लोभ किसे कहते हैं - क्रोध, मान और माया के पश्चात आता है नम्बर लोभ का। लोभ कषाय सभी कषायों में भयंकर कषाय है। अब इसका स्वरूप बताते हैं - लालच को लोभ कहते हैं, लालच अर्थात लोभ के फन्दे में फंसकर भोले प्राणी अपना धन-वैभव खो बैठते हैं इतना ही नहीं, कभी-कभी तो इसके फन्दे में फंसकर अपनी जान तक दे दिया करते हैं। संसार में जितने घोर पाप होते हैं, वह लोभ के ही कारण होते हैं। यह सभ्ी कुकर्मों का (अनर्थों) का राजा है। कवियों ने भी उसे पाप का बाप कहा है। लोक में देखा जाता है कि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवा लोभ में फंसकर अपने प्राण खो बैठते हैं। देखो महाकाया हस्ती विषय भोगों की लालसा से बंधन में पड़ जाता हैं मछली आटे के लोभ में आकर अपना गला फंसा देती है, भौंरा सुगन्धि के लोभ में आकर कभी-कभी कमल में बन्द होकर अपनी जान से हाथ धो बैठता है, प्रकाश के लोभ में आकर पतंगा भी जान दे बैठता है राग-रागिनी के प्रलोभनों में आकर महान् विषधर व हिरण बंधन में पड़ जाते हैं, जान खो बैठते हैं। दाना चुगने के लोभ में आकर पक्षी जाल में फंस जाते हैं, जब वे पशु-पक्षी थोड़े से प्रलोभन में आकर बंधन में पड़ जाते हैं, प्राण दे बैठते हैं तो हम तो पूर्णतया लोभ कषाय में ही रंगे हुए हैं हमारी न जाने क्या दशा होगी? अगर संसार चक्कर से बचना चाहते हैं, कर्मों की कुण्डी खोलना चाहते हैं, शांतिस्वरूप को प्राप्तकर चलना चाहते हैं मुक्ति-पथ की ओर, तो इस संसार के कारण भूत महापिशाच लोभ का त्यग इसी क्षण कर दें।
लोभ से हानि - इस लोभ के चक्कर में आकर अनेक राजा-महाराजादि अपकीर्ति फैलाकर चले गयेः उनके इसमें पड़कर प्राण दे गये, बड़े-बड़े पण्डित भी इसमें फंसकर अछूते नहीं बचे। सुभौम चक्रवर्ती ने फल के लोभ में आकर णमोकार मंत्र का महान अविनय किया फलतः नकर जाना पड़ा। मांसा के लोभ में फंसे हुए राजा बक को अपमानित कर जनता ने राज्य से बाहर निकाल दिया, लोक निन्दा हुई और मरकर भी घोर नकर में जाना पडा। शास्त्रें में ऐसे अनेक उदाहरण आते हैं जिसमें लोभ के कारणकितने ही नकर में गये, कितने ही तिर्यंचगति में उत्पन्न हुए अनेक लोगों ने अपना ईमान खोकर जगत में अपयश फैलाया। आज भी देखा जा रहा है कि लोभ में वशीभूत होकर आदमी क्या-क्या अनर्थ नहीं कर रहा है। जिसकेा धन कमाने का लोभ लगा है वह लखपति होते हुए भी रात्रि में चैन के साथ सो नहीं सकता, वह तो इसी चिंता में रहता है कि किसी प्रकार धन आये, वह न्याय से आये चाहे अन्याय से। यह धन का लोभ एक ऐसा है जो अच्छे-अच्छे ज्ञानीजनों को अपने कब्जे में कर लेता है अर्थात स्वभाव से च्युत कराकर पथभ्रष्ट करा देता है; इसलिए लोभ को पाप का बप कहा है इसी पर एक कहानी सुनिये, जिसे सुनकर यह निर्णय हो जायेगा कि लोभ वास्तव में पाप का बाप है और इसी समय हमारी कषाय का त्याग भी हो जायेगा।
लोभ पर दृष्टांत - श्री मंदिरजी में एक महिला ने यह सुना कि ‘‘लोभ पाप का बाप बखाना’’; तभी से उसके मन में यक उत्कण्ठा जागृत हो उठी कि लोभ को पाप का बाप क्यों कहा है? अभी उसके पतिदेव घर नहीं हैं, पूछे भी तो किससे? कुछ ही समय के पश्चात बनारस से पढ़-लिखकर अच्छे शास्त्रों के ज्ञाता बनकर उसके पतिदेव आये। लोभ पाप का बाप क्यों हैं? इस बात को समझने की इच्छुक उस महिला ने अपने पतिदेव से कहा - स्वामी जी आप मुझे तो समझाइये कि लोभ को पाप का बाप क्यों कहा गया है? पंडित जी अवाक् रह गये बहुत कुछ विचार करने पर भी समझ नहीं आया, तो उसी समय काशी की ओर पुनः चल दिये यह मन में निश्चय करके कि लोभ को पाप का बाप क्यों कहा है? इस बात का अध्ययन करेंगे, अपने गुरूजनों से समझेंगे।
गांव से कुछ ही दूरी पर एक बगीचा मिला, जिसके गेट पर एक सजीधजी नारी खड़ी हुई थी। पंण्डित जी को देखकर उसने नमस्कार किया, ओर कहा कि आप कहां जा रहे हैं? पण्डित जी ने कहा कि मैं बनारस जा रहा हूं यह समझनेे के लिए कि लोभ को पाप का बाप क्यों कहा गया है? उस नारी ने पण्डित जी से हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि अगर आज आप मेरे बंगले पर रूक जाये ंतो मेहरबानी होगी, हो सकता तेा मैं आपको यह भी समझा दूंगी कि लोभ को पाप किसलिए कहा है? पण्डित जी ने कहा तू किस जाति की नारी है? उसने धीरे से काह - वेश्या, ऐसा सुनकर वह एकदम चैंक पड़े। हाय तू वेश्या है? जल्दी से वहां से भागने की सोची। वेश्या ने हाथ जोड़कर पुनः प्रार्थना की कि आप मात्र कुछ ही समय मेरे बगीचे में आराम कर लीजिये, समय गर्मी का है। पण्डित जी ने कहा - वेश्य के यहां रूकना क्या, बात करना भी महान पाप बताया है। वेश्या ने पण्डित जी ने यह कहा कि मैं आपको सौ रूपये की थैली भेंट करूंगी, आप मेरे घर को अपने चरणों से पवित्र कीजिये। पण्डित जी ने बहुत कुछ विचार किया, परंतु पैसे के प्रलोभन में पड़कर आगे-पीछे देखकर वेश्या के साथ चले गये, वहां एकान्त स्थान पर बैठ गये। वेश्या ने कहा - महाराज आप भोजन बना लीजिये, समय हो गया है, सामान मेरा ले लीजिये। पण्डित जी बोले - क्या तू हमको भ्रष्ट करना चाहती है, जानती नहीं कि हम ब्राह्मण हैं, तेरे बगीचे में, वह भी तेरे सामान से हम रसोई बना सकते हैं, कभी नहीं। तू महान अशुद्ध, तेरा अन्न-जल भी महान अशुद्ध और हम खायेंगे तो हम भी अशुद्ध हो जायेगें। वेश्या ने यह कहते हुए कि अन्नादि में मैं प्रवेश थोड़े ही कर गई हूं, आपको मैं पांच सौ रूपये थी थेली भेंट करूंगी, मात्र आप मेरे सामान से मेरे चैके में भोजन बना लीजिए, आप चिंता क्यों करते हैं। मैं अभी सभी मकान को धुलायें देती हूं। पंाच सौ रूपयों में लोभ में आकर पण्डित जी बोले देखो, किसी से कहना मत, वह बोली आप कैसी बात करते हैं। ज्यादा क्यों बढ़ाया जाये, पैसे का लोभ दिखाकर वेश्या ने ही भोजन बनाया और थाली भी लगा दी फिर कहा - पण्डित जी महाराज आप एक ग्रास मेरे हाथ से अपने मुंह में ले लीजिये। पण्डित जी बोले - मैं इस बात को जानता हूं कि वेश्या का स्पर्श नरक का कारण है, मैं तेरे हाथ से ग्रास कैसे ले सकता हूं, कभी नहीं, क्या तुझे अपने ईमान को बेचना है? वेश्या ने कहा - महारा यहां कोई देखता नहीं है, मैं आपको एक हजार रूपये की थैली और भेंट करूंगी। पण्डित जी ने इधर-उधर देखते हुए वेश्या से कहा कि देख एक तो इस बात को किसी से कहना मत ओर ग्रास देे समय मेरे शरीर से तेरा हाथ न छू जावे, इस बात का पूरा ध्यान रखना। ग्रास लेने के लिए पण्डित जी ने अपना मुख उठाा उसी समय वेश्या ने बेधड़क होकर एक ऐसा तमाचा गाल पर लगाया, जिससे कि उनकी आंखों में पानी भर उठा। क्रोधित हो बोले क्या किया? वेश्या ने कहा-साफ करना, यह बताया है कि लोभ पाप का बाप है, आपने पैसे के लोभ में आकर ही यह सब स्वीकार किया है। कहां तो बगीचे में रूकने को तैयार नहीं थे, कहां हाथ से भोजन करने तक के लिए आतुर हो गये? पण्डित जी यह कहते हुए कि आ गया समझ में, वास्वत में लोभ ही पाप का बाप है। इस अहितकारक लोभ का उन्होंने उसी क्षण त्याग कर दिया और सबको उपदेश भी देने लगा कि हे स्वहित के इच्छुक भव्य प्राणियों! इस लोभ -पिशाच से सर्वथा-दूर रहना, यह जिस किसी को लग जाता है उसी का अहित कर डालता है, पथ-भ्रष्ट कर देता है।
लोभ के भेद - उपर्युक्त तीन कषायों की तरह से लोभ के भी चार भेद हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं - कृमिराग के समान, गाड़ी आदि के पहियों के आंगन के समान, शरीर के मल के सामन और हल्दी के रंग के समान। यह चारों ही प्रकार का लोभ सर्वथा त्याज्य है परंतु सबसे पहले हमारे लिये त्याज्य है - कृमि रंग के समान लोभ; क्योंकि यह हमारा सर्वथा अहित करता है।
किसी कंषाय के कारण कहां जाते हैं - अभी स्वरूप समझा चारों कषायों का। अब यह बताया जा रहा है कि किस कषाय के उदय से यह जीव किसी गति से उत्पन्न होता है। सिद्धांत से देखों तो चारित्रमोहकर्म का उदय होने पर जीव के कषायरूप परिणाम होते हैं। परिणामों के तो असंख्यात भेद हैं परंतु यहां पर मूल चार को बताया जात है - उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य, एक-एक कषाय के जो चार भेद बताये हैं वह इन्हीं की अपेक्षा से हैं।
जब तीव्र कषाय-घोर कषाय उदय में आती हैं, जिसके परिणाम क्रमशः पत्थर की रेखा, शैल, बांस की जड़ और कृमि रंग के समान बताये हैं। इन परिणामों में क्रोध होने पर अनिष्ट को नष्ट करने के भाव होते हैं, मान होने पर अपने को ऊंचा और पर को नीचा दिखाने के भाव होते हैं। मायामय परिणाम होने पर दूसरों को ठगकर इच्छित वस्तु की प्राप्ति के भाव होते हैं और लोभमय परिणाम होने पर धनादि पदार्थों को एकत्रित करने के भाव होते हैं। यह सामान्य भाव नहीं हैं इतने तीव्र हैं कि इनके होते हुए अगर मरण होता है। तो नियम से नकर में जाना पड़ता है और वहां पर सागरों पर्यंत घोर दुखों को भोगना पड़ता है। अनुत्कृष्ट कषाय के परिणाम उत्कृष्ट की अपेक्षा से मंद हैं अतः इनमें मंरण कर जीव नियम से तिर्यंचगति में जाता है और वहां पर भी घोर कष्ट सहन करता है यह परिणाम क्रमशः पृथ्वीरेखा के, हड्डी के, मेढ़े के सींग और गाड़ी के आंगन के सामन हैं। जघन्य परिणामों का स्वरूप क्रमशः धूल रेखा, काष्ठ, गोमूत्र और शरीर के मैल के समान हैं। इन परिणामों में मरण कर जीव नियम से मनुष्य होता है। जघन्य परिणामों का स्वरूप जलरेखा, बेंत, खुरपा और हल्दी के रंग के समान है। यह परिणाम सबसे मन्द हैं; इनमें मरण कर जीव देवगति में उत्पन्न होता है। यह चारों प्रकार की कषायें त्याज्य हैं, क्योंकि इनका त्याग किये बिना हमें पूर्ण शांति नहीं मिल सकती; परंतु इन सबका एक साथ त्याग नहीं कर सकते अतः क्रम से अपनी शक्ति के अनुसार करें, परंतु करें अवश्य, अगर चलना चाहते हैं मुक्ति-पथ की ओर तो।
इस प्रकार संक्षेप में चारों कषायों का स्वरूप कहा। इन्हें समझकर इनसे इसी क्षण अपना पीछा छुड़ा लें, तो जीत है अन्यथा हार ही है, अपना अहित ही है।