।। उत्तम आर्जव ।।

जो चिंतेइ ण बंक कुणादिण बंक ण जपए बकं ।
ण य गोवदिणियदोसं अजव धम्मो हवे तस्स ॥

अर्थात्- जो न तो वक्र ( कुटिलता मायाचाररूप) चितवन करता है, न वक्र कार्य करता है और न वक्रता लिये वचन ही बोलता है, तथा अपने दोषोंको नहीं छिपाता है, उसीके उत्तम आर्जव धर्म कहा जाता है । तात्पर्य-मन, वचन, काय और वचनोंमें जिसके सरलता हो अर्थात् जो मनमें हो वही करे और वही कहे तथा अपने दोषोंको न छिपाकर स्वीकार करे, वही आर्जवधर्मधारी महापुरुष कहा जाता है और उसके दोष दूर होकर वह शीघ्र ही एक पवित्रात्मा होजाता है। सो ही आगे आर्जव धर्मका भाव कहते हैं । यथा--

(स्वा० का० अ०)

ऋजोर्भावः इति आर्जवः अर्थात्-सरल भावको आर्जव भाव कहते हैं । उत्तम विशेषण है, अर्थात् जिन भावोंमें किञ्चित् भी छल-कपट, दिखावट, बनावट व मायाचारी न हो वे ही भाव आर्जव भाव कहाते हैं। ये भाव आत्माके निजस्वभाव ही हैं जो कि माया कषायके क्षय व उपशम होनेसे प्रकट होते हैं।

जिस समय जीवके मन, वचन और काय ये तीनों योग वक्रता-- मायाचार रहित सरल होते हैं, अर्थात् जो कुछ मनमें विचार हो उसे ही वचनसे प्रकाश करना और वचनसे जो कुछ प्रकाश किया हो, वही कायसे करना इसीको आर्जव नाम आत्माका स्वभाव कहते हैं ।

किन्तु जिस समय यह जीव निज आत्मबुद्धि अर्थात् अपने आत्मामें ही आत्म भावनासे रहित हुआ, आत्मबुद्धि परपदार्थोंमें स्वात्म भाव धारण कर प्रवर्तता है, तभी यह अपने इच्छित मनोनुकूल विपयों वा कषायोंकी पुष्ट्यर्थ नाना प्रकारकी कुचेष्टाएं करता है। अर्थात् मनमें कुछ और विचारता है, वचनसे कुछ और प्रगट करता है तथा कायसे कुछ अन्य ही आचरण करता है। तब इसके अंतरंग भावोंका भेद, सिवाय केवलज्ञानी व मनःपर्ययज्ञानीके और कोई भी नहीं जान सकता। इसे ही अर्थात् ऐसे ही भावोंको माया कषाय कहते हैं।

यद्यपि मायाचारी पुरुष प्रायः ऊपरसे मिष्ट भाषण करता है, सौम्य आकृति बनाता है, अपने आचरणोंसे लोगोंको विश्वास उत्पन्न कराता है और अपने प्रयोजन साधनार्थ विपक्षीकी भी हाँमें हाँ भी मिला देता है परन्तु अवसर पाते ही वह अपने मन जैसी कर लेता है।

इसका स्वभाव ठीक बगुलेके सरीखा होता है-अर्थात् जैसे बगुला पानीमें एक पाँवमें खड़ा होकर नासादृष्टि लगाता है और मछली ज्यों ही उसके पास उसे साधु समझकर आती है त्यों ही वह छद्मभेषी झटसे उन्हें पकड़ कर भक्षण कर लेता है । कहावत है कि----

उज्वल वर्ण गरीब गति, एक टांग मुख ध्यान ।
देखत लागत भगतवत, निपट कपटंकी खान ॥१॥

मायाचारी कभी सत्य तो बोलता ही नहीं है और यदि क्वचित् कदाचित् वह कुछ सत्य भी कहे, तो भी उसका कहना असत्य ही समझना चाहिये और कदापि उसका विश्वास नहीं करना चाहिये और प्रायः कोई करते भी नहीं हैं।

यद्यपि वह अपने दोषोंको पूर्णरूपसे ढंकता है तो भी उसका कपटभेष अंतमें प्रकट हो ही जाता है और कपटभेष प्रगट होते ही फिर कोई उसका विश्वास नहीं करते हैं।

यद्यपि कुछ समय तक लोग विना जाने उसके पञ्जमें भले ही फँसे रहें और वह भी अपने आपको कृतकृत्य समझले, पर जैसे कि मिट्टीसे अच्छादित तूंवीसे पानीके भीतर मिट्टी गलकर छूटते ही ऊपर आ जाती है, वैसे ही कपट भेष भी बहुत समय तक नहीं छिप सकता।

मायाचारीका विश्वास लोकमेंसे उठ जानेपर उसका समस्त व्यवहार बंद होजाता है, जिससे उसे अत्यन्त दुःखी होना पड़ता है। मायाचारी मनुष्यको कभी भी शांति नहीं मिलती, वह सदा ही उधेड़बुनमें लगा रहता है। किसीका बुरा करना, किसीको लड़ाना, किसीकी चुगली खाना, किसीका अपमान व पराजय कराना इत्यादि। तात्पर्य-उसे कभी सुख-नींद नहीं आती। वह निरंतर चिन्ताग्रस्त रहता है और चिन्तावानको सुख कहाँ ?

मायाचारी आप तो दुःखी रहता ही है किन्तु अन्यको दुःखी करनेमें भी हर्ष मानता है । वास्तवमें ऐसे लोग शत्रुसे भी भयंकर होते हैं क्योंकि शत्रु तो प्रगट रूपसे धावा करके मारता है, इसलिये उससे तो हम सदा शंकित अर्थात् सावधान रहनेके कारण किसी प्रकारसे भी अपनी रक्षा कर सकते हैं परन्तु इन मीठे बोलनेवाले अस्तीनके सांपों सरीखे मायाचारियोंसे बचना तो बहुत कठिन तो क्या असंभवसा ही है। कहा है-

'अरकसिया (करोंत) के मुख नहीं, नहीं गौंचके दंत ।
जे नर धीरे बोलते, इनसे बचिये संत ॥१॥

क्योंकि ये लोग सदा मीठी मीठी बातोंमें अन्तरंगका हाल जानकर बाहिर प्रगट कर देते हैं। ये कभी किसीसे मित्रता तो करते ही नहीं है। ये लोग तो जहां अपना मतलब होते देखते हैं कि झटसे वहीं जा मिलते हैं। इनके वचनकी स्थिरता तो होती ही नहीं है। झूठ बोलनेका तो इनका स्वभाव ही पड़ जाता है अथवा झूठ बोलनेमें ये पाप ही नहीं समझते हैं, इसलिये सदा ऐसे लोगोंसे बचते रहना ही ठीक है।

ये लोग अपने प्रयोजन साधनार्थ व कौतुकवश दूसरोंको घात पहुँचानेकी चेष्टा करते रहते हैं, परन्तु औरोंका घात तो उनके पूर्वकृत कर्मानुसार होवे अथवा नहीं भी हो, किन्तु मायाचारीका घात उसके. परिणामोंसे तो सदा हुआ ही करता है । जैसे दर्पणमें मुंह देखनेपर जैसा टेढ़ा सीधा करके देखो वैसा ही दिखने लगता है; ठीक, यही हाल मायाचारियोंका होता हैं। जो औरोंके लिये कुआ खोदते हैं, 'उसमें वे आप ही अनायास गिर जाते हैं। कहा है-"जो कोई कूपः खने औरनको, ताको खाई तयार ।” सत्य है ओसका मोती कबतक स्थिर रहता हैं ?

एक समय एक कौआ.मोरोंके पंख, पहिन कर अपने आपको मोर प्रकट करता हुआ स्वजातीय कौओंके पास जा उन्हें भला बुरा कहने लगा । वे बेचारे इसकी मूर्खतापर चुप होरहे और अपने संघसे उसे त्याग कर दिया । पश्चात् वह मोरोंके झुंडमें जाके अकड़ कर फिरने लगा, इससे मोरोंने भी इसे तुरत छद्मभेषी काग समझकर खूब ही चोंचोंसे इसकी खबर ली। और सब नकली पर नोंच डाले। तब वह मारसे व्याकुल हुआ, पीछे स्वजातियोंके पास आया और पूर्ववत् उनमें मिलना चाहा परन्तु उन्होंने भी इसकी मोरोंके समान खूब खबर ली और बाहर निकाल दिया। तब बेचारा महा दुःखी हो जन्म पर्यंत नातिच्युत हुआ अकेला ही बनमें मृत्युकी प्रतीक्षा करता करता मर गया।

तात्पर्य- कपट-जाल कभी न कभी टूटता ही है और उसके टूटनेपर कपटीकी बहुत ही दुर्दशा होती है।

सो जब इसी लोकमें कपटी मारन ताड़नादि अनेक वेदनाएँ सहता है तो परभवका कहना ही क्या है ? भगवान् उमा स्वामीने कहा है- 'माया तैर्यग्योनस्य' अर्थात् मायाभावोंसे तिर्यञ्चगतिका आस्रव और बंध होता है। इससे वहाँ पर यह जीव अनेक प्रकार छेदन, भेदन, बध, बंधन, भूख प्यास आदि दुःख भोगता है । तथा शीत, उप्ण, छेदन, भेदन, डंस, मच्छर, भार-वहन, मारन, ताड़नादि और भी अनेकों दुःख सहता है।

यदि यह सबल हुआ तो औरोंको मारकर खाने लगा और कभी शिकारियों द्वारा आप भी मारा गया । यदि यह निर्बल हुआ तो दूसरे जीव इसे मारकर खा गये । यदि पालतू पशुओंमें हुआ तो सवारी में जोता गया, युद्ध में प्रेरा गया, नाक, मुँह, जिह्वा, लिंगादि छेदन किये गये, भार लादा गया, शक्तिहीन होनेपर कषायीके हाथ बेचा गया, देवी देवताओंकी बलि दिया गया, यज्ञमें होमा गया, यह तो पञ्चन्द्री समनस्ककी कथा हुई तब चौ-इन्द्री, तीन-इन्द्री, दो-इन्द्री, एक-इन्द्रीका तो कहना ही क्या है ? जहाँ बड़े बड़े उपकारी जीवों ही की दया नहीं देखी जाती, वहां दीन क्षुद्र जीवोंकी तो कौन रक्षा करता है ? हाय! ऐसे पशुगतिके दुःख मायाचारीको भोगने पड़ते हैं ?

ये ही मायाभाव जीवको अनन्त संसारमें भ्रमण कराते हैं, इसलिये ये कुभाव सदैव त्यागने योग्य हैं । उत्तम पुरुष ऐसे कुभावोंको त्याग कर स्वभावों-आर्जव भावोंको प्रगट करते हैं और मन, वचन, कायकी सरलता करके अनादि कर्म बन्धनको काटकर अविनाशी सुखोंको प्राप्त होते हैं । इसलिये उत्तम पुरुषोंको सदा स्वपर हितकारी उत्तम आर्जव धर्मको धारण करना चाहिये । सो ही कहा है-

कपट न कीजे कोय, चोरनके पुर नहिं बसे ।
सरल स्वभावी होय, ताके घर बहु सम्पदा ।।
उत्तम आर्जव रीति वखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी।
मनमें होय सो वचन उचरिये, बचन होय सो तनसे करिये॥
करिये सरल तिहुंयोग अपने, देख निर्मल आरसी।
मुख करे जैसा लखे तैसा, कपट प्रीति अंगारसी ॥
नहि लहे लक्ष्मी अधिक छल कर, कर्मबंध विशेषता।
भय त्याग दूध विलाव पीवे, आपदा नहिं देखता ॥ ३ ॥