।। उत्तम तप ।।

इहपरलोयसुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि समभावो ।
विविहं कायकिलेस तवधम्मो णिम्मलो तस्स ।। ७ ।।

अर्थात्- जो इस लोक और परलोक सन्बन्धी सुखोंकी अपेक्षा न करके शत्रु, मित्र, कांच, कंचन, महल, मसान, सुख, दुःख, निंदा प्रशंसा आदिमें राग, द्वेष, भाव विना किये समभाव रखते हैं और निर्वाछित हुआ अनशनादि बारह प्रकार तपश्चरण करते हैं, उनके उत्तम तप होता है, सो ही आगे बताते हैं (स्वा० का० अ.)

इच्छानिरोधस्तपः।– अर्थात् - इच्छाको रोकना अर्थत् मनको वश करना या उसके विषयों के प्रति इन्द्रियोंको प्रेरकरूप गतिको रोकना सो तप है | उत्तम इसका विशेषण है, इससे विदित होता है कि जो तर यश, कीर्ति, पूजा, प्रख्याति, लाभ तथा और अनेकों लौकिक प्रयोजनोंके साधनार्थ न हो, लोक-दिखाऊ न हो, मारन, मोहन, वशीकरण, उच्चाटनार्थ न हो. यन्त्र, मंत्र, तंत्र, जड़ीबूटी, औषधादिकी सिद्धि करनेके अर्थ न हो, किन्तु अपने सच्चिदानन्दस्वरूप निर्मल आत्माको अनादि कर्मबंधसे छुड़ानेवाला हो, वही उत्तम तप कहा जाता है।

यह तप धर्म आत्माका स्वभाव है, इसलिये ही यह धर्म कहा जाता है । कारण कि आत्मा अमूर्तीक ( रूप, रस, गन्ध और वर्णले रहित ) अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यमयी, अखण्ड एक अवि. नाशी, सच्चिदानन्द स्वरूप, शुद्ध, बुद्ध, अजर, और अजन्मा है । यह स्वभावसे ही रोग, शोक, ग्लानि, स्वेद, खेद, क्षुधा, तृषा, राग, द्वेष, भय, विस्मय, निद्रा, मद, मोह, अरति, रति, वेद, कपाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ, ) आदिसे रहित, अखण्ड, अविनाशी, सदानन्दस्वरूप, एक, स्थिर, चैतन्य पदार्थ है । उपर्युक्त दोष तो इसमें कर्मपुद्गलके सम्बन्धसे उत्पन्न होरहे हैं, क्योंकि यह इस पुद्गलको अपनाकर उसके हानि, लाभ, सुख, दुःखको अपना ही हानि लाभ सुख वा दुःख समझ रहा है। इसीसे यह रागद्वेषादिरूप परिणमन करके नवीन नवीन कर्मबन्ध करता है तथा प्राचीन बांधे हुए कमौके उदयजनित फलमें अरति व रति भाव करता है । इसप्रकार नवीन कर्म बांधना और संक्लेश भावोंसे पूर्वोपार्जित शुभाशुभ कर्मोको भोगकर छोड़ना, यही इसका एक प्रधान कार्य हो गया है।

इस प्रकार कर्मचक्रमें फँसे रहनसे इसे कभी भी अपने निज स्वरूपका ध्यानतक नहीं आता, जिससे पराधीन हुवा, संसारमें परिवर्तन करता और दुःख भोगता रहता है। जीव कर्म करनेमें तो स्वतंत्र है, परन्तु उसके फल भोगनेमें इसे परतंत्र होना पड़ता है। यह भोला जीव मृगमरीचिवत् वास्तविक सुखको न जानकर इन्द्रियों के आकुलतापूर्ण अल्पकालस्थायी पराधीन थोड़ेसे विषयसुखोंको पाकर उनमें मग्न होजाता है और उनके अभावमें अथवा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृपादि बाधाओं और रोगादिकोंके होनेपर व्याकुलित होता है ।

किन्तु जब यही संसारी आत्मा कोई कारण पाकर अपने स्वरूपका विचार कर अनुभव करता है, तो वह इन सब जन्म, मरण, क्षुधा, तृषा, शीतोष्णादि व्याधियोंको कर्मकृत उपाधियोंको मानता हुआ उनसे भिन्न अपने आपको सच्चिदानंद स्वरूप, एक अखण्ड अविनाशी, अनंतदर्शन, ज्ञान, सुख, वीर्यका स्वामी. देखता व जानता है और तब ही सब ओरसे अपने चित्तको रोककर एकाग्र अपने स्वरूपमें लगा देता है। उस समय निजानन्दमें मग्न हुआ यह तेजस्वी आत्मा अनेकों प्रकारकी व्याधियोंके उपस्थित होने या उपसर्गों तथा परीषहोंके आनेपर उनको सहता हुआ, कभी भी अपने ध्यानसे च्युत नहीं होता।

इसप्रकार जब वह निश्चल होकर ध्यान में मंग्न होजाता है, तवं उसे बाह्य शरीरपर होनेवाले उपसर्गोका किंचित् भी ध्यान नहीं रहता है । भले ही लोग उसे गाली देवें, मारन ताड़न करें, घाणीमें पेलें, करवतसे चीरें फाड़ें, सिंह व्याघ्रादि दुष्ट पशु भक्षण करें व विदारे, शीत, उष्ण आदिका तीव्रतम प्रकोप हो अथवा संपूर्ण रोग' एकत्र होकर एकसाथ उदयमें आजावें और असहनीय तीव्र वेदना आजाय तो भी वे अपनेको सुमेरुवत् स्थिर रखते हैं । इसीसे वे राग द्वेषके न होनेके कारण नवीन कर्मोको नहीं बांधते और प्राचीन अनन्त जन्मोंके किये हुए कर्मोको भी बहुत थोड़े समयमें भस्म कर ढ लते हैं।

इस प्रकार संवर पूर्वक निर्जरा करने और पश्चात् सम्पूर्ण कमौके नष्ट होजानेपर अविनाशी अव्याबाध स्वाधीन सुख (मोक्ष) को प्राप्त होते हैं, इसलिये उत्तम तप आत्माका ही स्वरूप कहा जाता है।

उत्तम तपस्वी नग्न (दिगम्बर) मुनि ही होते हैं, जिनका स्वरूप इस प्रकार है-

"विषयाशाक्शातीतो, निरारंभोऽपरिग्रहः ।
ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी सा प्रशस्यते ॥१॥"

अर्थात्- जो साधु विषयोंकी आशा और आरंभ तथा परिग्रहसे रहित होकर निरंतर ज्ञान, ध्यान और तपमें लीन रहते हैं, वे ही तपस्वी प्रशंसनीय हैं।

तपश्चरण यदि विषयोंकी आशासे करना, अर्थात् जंत्र, मंत्र तंत्र.. व औषधादि सिद्धि करनेको या अन्य लौकिक प्रयोजन ख्याति, ! लाभ, पूजादिकी इच्छासे घर छोड़कर वनवास करना और नाना प्रकार कायक्लेश करना केवल आडम्बर मात्र व्यर्थ है क्योंकि इससे उल्टा सक्लेश भावोंके होनसे दुर्गतिका ही बंध होता है।

और विषयोंकी सामग्री, ख्याति, लाभ. पूजादि प्रयोजन तो घरमें रहकर भी किंचित् पुरुषार्थ करनेसे प्राप्त होसकते हैं, तब इसके ‘लिये इतना कष्ट उठ'ना व्यर्थ है। दूसरे विषयोंकी सामग्री व लौकिक ख्याति, लाभ, पूजादिक तो संसारमें अनन्तबार प्राप्त हुए ही हैं। यहांतक कि देवेन्द्र, नरेन्द्र आदिकको अट सम्पत्ति, ऐश्वर्य, रूप बलादिक भी बहुवार प्राप्त हुए हैं सो जब उनसे यह जीव तृप्त नहीं हुआ, तो अब क्वचित् कदाचित् तुझे मनोनुकूल कुछ सिद्धि हो भी गई, तो उससे कितने कालतक तृप्ति रहेगी ? ये वस्तुएं तो फिर भी नाश हो ही जायगी, जैसे पहिले अनन्त वार हो चुकी हैं। उस समय जो तूने उनको प्राप्तिके अर्थ घोर कायक्लेश सहन किया है, उसका चितवन होनेसे तुझे बहुत दुःखी होना पड़ेगा, इसलिये हे भव्य ! किसी भी प्रकारकी आशा व अभिलाषा न करके ही तपश्चरण करना चाहिये।

यदि सावद्य तप किया जाय, जैसा कि प्रायः बहुतसे आत्मज्ञानशून्य अज्ञानी पुरुष पंचाग्नि तपते हैं, कोई भस्म लपेटते हैं, कोई मस्तकपर शिला रखते हैं, कोई नख, केश आदि बढ़ाने हैं, कोई झाड़ आदिसे उलटे लटकते हैं, कोई नाक, कान, आदि फाड लेते हैं, कोई पृथ्वीमें शिर दवा लेते हैं, कोई कंटकासनपर सोते हैं, इत्यादि और भी अनेक प्रकारके अज्ञानी तप तपते हैं, वे सब व्यर्थ केवल संक्लेशता बढ़ानेवाले हैं। भले ही कदाचित् लोकमें इससे उनको कुछ ख्याति लाभ होजाय, परन्तु परमार्थ तो इसमें रंचमात्र, भी नहीं सघता है। क्योंकि उनका चित्त तो निरन्तर स्वार्थ साधनमें ही लगा रहता है, जिससे परमार्थ अर्थात् साध्यकी सुधि ही नहीं होने पाती। इसके सिवाय उनकी ख्याति करनेवाले भक्तजनोंमें तो प्रीति और निंदकोंमें द्वेष बढ़ जाता है तथा हिंसासे भरी हुई आरम्भ जनित सामग्री एकत्र करनेकी चिंता बढ़ती जाती है। जिससे अनंतानंत जीवोंकी हिंसादि अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न होकर तीव्र कर्मबंध होता और अन्तमें उनको दुर्गतिका मार्ग पकड़ना पड़ता है, इसलिये ऐसी सावद्य अन्तरंग और बाह्य हिंसासे भरी हुई तपस्या करना व्यर्थ है । तपस्या निरारम्भ करना ही श्रेयस्कर है।

यदि सपरिग्रह तपश्चरण किया जाय, तो उस तपको तप कहना ही अनुचित है, क्योंकि जहां निरन्तर परिग्रहकी तृप्णा, चाह और उसकी रक्षाकी चिंता लग रही है वहां तप कैसा ? वह तप भी नहीं और तपाभास भी नहीं, किन्तु केवल उपहास मात्र है, कारण परिग्रहके एकत्र करने, और उसकी रक्षा व वृद्धि करनेमें बहुतोंसे के धादि कषायें करना पड़ेंगी, बहुतोंकी सेवा-सुश्रूषा करनी पड़ेगी, बहुतोंकी झूठी सच्ची प्रशंसा करनी पड़ेगी, किसीको भी अवसर पड़नेपर सत्योपदेश न दिया जा सकेगा, सदा भयभीत रहना पड़ेगा इत्यादि अनेक प्रकारकी बाधाएं होंगी और फिर गृहस्थ तथा तपस्वीमें कुछ भी अंतर नहीं रह जायगा, सदा मायाचारी करनी पड़ेगी, दिखानेके लिये अपने दोषोंको ढंकना पड़ेगा, कामादिकी वृद्धि होजायगी । इत्यादि कारणोंसे सपरिग्रह तप नहीं होसकता है, इसलिये परिग्रह रहित ही तप करना चाहिये।

सच्चा तप दो प्रकारका है---अन्तरंग और बाह्य ।

अन्तरंग तप जिनका सम्बंध मात्र आत्माके अन्तरंग भावोंसे है, जैसे प्रायश्चित्त ( अपने दोपोंकी आलोचना, निंदा, गर्दा पूर्वक गुरुके निकट करके उचित. दण्ड लेना), विनय ( अपनेसे ज्ञानाचरण तपादिमें श्रेष्ठ गुरुजनोंकी प्रशंसा आदर करना, स्तुति तथा वन्दना करना ); वैयावृत्य (साधर्मी साधुजनोंकी सेवा करना), स्वाध्याय ( शास्त्राभ्यास करना ), व्युत्सर्ग ( शरीरादि ममत्वका त्याग करना ), 'ध्यान ( चित्तको एकाग्र करके एक ज्ञेयपर लगा देना)।

बाह्य तप वह है जो शरीरके आश्रित है, जैसे अनशन ( स्वाद्य, खाद्य, लेह्य और पेय, इन चार प्रकारके आहारोंका सर्वथा या कुछ दिवस, पक्ष, मासादिका नियम करके त्याग करना), ऊनोदर (भूखसे कम भोजन करना), व्रतपरिसंख्यान (भोजनको जाते समय कठिन और अचिन्त्य प्रतिज्ञा कर लेना ), रसपरित्याग ( रस त्यागकर भोजन करना ), विविक्तशय्यासन (निर्जन्तु प्रासुक भूमिपर अल्प काल एक करवटसे शयन करना ), कायक्लेश ( शरीरको परीषह सहने योग्य बनानेके लिये आतापनादि योग धारण करना।

तपके अभिलाषी जनोंको प्रथम ही ममत्वभाव छोड़ देना चाहिये क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ, तृष्णा, आशा, मद, मत्सर, प्रमाद आदि कषायें, तपस्वीको तपसे भ्रष्ट कर देती हैं। जैसे कि दीपायन आदि कितने ही मुनि क्रोधसे आप भी भस्म हुए और असंख्यात जीवोंका संहार करके कुरातिमें गमन कर गये।

वास्तव में शांति, क्षमा, संतोष, सहनशीलता, दृढ़ता 'यही तपस्वियोंका भूषण है। जैसे-स्वामी सुकुमाल, - बाहुबली, पार्श्वनाथ, देशभूषण, कुलभूपणादि ऋषियोंका तप, दृढ़ता व सहनशीलताके कारण सराहनीय है।

तात्पर्य- जबतक अंतरंग भावोंसे ममत्व दूर न हो, अर्थत् इच्छाओंका अभाव न हो. तबतक बाह्य तप केवल. कायक्लेश मात्र निरर्थक है । इसलिये शुद्धात्मस्वरूपकी प्राप्तिके अर्थ मन, वचन, कायसे इच्छानिरोध रूप लक्षणात्मक उत्तम तप धारण करना ही कर्तव्य है ।

जैसा कि कहते हैं कि यह तप देवोंको भी दुर्लभ है-

तप चाहें सुरराय, कर्म शिखरको वज्र है ।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम ॥

उत्तम तप सब माहि वखाना, कर्म-शैलको वज्र समाना।
बसो अनादि निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ।।
धारा मनुष तन महा दुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्री जैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विषय पयोगता ॥
अति महा दुर्लभ त्याग विषय, कपाय जे तप आदरें ।
नरभव अनूपम कनकधर पर, मणिमई कलशा धरै ॥ ७ ॥