।। उत्तम मार्दव ।।

उत्तमणाणपहाणो उत्तम तव परण करण सीलोवि ।
अप्याणं जो ही लदि मद्दव रयण भवे तस्स ।।

अर्थात्- जो उत्तम ज्ञानमें प्रधान और उत्तम तपश्चरण करनेमें समर्थ होनेपर भी अपने आत्माको मानकषायसे मलिन नहीं करते हैं उनके उत्तममार्दव धर्म होता है।

(स्वा० का० अ०)

भावार्थ - निर्गुणी, दीन, दरिद्री, अशक्त, अज्ञानी, हीन, कुलजातिवाला, कुरूप, चारित्रहीन पुरुप यदि विनय (नम्रता) धारण करते हैं तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है, क्योंकि उनको तो दबना " ही पड़ता है या वे दबाये जाते ही हैं। सो उनके ऐसा करनेसे वे कुछ मार्दव गुणके धारी नहीं कहे जाते । क्योंकि उनकी यह विनय व नम्रता स्वाभाविक नहीं है किन्तु दबाव व लाचारीकी है। वे अवसर पाकर पुनः मस्तक उठाकर चलने लगते हैं।

परन्तु जो उत्तम ज्ञानवान् , तपस्वी, ऐश्वर्यवान, समर्थ, वलवान्, रूपवान, कुलवान, उत्तम जातिवान तथा धनवान होते हुवे भी इनका मान नहीं करते और यथायोग्य विनय व शिष्टाचाररूप प्रवर्तन करते हैं अर्थात् बड़ों (जो ज्ञान चारित्र दीक्षा पद व वयमें वृद्ध हैं) की विनय भक्ति और छोटोंमें दया व मृदुभाव रखते हैं और अपने आत्माको मानकषायरूपी मलसे मलिन नहीं होने देते हैं वे ही उत्तम मार्दव धर्मचारी कहे जाते हैं । क्योंकि कहा है-

मृदोर्भावः इति मार्दवः अर्थात्-मृदु (नम्र) भावोंका होना सो ही मार्दव धर्म हैं । उत्तम अर्थात् सच्चा कि जिसमें दिखावट या बनावट न हो, ऐसा उत्तम मार्दव धर्म आत्माहीका निजस्वभाव है। यह गुण आत्मासे, मान कषायके क्षय, उपशम वा क्षयोपशम होनेसे प्रगट होता है-अर्थात् जबतक किसी जीवको मानकषायका दय रहता है, तबतक वह प्राणी अपने आपको सर्वोच्च मानता और दूसरेको तुच्छ गिनता हुआ, सबको अपने आधीन बनानेकी चेष्टा करता रहता है और जो कोई उसे नमस्कार व प्रणाम आदि शिष्ट व्यवहार नहीं करता है या इससे मध्यस्थ अथवा विपक्षी होकर रहता है, तो वह उसे देख नहीं सकता तथा सदैव उसे नीचा दिखानेका विचार और उपाय किया करता है । यहांतक कि वह अपने बलाबलको न विचारकर अपनेसे सबलका भी साम्हना कर बैठता है और बंदी हो जानेपर भी वह अपनेको नतमस्तक न करके नष्टमायः होजाता है, इसीको मान कषाय कहते हैं।

इस कषायके उदय होते हुए विचार-शक्ति कम हो जाती है। देखो, लंकाधिपति प्रतिवासुदेव दशानन (रावण) जब सीताको हर लाया और जब मंदोदरी आदि समस्त स्वजनोंने उसे समझाया कि. सीता रामचंद्रको पीछे दे दो और अपने पवित्र कुलमें परस्त्री रूपी मल न लगाकर सुखपूर्वक राज्य करो या वनमें जाकर तपश्चरण करो इसीमें हित है, तब उसने यही उत्तर दिया कि-

" जानि हैं कायर मुझे नृपगण सभी संग्रामसे;
तासे लड़ना है मुझे धुन बांधके अब रामसे ।
जीतकर अर्पू सिया प्यारी जु उनके प्राणसे;
यश होय मेरा विश्वमें बेशक सियाके दानसे ॥"

अर्थात्- सब क्षत्रियगणोंको विदित होगया है कि रावण सीताको हर लाया है और राम लक्ष्मण युद्धके लिये भी आगये हैं सो यदि मैं सीताको अभी रामके पास पहुँचा दूं, तो क्षत्रियगण मुझे कायर समझकर हास्य करेंगे, इसलिये मैं रामचंद्र लक्ष्मणको युद्ध में जीतकर, सीता और उसके साथ बहुतसा द्रव्य देकर उन्हें बिदा करूंगा। किन्तु इस समय तो सीताको न भेजकर केवल युद्ध करना ही अभीष्ट है इत्यादि । और इस प्रकार उस महापुरुषने अन्त तक-. पाण जाते हुए भी अपने प्रणको नहीं छोड़ा तथा वीरभूमि (रणक्षेत्र)में ही मृत्युको प्राप्त हुआ।

इसीलिये संसारमें मानी पुरुषों को लोग रावणकी उपमा देकर कहा करते हैं कि देखो-

"इक लख पूत सवा लख नाती ।
ता रावण घर दिया न बाती ॥"

तात्पर्य- गर्च (मान अहंकार) मत करो, त्रिखण्डी रावणका भी मान नहीं रहा है तो औरोंकी क्या बात ? इत्यादि ।

सो जब इस प्रकारके मान कर्मका क्षय वा उपशम होता है तभी आत्माका मार्दव नामक स्वाभाविक गुण प्रगट होता है।

इस गुणके प्रगट होते हुए जीव अपने सिवाय अन्य समस्त जीवोंको अपने समान समझता है, तब उसे किसीसे रागद्वेष नहीं होता । वह विचारता है कि सब जीव समान हैं, कोई कम-बढ़ -नहीं है। और जब कोई कम-बढ़ है ही नहीं, तब मैं जिनको आधीन करना चाहता हूं, जिनको मैं अपमानित करना चाहता हूं, जिन्हें आज्ञाकारी बनाकर नमस्कार कराना चाहता हूं, वे सब मेरे ही -समान हैं। फिर समान समानमें अधिकारी और अधिकृत भाव कैसा? और तू जो अभी अपने आपको बड़ा समझता है, सो जब नरक - 'पशु आदि गतियोंमें, हीन सेवक देवोंमें व नीच गोत्रीय मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ था, तब वह तेरा बड़प्पन कहां चला गया था? तू सैकड़ों• वार क्या असंख्यात वार नरक निगोदमें गया, एक पाईकी भाजी : - खरीदनेवालेके यहां रूकनमें चला गया, मैलेका कीड़ा हुआ, तब तेरा बड़प्पन कहां चला गया था ?

आज जो तूने यह उत्तम कुल, बल, ऐश्वर्य वा रूपादिक पाये , हैं, यह सब तेरे पूर्वोपार्जित शुभ कमौका ही फल है सो कर्म अपनी स्थिति पूर्ण करके निर्जर जायगा, तब मेरा यह सब विनय लुप्त हो जायगा । क्योंकि कहा है...

"सदा न फूले केतकी, सदा न श्रावण होय ।
सदान यौवन थिर रहे, सदा जियत नहिं कोय ॥"

अर्थात्- जिन कारणोंसे तू अपने आपको बड़ा मान रहा है, वे सब कारण एक दिन नष्ट होजायगे। क्योंकि प्रकृतिका ऐसा ही नियम है । कार्तिकेयस्वामीने भी कहा है-

"जम्मं मरणेण सम, संपन्जई जुव्वणं जरा सहिया ।
लच्छी विनाश सहिया, यह सव्वं क्षणभंगुरं मुणह॥"

अर्थात- जन्मके साथ मरण, यौवनके साथ बुढ़ापा और लक्ष्मीके साथ दरिद्रता लगी हुई है। इसलिये ये सब क्षणभंगुर (विनाशवान्) जानने चाहिये।

जब संसारके सर्व ही पदार्थ (पर्याय अपेक्षा) विनाशवान् हैं, तो फिर मान किस बातका ? देखो, शरीरका बल और सौन्दर्य बुढ़ापा आते ही नष्ट होजाते हैं, सब इन्द्रियां शिथिल होजाती हैं जिससे वे अपने अपने विषयको ग्रहण कर नहीं सकतीं ।

यौवन था तब रूप था, थे ग्राहक सब लोय ।
यौवन रन गुमो पुनः, बात न पूछे कोय ॥

इसलिये अभी तुम जो रूप सौंदर्य आदिके मदसे अपनी तरुणावस्था में औरोंका हास्य व निन्दा करते हो सो वे भी तुम्हारी जरावस्था होनेपर तुम्हें हंसेंगे तब तुम्हें 'बहुत दुःख होगा और तुम्हारा , मान गल जायगा, जिससे तुमको क्रोध उत्पन्न होनेसे तुम्हारा रहा सहा.. आनन्द भी जाता रहेगा और तुम शक्तिहीन होनेसे किसीका कुछ कर भी न सकोगे । प्रायः निर्बलको क्रोध बहुत होता है क्योंकि वह क्रोधवश किसीको मनोनुकूल दंड नहीं दे सकता है, ताड़न तर्जन नहीं कर सकता है अर्थात् अपना बदला नहीं ले सक्ता तत्र स्वयं अपने आपका घात कर बैठता है । इसलिये ऐसे रूप सौन्दर्य बलादिका मान करना क्या यथार्थ है ? कभी नहीं।

यदि कर्मके क्षयोपशमसे कदाचित् तुमको कुछ भी ज्ञानका प्रकाश हुआ है, तो उसका मान मत करो, क्योंकि संसारमें तुमसे भी अधिक अनेकों ज्ञानी भर रहे हैं सो यदि तुम इस तुच्छ क्षायोपशमिक ज्ञानका मान करते हो, तो तुम उस ऊंटके समान हो, जो अपनेको संसारमें सबसे बड़ा मानता है, किंतु जब पहाड़की तलहटीमें पहुँचता है, तो उसका मान भंग होजाता है, उसे हार मानना पड़ती है और भूल स्वीकारना पड़ती है कि मैं सबसे बड़ा नहीं हूँ किन्तु मुझसे और भी बड़े बड़े पदार्थ संसारमें हैं।

सो प्रथम तो यह क्षायोपशमिक ज्ञान है इसका घटना बढ़ना भी संभव है । दूसरे यह ज्ञान इन्द्रियाधीन है सो इंद्रियोंकी शक्ति कम होनेसे स्वयमेव कम होजाता है, इसीसे यह पराधीन और परोक्ष कहाता है । इसलिये जो तुम इसका मान करोगे, तो इन्द्रियोंकी शक्ति कम हो जानेपर ज्ञानमें न्यूनता व विपरीतता होनेसे तुम दूसरोंकी दृष्टिमें हीन अँच जाओगे, हँसीके पात्र बन जाओगे, लोग तुम्हारी युक्तियोंको अयुक्ति ठहरावेंगे. और तुम्हारे वचनोंको अप्रमाण समझेंगे, तब तुम्हें घोर दुःख होगा और उस समय तुम मानके वशवर्ती होकर हठात् अपने असत्य वचनोंको भी सत्य सिद्ध करनेकी चेष्टा करोगे । जैसा कि बहुतसे आधुनिक पंडित पूर्वीय तथा पश्चिमी विद्याके अभ्यासी स्ववचन पोषणार्थ अनेकों कुयुक्तियाँ लगाकर ज्योंत्यों स्वपक्ष मंडन और परपक्ष खंडन कर डालते हैं जिससे लोकमें असत्य वचनोंकी प्रवृत्ति हो जाती है और अनेकों मिथ्या मत संसारमें चल जाते हैं जिनमें भोले प्राणी फंस अपने आत्माका अकल्याण कर बैठते हैं । इसलिये ऐसे क्षायोपशमिक, पराधीन तथा अल्पज्ञानका मान करना वृथा है।

देखो, जो कोई अल्पज्ञानका मान करता है और दूसरोंको अज्ञानी समझता है, वह सदा अज्ञानी ही बना रहता है, उसके ज्ञानकी वृद्धि कभी नहीं होती है। क्योंकि कहा है-

"विनय विना विद्या नहीं, विद्या विन नहीं ज्ञान ।
ज्ञान विना सुख नहिं मिले, यह निश्चय कर जान ॥"

इसलिये ज्ञानवृद्धिमें भी विनय प्रधान है और मान हानिकारक है।

यदि पूर्व पुण्यवशात् कुछ ऐश्वर्य-अधिकार, पूजा, प्रतिष्ठादि प्राप्त हुआ है तो उसके मदमें आकर स्वच्छंद प्रवर्तना अच्छा नहीं है। क्योंकि अभिमानीके सब लोग निष्कारण ही शत्रु बनजाते हैं, जिसमें फिर अभिमानी अधिकारीका तो कहना ही क्या है ? कारण उसका सम्बन्ध बहुतोंसे रहता है और जिस जिससे सम्बंध रहता है वे सभी उसके अभिमानसे पीड़ित (दुःखी) रहते हैं। और अवसर देखते रहते हैं कि कब इससे प्रबल पुरुषका. समागम मिलाकर इसका मांनभंग करावें और बंदला, लेवें इत्यादि ।

यहां तक कि कभी कभी बहुतसे मनुष्य अपने अधिकारियोंसे अप्रसन्न हो विपक्ष दलमें मिलकर अपनी २ मनोकामनाएं, सिद्ध करते हैं। विभीषणहीको देखो, कि जब रावणने उसका अपमान किया, तो वह चार अक्षौहिणी सेना सहित आकर रामचन्द्रसे मिल गया और अपने भाईको मरवा डाला । इसीसे यह कहावत चरितार्थ हुई, कि " घरका भेदी लंका दाह !"

फिर भी यह ऐश्वर्य सदा नहीं रहेगा, बल क्षीण होते ही क्षीण हो जायगा, तब जिन्हें तुम तुच्छ समझते थे, ऐश्वर्याभिमानी हुए दूसरोंके सुखं दुःख हानि लाभको नहीं देखते थे, तथा मनमानी आज्ञा चलाते थे सो वे ही मनुष्य तुमको अधिकार-भ्रष्ट देखकर प्रसन्न होवेंगे, तुमसे घृणा करेंगे और भरसक तुम्हारा :अपमान और निंदा करनेमें कसर न करेंगे । देखो, रावणको मरे हजारों वर्ष होगये हैं तब भी प्रातःकाल कोई उसका नामतक नहीं लेता। इसलिये ऐश्वर्याभिमान करना भी वृथा है । कहा है-

"दिन दश आदर पायके, करले आप बखान।
जबलग काक श्राद्ध पक्ष, तवलग तुझ सन्मान ॥"

तात्पर्य- ऐश्वर्य सदा स्थिर नहीं रहता है। वह भी बल और बुद्धि तथा द्रव्यके आश्रित है, इसलिये उसका अभिमान करना भी व्यर्थ है।

यदि कुल ( पितापक्ष ) वा जाति ( मातापक्ष) का अभिमान करते हो तो भी भूल है, क्योंकि कुल व जाति पूर्व कर्मसें प्राप्त हुए हैं । यदि ऐसा मानों तो वर्तमानमें तुम्हारा 'इसमें पुरुषार्थ ही क्या है, जो इनका मान करते हो ! यदि मान करोगे और दूसरोंको तुच्छ गिनोगे, तो नीचगोत्र कर्मका आश्रब करके नीच कुलमें चले जाओगे। तब फिर उच्चपणा कहां रहेगा जैसा कि श्रीमदुमास्वामीने कहा है –

परात्मनिंदाप्रशंसे सद्सद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।

अर्थात्- पराई निंदा और आत्म-प्रशंसा करने तथा अन्यके गुणोंको आच्छादन करने व अवगुणोंको प्रगट करनेसे नीचगोत्र कर्मका आस्रव होता है।

और यदि पुरुषार्थ ( उच्च आचार विचार रखने ) से कुल व जाति उच्च होती है, ऐसा मानते हो, तो फिर हरकोई अपने उच्च आचार विचारों से उच्च बन सकता है। तब मैं ही उच्च हूं ऐसा मान करना व्यर्थ है और एक बात यह भी है कि उच्च कुल जातिधारी महान् पुरुष कभी अपने आपको उच्च उच्च कहकर हलके नहीं बनते हैं । जैसा कहा है: -

"बड़े बड़ाई ना करे, बड़े न बोले बोल।
हीरा मुँहसे ना कहे, बड़ा हमारा मोल॥"

लोकमें स्वप्रशंसा करनेवाला मनुष्य नीचातिनीच समझा जाता है और यह ठीक भी है क्योंकि नीच उच्चपना तो मनुष्योंके आचरण च विचारों से अपने आप ही प्रगट हो जाता है।

मानलो, कोई मनुष्य ब्राह्मण या क्षत्रिय, वैश्यके घरमें उत्पन्न होकर हिंसा करें, झूठ बोले, चोरी करे, व्यभिचार करे, न्यायान्याय रहित हुआ यथातथा भोगादि. पदार्थोके बढ़ानेमें तृष्णावान् रहे, मद्य मांस भक्षण करे, जुआ खेले, इत्यादि और भी कुत्सितं कार्य करे, अथवा ऐसे ही हीनाचारी, व्यसनी, पापी लोगोंका संग करे, तो क्या फिर भी वह उच्च गोत्री रह सकता है ? नहीं कभी नहीं, कभी नहीं। वह नीच, शूद्रोंसे भी महा नीच हो जाता है।

और यदि कोई शूद्र, हिंसादि पाप नहीं करता है, झूठ चोरी व्यभिचार आदि पाप व दुर्व्यसन नहीं सेवन करता है, न्यायानुकूल योग्य आजीविका करके संतुष्ट रहता है, मद्यमांसादि निंद्य अभक्ष्य पदार्थ नहीं खाना है, सदा भले मनुष्योंकी संगतिमें रहता है, तो क्या वह नीच ही कहा जासकता है ? नहीं, कदापि नहीं। संसारमें जीव मात्रको अपनी उन्नति करनेका स्वाभाविक अधिकार प्राप्त है। उच्च नीचपणा किसीकी पैतृक सम्पत्ति नहीं है। जीव स्वकृत कर्मसे उच्च नीच होसकता है, इसलिये उच्च बननेके लिये उच्चाचरण व उच्च विचार बनाना आवश्यक है, किंतु गर्व करना व्यर्थ है।

अब यदि धनका मद करते हो, तो प्रत्यक्ष देखते हुए भी अंधेके समान हो, क्योंकि तुम जानते हो कि यह लक्ष्मी अति चंचल स्वभाव है । पुण्यकी दासी है । इसे पुरुषविशेषसे प्रेम नहीं है । जैसे वेश्या धनवालेसे प्रेम करके जहांतक उसके पास धन रहता है, दिखाऊ प्रीति बताते हुए संपूर्ण धन हरणकर अपने उसी प्रेमीको छोड़ देती है, वैसे ही लक्ष्मी पुण्य क्षीण होनेपर पुरुषको छोड़ जाती है। वह नीच, उच्च, मूर्ख, विद्वान्, कुरूप, सुरूप, सबलं, निर्बल, किसीपर दया नहीं करती, न प्रेम ही रखती है। वह तो केवल पुण्यवानसे ही प्रेम रखती हैं, जैसे कि वेश्या धनवालेसे । देखो ! किसी समय एक पुरुषने अपनी स्त्रीको लक्ष्मी कहके संबोधन किया था, उस पर उस स्त्रीने दुःखित होकर अपने पतिसे निम्न प्रकार प्रश्न किया और जिससे वह पुरुष लज्जित होकर निरुत्तर होगया था। वह पूछती है----

जाऊँ कहूँ न रहूँ घरमें, सहूं दुःखरु सौख्य सबहि कठिनाई ।
नीचन ऊँचनके वह (लक्ष्मी) जात है. आवत जात न नेक लजाई ।
मेरे हू देखत गई कितके घर मैं न दियो पग पौर पराई ।
कारण क्या कुश लेश पिया,जाते मुहि सिन्धुसुता(लक्ष्मी)ठहराई।

तात्पर्य- ऐसी चंचल लक्ष्मीका मान करना व्यर्थ है। यदि अपने तप, व्रत, संयम आदिका मान करते हो, तो तुम्हारे जैसा मूर्ख संसारमें और कोई भी नहीं है, क्योंकि तुम आत्मकल्याणके कारण तपको बढ़ाई पानेकी तुच्छ इच्छासे नष्ट कर देते हो अर्थात् जिस जप, व्रत, तप, संयमसे स्वर्ग मोक्ष प्राप्त होता उसे केवल मान बड़ाईमें ही बेच देते हो और जब निरंतर तुम्हें अपने तप संयमके मानका ही ध्यान बना रहता है तब तुम तप संयम व आत्मध्यान कब करते हो या करोगे ? जब तप ही नहीं करते हो तो केवल कपट भेष बनाकर लोगोंको और अपनी आत्माको ठगते हो। ऐसा तप करना व्यर्थ है, जिसमें मान पुष्ट किया जाय । क्योंकि तप तो इच्छाओं के रोकनेको कहते हैं जैसा कि कहा है-" इच्छानिरोधस्तपः” और तुम तो निरंतर मान पानेकी इच्छामें ही मन रहते हो इसलिये तपका मद करना भी व्यर्थ है । इसप्रकार विचार कर उत्तम पुरुष मान कषायको छोड़कर अपना स्वाभाविक मार्दव गुण प्रगट करते हैं।

इस मार्दव गुणसे आत्मीक-स्वाभाविक सुख तो मिलता ही है, किन्तु लौकिक सुख भी मिलता है। प्रकटमें नम्र-विनयीका कोई शत्रु नहीं, और मानीका कोई मित्र नहीं होता है। देखो, आंधीके झकोरोंसे बड़े बड़े मोटे और कठोर वृक्ष मूल सहित उखड़ जाते हैं परन्तु नम्र होनेसे पतला भी बैंतका वृक्ष आंधीसे. कभी नहीं उखड़ता किन्तु वह अपने विनय गुणसे वैसा ही बना रहता है। कहा है...

कोई न मीत कठोरको, मृदुको कोई न अरात् ।

इसलिये अन्तरङ्ग मान कषायको त्याग करना और व्यवहारसे अपनेसे कुल, वय, पद, विद्या, गुण, चातुर्य, तप, ज्ञान, चारित्र आदिमें जो बड़े हैं उनका यथायोग्य विनय सुश्रूषा ( सत्कार ) करना तथा छोटोंमें दया प्रेम व नम्रता रखना, और अविनयी व विरोधी. पुरुषोंमें माध्यस्थभाव रखना, यही मार्दव गुण है। कभी अपने मुंहसे स्वप्रशंसा नहीं करना और न कभी परनिंदारूप निंद्य वाक्य कहना यही विनयका लक्षण है । अपनेसे बड़ोंको नमस्कार करना, उच्चासन देना, समक्ष होकर नहीं बोलना, उनकी आज्ञा मन, वचन, कायसे यथाशक्ति पालन करना, वे चलें तो उनके पीछे पीछे चलना, उनके गुणोंकी प्रशंसा करना, उनके उत्तम गुणोंका अनुकरण करना, उनके द्वारा अपने ऊपर हुए उपकारको नहीं भूलना, इत्यादि विनय है । प्रसंगवश यह भी लिख देना उचित है कि किसका किसके साथ कैसा व्यवहार होना चाहिये ? यथा-

नमोऽस्तु गुरवे कुर्याद्वंदना ब्रह्मचारिणे ।
इच्छाकारं सधर्मिभ्यो वंदामीत्यार्थिकादिषु॥ १॥

श्राद्धाः परस्परं कुर्युः इच्छाकार स्वभावतः ।
जुहारुरिति लोकेस्मिन्नमस्कारं स्वसज्जनः ॥ २॥

योग्यायोग्यनरं दृष्ट्वा कुर्वीत विनयादिकं ।
विद्यातपोगुणैः श्रेष्ठो लघुश्चापि गुरुर्मतः ॥ ३ ॥

श्रावकानां मुनींद्रो हि धर्मवृद्धिं ददत्यहो ।
अन्येषां प्रकृतानां च धर्मलाभ मतः परं ।। ४ ॥

आर्यिका तद्वदेवात्र पुण्यवृद्धि च वर्णिनः ।
दर्शनविशुद्धि प्रायः क्वचिदेतन्मतान्तरम् ।। ५ ।।

अर्थात्- दिगम्बर निम्रन्थ साधुओंको अष्टांग नमस्कार और आर्यिका तथा ब्रह्मचारीजनोंको दोनों हाथ मस्तकसे लगाकर शिरोनति करता हुआ वंदना करे । तथा साधर्मी, साधर्मी परस्पर इच्छामि (इच्छाकार) करें । श्रावकजन भी परस्पर जुहार करें अथवा अपनेसे बड़ोंको प्रणामादि करें और छोटोंको आशीर्वाद देवें। इस प्रकार यथायोग्य व्यवहार करें। मुनि तथा आर्यिकाजी श्रावकोंको धर्मवृद्धि और अजैन (श्रावकेतर) जनोंको धर्मलाभ कहें । इसी प्रकार ब्रह्मचारी श्रावकोंको पुण्यवृद्धि अथवा दर्शनविशुद्धि और जैनेतर जनोंको पापं क्षयोऽस्तु आदि कहकर आशीर्वाद देवें । यही शिष्टाचार व्यवहार है। इसलिये सब मदोंको छोड़ स्वाभाविक और उभय लौकिक सुख देनेवाले ऐसे उत्तम मार्दव धर्मको धारण करना चाहिये इसीमें हितं है। सो ही कहा है –

मान महा विपरूप, करे नीच गति जगतमें।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ॥१॥

'उत्तममार्दव गुणं मणिमाना,मानं करनका कौनं ठिकाना।
वसो निगोद माहिसे आया, दमरी रूंकन भाग विकाया॥

रूंकन विकाया कर्मवशते, देव इक इन्द्री भया ।
उत्तम मुवा चण्डाल हुवा, भूप कीड़ेमें गया ।।

जीतव्य योवन धन गुमान, कहा करे जल बुदबुदा ।
कर विनय बहुश्रुत बड़े जनकी, ज्ञानको पावे वुधा ॥२॥