सप्त व्यसनों के त्याग के साथ ही हमें अपने जीवन में हिंसा से बचने, अहिंसा धर्म का पालन करने तथा अपने स्वास्थ्य को ठीक रखने के लिए दिन में ही भोजन करना उचित होगा, क्योंकि दिन के बजाय रात्रि में जीवों की उत्पत्ति दुगुनी हो जाती है, इसलिए हम सबको रात्रि-भोजन का त्याग अवश्य कर देना है। त्याग हमें इसलिए कर देना है कि रात्रि-भोजन से लाभ तो कुछ भी नहीं है और हानियों की भरमार है।
कुछ व्यक्ति रात्रि-भोजन के पक्ष में तर्क देते हैं कि जब रात्रि में विद्युत-प्रकाश द्वारा दिन जैसा प्रकाश हो सकता है तो रात्रि में भोजन करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु उन लोगों का यह तर्क ठीक नहीं है, क्योंकि विद्युत के कृत्रिम प्रकाश और सूर्य के प्राकृतिक प्रकाश में बहुत अंतर है। दिन के समय बिजली की रोशनी पर वर्षा के मौसम में एक भी जीवाणु नहीं आता, जबकि उसी रोशनी पर रात्रि होते ही हजारों जीवाणु एकत्रित हो जाते हैं। सूर्य ओर बिजी के प्रकाश में जमीन-आसमान का फर्क है। जितनी अच्छी तरह वस्तुएं सूर्य के प्रकाश में दिखाई देती हैं वैसी बिजली की रोशनी में कभी नहीं दिख सकती हैं।
दिन के समय में वायु में आॅक्सीजन की मात्रा अधिक होती है, जो हमारे पेट में भोजन को जल्दी पचाने में सहायक होती है।
कई जाति के सूक्ष्म जीव ऐसे हैं जो सूर्य की गर्मी के कारण उत्पन्न ही नहीं होते, परंतु बिजली की रोशनी में यह शक्ति नहीं है, जो जीवों की उत्पत्ति न होने दे। कई जाति के जीव तो ऐसे होते हैं जो दिन में तो सघन अन्धकर के किन्हीं कोनों में आश्रित अपना समय व्यतीत करते हैं, परंतु वही जीव जब सूर्य पश्चिम दिशा की गोद में सो जाता है तब बिजली के प्रकाष में उछलने-कूदने लगते हैं। रात्रि में भोजन बनाते, खाते समय ऐसे जीव अथवा पतंगे, मच्छरादि कीटाणु आकर हमारे भोजन में गिर पड़ते हैं और उसे विषैला बना देते हैं। ऐसी कई घटनाएं पढ़ी हैं और सुनने में आई हैं कि रात्रि में भोजन बन रहा था, उसी समय आके गिर गई एक छिपकली फलतः जितने आदमियों ने उस भोजन को जीमा उतने सभी मृत्यु-शैय्या पर सो गयें ऐसी हजारों घटनाएं आज तक हो चुकी हैं और अीा भी अनेक सुनने में, देखने में आ रही है, अतः हमें सावधान हो जाना चाहिए।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी देखा जाय तो अपना भोजन हमें रात्रि में सोने से तीन-चार घण्टे पहले करना उचित है, जिससे सोने तक, किया हुआ भोजन हजम हो जाय। अगर सोने के समय तक भोजन नहीं पचता है तो वह भाोजन आमाशय में पड़ा-पड़ा सड़ता रहात है और अनेक रोगों की उत्पत्ति करता रहता है। आजकल देखा जाता है कि उदर रोग से पीडि़त हजारों आतुर पड़े हं। इसका मूल कारण है रात्रि-भोजन। कहा गया है ‘‘अजीर्णें भोजनम् विषम्’’ अर्जीण से तात्पर्य है अर्द्धपक्व, अनपचा भोजन पेट में विष हो जाता है। विष बनते ही रोगों के अंकुर फूटना शुरू हो जाते हैं। इसलिये अगर उदर सम्बंधी रोगों से छुटकारा पाना चाहते हैं तो भोजन दिन में ही करें। दिन में भोजन करने से उदर सम्बंधी कम से कम नब्बे प्रतिशत बीमारियां कम हो जायेंगी। शरीर भी स्वस्थ और सुन्दर धर्म-कर्म के लिए बना रहेगा।
रात्रि भोजन-त्याग मात्र अहिंसा की पुष्टि नहीं करता, अपितु इसके त्याग करने से जीवन सम्बंधी कई लाभ होते हैं। इसलिए आचार्यों ने जोर देकर कहा है कि रात्रि-भोजनकरना पाप है। रात्रि-भोजन किसी भी अवस्था में नहीं करना चाहिए। जैनी का पहला चिन्ह शास्त्रों में रात्रि-भोजन-त्याग कहा है, इसलिये धार्मिक दृष्टि और स्वास्थ्य की दृष्टि को देखते हुए हमें भोजन दिन में करना चाहिए। दिन में भोजन हम अकेले ही न करें, बल्कि यह सलाह अपने सभी मित्रों को दें, ताकि वह भी रोगों से मुक्त हों।
रात्रि-भोजन का निषेध मात्र जैन धर्म ही नहीं अपितु भारत में प्रचलित सभी धर्म और आजकल के वैज्ञानिक भी करते हैं। वेदों में तो यहां तक लिखा है कि एक सूर्य में भोजन एक बार ही करना उचित है। कहीं-कहीं तो ऐसा भी लिखा है कि मनुष्य वही है जो दिन में एक समय भोजन करता है, अगर एक समय भोजन करने से काम न चले तो सायंकाल दिन अस्त होनेसे तीन घड़ी पूर्व भोजन कर लेना चाहिए। इसके बाद भोजन वर्जनीय है।
शास्त्रों में कई ऐसी कथायें पाई जाती हैं कि जिन्होंने मात्र रात्रि-भोजन का त्या किया और संकट आने पर भी त्याग को न छोड़ा तो उनके प्रताप से कई चमत्कार दिखाई दिये और स्वर्गादि की प्राप्ति की। यह भी सत्य ही है, क्योंकि वहां पर जाो त्याग की भावना थी, यह सब उसी का फल है।
कुछ लोगों का कहना है कि जैन धर्म में रात्रि को दूध-मलाई खाने की छूट क्यों दी गई है और अन्न का निषेध क्यों किया गया है?
शास्त्रों में आचार्यों ने वैसे तो सभी पदार्थों का रात्रि में सर्वथा त्याग कहा है। अगर किसी से न बने तो पानी आदि ले सकता है क्येांकि अनन के आश्रित रात्रि में अनन्त जीव आ जाते हैं और वह देर से पचता है। पण्डित आशाधर जी के सागर धर्मामृत की टीका में रात्रि को असमर्थों के लिए मात्र अन्न का त्याग लिखा है-
राग-जीव-वधापाय-भूयस्त्वात् तद्वदुत्सृजेत्। रात्रिभक्तं यथा युंजयान्न पानीयमगालितम्।।2194।।
टीका में ‘‘रात्रि-भक्त’’ का अर्थ रात्रौ अन्नप्राकशन यानी रात्रि को अन्न न खाना ऐसा किया है। तथापित फलाहार आदि भी नहीं करनाचाहिए, क्योंकि दोनों में दोष लगता है, रात्रि में फल, दूध और उन पदार्थों से बनी वस्तुएं जिनकी संज्ञा अन्न में न गिनी जाती हो, इन सबकी छूट मात्र बालक विद्यार्थी जीवन में और किसी व्यााधि से पीडि़त होने पर ही दी गई है, प्रत्येक दिन के लिए नहीं। अगर हम दिन के अस्त होने से दो घण्टे पूर्व ही भोजन कर लेंगे तो आराम से एक-दो समय जल पी सकते हैं, फिर रात्रि में उसके लेने की आवश्यकता ही नहीं अतः रात्रि-भोजन का अपनी जीवन रक्षा के लिये हमें अवश्य त्याग करना होगा।
रात्रि भोजन करन से, धर्म कर्म सब जाय। दिन में भोजन शुद्ध जो, करें रोग ना आय।।6।।
अर्थात् -स्थूल हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म, परिग्रह, जुआ, मांस और मदिरा इनका त्याग अष्ट मूलगुण हैं।
‘सागरधर्माृत’ में पण्डित आशाधरजी ने अष्ट मूलगुण किन्हीं और आचार्यों के प्रमाण से इस प्रकार कहे हैं -
मद्यपलमधुनिशाशन-पंचफलीविरति-पंचकाप्तनुतीः। जीवदया-जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ।।2।।18।।
अनछना पानी पीने से पानी में रहने वाले कीटाणु पेट में आते हैं और अनेक व्याधि उत्पन्न कर देते हैं। पेट में आज प्रायः कीडत्रे पोय जाते हैं, उनमें मुख्य कारण है बिना छना जल। पानी की एक बून्द में अनेक जीव होते हैं ऐसा आचार्यों का मत है। आज के सुप्रसिद्ध विज्ञानवेत्ता ‘केप्टन स्वयोर्सवी’’ ने इनको (कीड़ों को) दूरबीर (सूक्ष्मदर्शक यंत्र) से देखकर इनका फोटो लिया है।