त और इतर अर्थात् अन्तरंग (उपादान) सामग्री परिपूर्ण हो जाय अर्थात केवल उपादान की सफलता अथवा केवल निमित्तें की परिपूर्णता द्वारा ही मानव को मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। भगवान महावीर की दिव्यध्वनि केवलज्ञान होने के बाद 66 दिन तक नहीं खिरी, इसका उपादान कारण स्वयं महावीर थे, क्योंकि द्रव्य का परिणमन स्वयं की योग्यता से स्वयं स्वकाल में होता है और बाह्य में निमित्त कारण है। गणधर के अभाव में दिव्य ध्वनि नहीं खिरती है; ऐसा मानना सिद्धांत से मेल नहीं खाता है और यह पराश्रयता का प्रतीक है। गौतम गणधर केवल निमित्त थे। गौतम गणधर ने बलात् भगवान महावीर की दिव्यध्वनि नहीं खिराई थी, पर दिव्यध्वनि अपने स्वकाल में अपनी योग्यता से खिरी थी। उपादान निमित्त का यही सुमेल है। उपादान कारण में उपादेय रूप कार्य स्वयं होता है और निमित्त कारण में नैमित्तिक कार्य स्वयं होता है। दोनों कारकों में अपने-अपपने कार्य पर्याय दशा परिणमन अपनी योग्यता से स्वयं हो रहा है। कोई किसी के आश्रित नहीं है। उपादान अपना कार्य करता है, निमित्त अपना कार्य करता है; यह प्राकृतिक सुन्दर व्यवस्था है1।
धवन सिद्धांत और तिलोयपण्णत्ती में भगवान महावीर की दिव्यध्वनि की तिथि को धर्मतीर्थोंत्पति तिथि कहा गया है-
वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले। पाडिबदपुव्वदिवसे तित्थुप्पती दु अभिजम्हि।। (धवलाटीका, प्रथम भाग पृ. 63) एत्थावसप्पिणीए चउत्थकालस्स चरमभागम्मि। वेत्तीसवास उडमासपष्णरसदिवस से सम्मि।। वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुल पडिवासए। अभिजीणक्खत्तम्मि य उप्पत्ती धम्मतित्थस्स।। (तिलोयपण्णत्ती प्रथमाधिकार, गाथा 68 - 69)
अर्थात् अवसर्पिणी के चतुर्थकाल के अंतिम भाग में तैंतीस वर्ष आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर वर्ष के श्रावणमास नामक प्रथम माह में कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन, अभिजित नक्ष. के उदित रहने पर धर्मतीर्थ की 1. जैनमित्र अंक - 28-7-77 उत्पत्ति हुई। उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार श्रावण कृष्ण प्रतिपदा को अभिजित नक्षत्र के होने पर ही वीरशासन जयन्ती सम्पन्न की जानी चाहिए।
भगवान महावीर की दिव्यध्वनि अनक्षरी दुन्दुभि के समान गम्भीर तथा एक योजन तक फैलने वाली थी। प्रथम ही भगवान महावीर ने आचारंग का उपदेश दिया। अनन्तर सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृधर्मकथांग, श्रावकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिक दशांग, प्रश्न व्याकरण और पवित्र अर्थ से युक्त विपाकसूत्र इन ग्यारह अंगों का उपदेश दिया। इसके बाद जिसमें तीन सौ त्रेसठ दृष्टियों का कथ है तथा जिसके पांच भेद हैं ऐसे बारहवें दृष्टिवाद अंग का सर्वदर्शी भगवान ने निरूपण किया। जगत के स्वामी तथा ज्ञानियों में अग्रसर श्री वर्धमान जिनेन्द्र ने प्रथम ही परिकर्म, सूत्रगत, प्रथानुयोग और पूर्वगत भेदों का वर्णन किया, फिर पूर्वगत भेद के उत्पादपूर्व, अग्रायणीय पूर्व, वीर्य प्रवादपूर्व, अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व, ज्ञानप्रवाद पूर्व, सत्यप्रवाद पूर्व, आत्मप्रवाद पूर्व, कर्मप्रवाद पूर्व, विद्यानुवाद पूर्व, कल्याण पूर्व, प्राणावायपूर्व, क्रियाविशाल पूर्व और लोकविन्दुसारपूर्व, इन चैदह पूर्वों का तथाा वस्तुओं से सहित चूलिकाओं का वर्णन किया। भगवान जिनेन्द्र ने अंग प्रविष्ट तत्व का वर्णन कर अंग बाह्य के चैदह भेदों का यथार्थ वर्णन किया।