रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
जय मां सरस्वती जिनवाणी, जय वागीश्वरि जय कल्याणी।।1।। शारद मात तुम्हारी जय हो, तुम जिनवर मन में अक्षय हो।।2।। द्वादशांगमय रूप तुम्हारा, ज्ञानीजन को लगता प्यारा।।3।। वह आध्यात्मिक ज्ञान अपूरब, ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब।।4।। आचारांग प्रथम कहलाता, सूत्रकृतांग द्वितीय सुहाता।।5।। तीजा स्थानांग कहा है, समवायांग चतुर्थ रहा है।।6।। व्याख्याप्रज्ञप्ती है पंचम, ज्ञातृकथा शुभ अंग है षष्ठम्।।7।। उपासकाध्ययनांग है सप्तम, अन्तःकृद्दश अंग जु अष्टम्।ं8।। नवम अनुत्तरदशांग आता, दशम प्रश्नव्याकरण कहाता ।।9।। सूत्रविपाक नाम ग्यारहवां, दृष्टीवाद कहा बारहवां।।10।। दृष्टिवाद के पांच भेद हैं, जिन्हें बताते जैन वेद हैं।।11।। पहला है परिकर्म सुहाना, सूत्र पूर्वगत क्रमशः माना।।12।। है प्रथमानुयोग फिर चैथा, पंचम भेद चूलिका होता।।13।। चैदह भेद पूर्वगत के हैं, आगम में सार्थक वर्णे हैं।।14।। वीर्यप्रवाद पूर्व है तीजा, अस्तीनास्ति प्रवाद है चैथा।।16।। ज्ञानप्रवाद पूर्व है पंचम, सत्यप्रवाद पूर्व है षष्ठम्।।17।। सप्तम पूर्व है आत्मप्रवादम्, कर्मप्रवाद पूर्व है अष्टम्।।18।। नवमा प्रत्याख्यान पूर्व है, पुनि विद्यानुप्रवाद पूर्व है।।19।। पूर्व कहा कल्याणवाद है, प्राणवाय पूर्व द्वादशा है।।20।। क्रियाविशाल पूर्व तेरहवां, लोकबिन्दुसारम् चैदहवां।।21।। ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब, इनसे युत जिनवचन अपूरब्।।22।। वीरप्रभू की दिव्यध्वनि है, गौतम गणधर की कथनी से।।23।। यह श्रुत प्रगट हुआ धरती पर, आचार्यों की बना धरोहर।।24।। परम्पराचार्यों ने पाया, भव्यों को उपदेश सुनाया।।25।। वर्तमन के इस कलियुग में, अंगपूर्व उपलब्ध न जग में।।26।। उनके अंशरूप हैं आगम, वर्तमान के श्रुत परमागम।।27।। षट्खण्डागम आदि ग्रंथ हैं, धवलादिक टीका से युत हैं।।28।। उस पर नूतन संस्कृत टीका, गणिनी ज्ञानमती जी ने लिखा।।29।। वर्तमान में चतुयरनुयोगा, उसमें ही श्रुत गर्भित होगा।।30।। जो भी सब उपलब्ध शास्त्र हैं, उनसे कर लो सिद्ध स्वार्थ है।।31।। सरस्वती मां का आराधन, करता है पापों का क्षालन।।32।। जिनवाणी के कई नाम हैं, सरस्वती भारती धाम है।।33।। शारद मां तुम हंसवाहिनी, विदुषी वागीश्वरी ब्राह्मणी।।34।। ब्रह्मचारिणी और कुमारी, कहें जगन्माता सुखकारी।।35।। श्रीुतदेवी भाषा गौ वाणी, विदुषी सर्वमता प्रभु वाणी।।36।। इन सोलह नामों युत माता, मेरे मन की हरो असाता।।37।। अनेकान्तमय अमृत झरिणी, श्रुतज्ञान की तुम निर्झरिणी।।38।। तुममें हो अवगाहन मेरा, हो जावे बस ज्ञान उजेरा।।39।। यही एक अभिलाषा मेरी, मिटे ज्ञान से भ की फेरी।।40।।
यह श्रुत चालीसा जो भविजन, प्रतिदिन श्रद्धा से पढ़ लेंगे। लौकिक आध्यात्मिक ज्ञान सभी, वे अपने मन में भर लेंगे।। पच्चिस सौ चैबिस वीर संवत् की, श्रुत पंचमी तिथी आई। ‘‘चन्दनामती’’ निज भावों में, श्रुतभक्ती गंगा भर लाई।।1।। यह ज्ञानगंग बन करके मेरे, मन को पावन कर देवे। जग को अपनी पावनता की, सौरभता का परिचय देवे।। निज पर की जडत्रता क्षय करने का, भाव मात्र इस रचना में। जिनदेव शास्त्र गुरू की छाया, मेरे जीवन में सदा मिले।।2।।