।। उत्तम ब्रह्मचर्य ।।

जो परिहरेदि संगं महिलाणं णेच पस्सदे रूवं ।
कामकहादिणियत्तो णवहा बंभ हवे तस्स ॥१०॥

अर्थात् - जो स्त्रीजनोंका संग, उनके रूपादिका अवलोकन और काम कथा श्रवण तथा पूर्वरतानुस्मरण, मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना करके नहीं करता है उसके उत्तम ब्रह्मचर्य होता. है । सो ही आगे कहते हैं।

(स्वा० का ० अ.)

" ब्रह्मणि चरति इति ब्रह्मचर्यः " अर्थात् ब्रह्म-आत्मामें चा रमण करना, सो ब्रह्मचर्य है। उत्तम विशेषण उसकी निर्दोषताका सूचक है।

यह ब्रह्मचर्य धर्म आत्माका ही स्वभाव है कारण कि जबतक जीव विभाव भावों सहित रहता है, तबतक उसे शुद्धात्मस्वरूपका बोधतक नहीं होता है और वह पुद्गलादि परवस्तुओंमें ही लीन रहता है। इसीलिये जबतक पर पदार्थोके भोगरूप विभाव भावोंका अभाव नहीं होता, तबतक स्वभावको प्राप्त नहीं होता। इसलिये जब यह इन विभाव भावों तथा क्रियाओंसे पृथक् होकर स्वरूपमें मग्न हुआ परमानन्दमयी अवस्थाको प्राप्त होता है सो ही इसकी यथार्थ ब्रह्मचर्यावस्था है। इसलिये ब्रह्मचर्यको कर्म कहा है, क्योंकि वह वस्तुका स्वभाव ही है।

व्यवहारमें ब्रह्मचर्य मैथुनकर्मसे सर्वथा पराङ्मुख होनेको कहते हैं-अर्थात् संसारकी स्त्री मात्रको व पुरुष मात्रको, चाहे वे मनुष्य, पशु, देव आदि गतियोंके सजीव हों या काष्ठ, पाषाण, धातु आदिकी -मूर्ति व चित्रामके हों परन्तु उनको सराग भावसे नहीं देखना अथवा उनमें पत्नी या पतिभाव न करना अथवा उनको माता, बहिन, बेटी, पिता, भाई बैटेकी दृष्टि से देखना सो ब्रह्मचर्य है।

यद्यपि और इन्द्रियोंके विषयोंमें लीन रहना भी अब्रह्मचर्य है कारण विषय.मात्र पौगुलिक विभाव परिणति है । तथापि मुख्यतासे स्पर्श इंद्रियके विषय (मैथुन ) को ही अब्रह्म ग्रहण किया है, उसका कारण यह है कि और इंद्रियोंके विषयसे स्पर्श इंद्रियके विषयकी प्रबलता देखी जाती है। कारण, अन्य इंद्रियोंके विषय इसप्रकार न तो लोकविरुद्ध ही पड़ते हैं कि जिनके सेवन करनेमें जनसाधारणकी दृष्टि बचानेका प्रयत्न किया जाय, न इतने भय वा परिग्रहकी चिंता ही होती है । वे सहज २ थोड़ी मेहनतसे ही प्राप्त हो सकते हैं और सब इन्द्रियोंके विषय स्पर्श इन्द्रियके ही साधनलंप हैं, वे सब इसे उत्तेजन देते हैं। यही कारण है कि ब्रह्मचारी नर-नारियोंको अंजन, मंजन, शृंगार, विलेपन, वस्त्राभूषण, पौष्टिक भोजन, राज, रंग आदि कार्य वर्जित किये गये हैं क्योंकि ये सब कामोत्तेजक हैं। तात्पर्य-कामको जीतना ही ब्रह्मचर्य है क्योंकि यह सर्वसाधारणको सहज २ वश नहीं होता है । यहांतक कि यह तपस्वियोंको तपसे भी भ्रष्टकर देता है।

देखो, ब्रह्माकी लोकप्रसिद्ध कहावत है, कि जब ब्रह्माके तपसे इन्द्रका आसन कांपने लगा, तो उसे भय हुआ कि यह मेरा सिंहासन लेना चाहता है । तब उसने सबसे प्रबल उपाय उसे तपसे भ्रष्ट करनेका यही सोचा कि स्त्रीको भेजना चाहिये, वही मेरा अभीष्ट सिद्धकर सकेगी। क्योंकि कहा है-

स्त्रियश्चरित्रं पुरुषस्य भाग्य, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः १॥"

अर्थात्- स्त्रीका चरित्र और पुरुपके भाग्यको देव भी नहीं जानता है, तो मनुष्यकी क्या बात है ? देखो, स्त्रीके वशीभूत होकर शिवजीनं उसे अपने अर्द्ध अंगमें धारणकर रक्खो है। स्त्रीके वियोगमें रामचन्द्र पागलोंकी तरह वनमें भटकते फिरे हैं । श्रीकृष्ण भगवानने राधिकाको ठगने के लिये नाना प्रकारके स्वांग रचे हैं । भीष्म पितामहको अपने पिताके धीवरी कन्यापर आसक्त होनेके कारण आजन्म ब्रह्मचर्य रखना पड़ा है । महर्षि पाराशरने उसी धीवर कन्याके साथ बलात्कार कर; व्यासजी नामके पुत्रको .कामसे पीड़ित :होकर उत्पन्न किया है. और भी अनेक कथाएं पुराणों में ऐसी हैं कि जो पुरुष प्रबलः शत्रुको मुक्केसे ही मार डाले, जो सिंहको पकड़कर उसके दांत अपने हाथोंसे उपाड़ ले, जो सांपको पांवसे मसल दे, हाथीका कुंभ नखोंसे विदार डाले, और भी अनेक अपौरुषेय चमत्कारी कार्य कर सकें तथा जिसको जीतनेवाला त्रैलोक्यमें और कोई न हो, उसे भी स्त्री वातकी बातमें केवल कटाक्ष मात्रसे वश कर लेती (जीत लेती) है। इसलिये इससे उत्तम और कोई उपाय संसारमें नहीं है, ऐसा स्थिर करके उसने तिलोत्तमा नामकी अप्सरा ब्रह्माको ठगनेके लिये भेजी।

तिलोत्तमाने आते ही अनेक प्रकारके हाव, भाव, विभ्रम, कटा'क्षादिसे पूर्ण संगीत व नृत्य आरम्भ किया। जब ब्रह्माजी ध्यानसे च्युत होकर उस ओर देखने लगे, तो वह पीछे नाचने लगी, ब्रह्माने 'पीछे भी मुंह बनाया । तब वह दांये बांयें नाची, ब्रह्माने दांये वांयें भी मुंह बना लिया अर्थात् चतुर्मुख होकर देखने लगे। तब वह आकाशमें नाचने लगी इसपर ब्रह्माने गर्दभाकार मुंह बनाकर आकाशमें देखना आरम्भ किया, तब वह अप्सरा इन्हें तपसे भ्रष्ट जानकर विलुप्त होगई, और ब्रह्माजी अपने ३५०० वर्षके तपसे भ्रष्ट होगया । ऐसा (जैनेतर मतके ) ब्रह्मादि पुराणोंमें कहा है।

और भी प्रत्यक्ष देख लीजिये । इसमें प्रमाणोंकी आवश्यक्ता नहीं है कारण कि संसारमें विद्या, शास्त्र, कला कौशल्यादिको सिखानेके लिये तो स्कूल, पाठशाला, कालेज आदि संस्थाएं खुली हैं, तो भी लोग इन्हें कठिनतासे पढ़ते हैं अथवा मूर्ख रहकर पशुओंके -समान संसारमें जीवन बिताते हैं-अर्थात् गुण, विद्या तो सिखानेपर भी कठिनतासे आती हैं, परन्तु काम कला विना ही सिखाये विना ही शिक्षाके आपहीसे आ जाती है। यदि अन्य इंद्रियोंकी विषयसामग्री कुछ कालतक न भी मिले, तब भी यह जीव इतना विहल नहीं होता जितना कि कामपीड़ित हो जाता है। वह तो खाना, पीना, सोना सब भूल जाता है। लज्जा भी लज्जित होकर भाग जाती है । वह कभी रोता, कभी नाचता, कभी गाता, कभी हंसता, कभी दीन होजाता, कभी क्रोध करता, अखाद्य खाता और नीच जनोंकी सेवा करता है। कहांतक कहा जाय ? संसारमें जो भी न करने योग्य कार्य हैं सो भी करता है। वह कुलकी मर्यादा, धर्म आदिको जलांजुलि दे देता है, सदा चिंतावान् रहता है, शरीरसे कृश होजाता है, अनेक प्रकार राजदण्ड, पंचदण्ड भी भोगता है, तो भी विषयसे पराङ्मुख नहीं होता है।

तात्पर्य- काम इन्द्रियका विषय अन्य इन्द्रियोंके विषयोंसे अत्यन्त प्रबल है और अन्य इन्द्रियोंके विषय भी इसीमें गर्भित हो जाते हैं । इसीलिये इससे विरक्त होनेको ही ब्रह्मचर्य कहा है। इसलिये सच्चे सुखाभिलाषी जीवोंको सदा उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिये।

यद्यपि यह काम अत्यन्त प्रवल है कि जिसने तीन लोकके जीवोंको वश कर रक्खा है, तो भी यह न समझना चाहिये कि यह दुर्जेय या अजेय ही है । नहीं नहीं, यथार्थमें कायर जीवोंके लिये ही ऐसा है, किन्तु पुरुषार्थी वीरोंपर तो इसका कुछ भी वश नहीं चलता है। देखो, श्री नेमिनाथ भगवानने दीन जीवोंको दुःख देखकर ही सांसारिक विषयोंकों छोड़ दिया था। उन्होंने देवांगना तुल्य सती राजमतीको व्याहते २ छोड़ दिया था और राजमतीने स्वयं भी दीक्षा ग्रहण कर ली थी।

भीष्मपितामह ने अपने पिताके कारण ही आजन्म तक अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन किया था।

अन्तिम केवली श्री अंबूस्वामी अपनी तुरन्तकी व्याही हुई चारों स्त्रियोंको रात्रिमें ही जीतकर तथा अपने अखण्ड ब्रह्मचर्य्यसे च्युत न होकर प्रातःकाल दीक्षा ले गये थे।

श्री ऋषभदेवकी दोनों पुत्रियां-ब्राह्मी और सुन्दरी कुमार अवस्थाहीमें संसारको त्याग कर दीक्षित हुई थी।

इत्यादि और भी अनेक महात्मा जैसे भगवान् श्री पार्श्वनाथ, तथा श्री वर्द्धमान भगवान् आदिने इस कामको उत्पन्न होनेके पहले ही नाश कर दिया है। ऐसे दृढ़ व्रतको उत्तम ब्रह्मचर्य कहते हैं ।

जिनमें इतनी शक्ति नहीं है, वे अपनी पाणिग्रहण की हुई स्त्रीमें ही तथा पुरुषमें ही सन्तोप करते हैं, और प्राण जाते भी कभी अपने संकल्पसे नहीं हठते हैं।

देखो, सेठ सुदर्शनको रानीने कितना फुसलाया, परन्तु उस वीरको कुछ भी विकार नहीं हुआ, जिससे उसके सत्यशीलवतके कारण सूलीका सिंहासन होगया था।

सीताको रावणने कितना भय. दिखाया, परन्तु धन्य वह वीर वाला ! उसके फंदेमें न आई, और अग्निकुण्डमें प्रवेश करके जनसाधारणको अपने सत्यशीलका प्रभाव प्रत्यक्ष दिखा दिया। सुखानंद, मनोरमा, श्येनमंजूषा, द्रौपदी आदि अनेक स्ती नर-नारियों के चरित्र पुराणों में लिखे हुए हैं, जिनसे ब्रह्मचर्यकी अतुल महिमाका पता लग सकता है।

यथार्थमें यही कारण था कि इस भारतभूमि पर पांडवादि जैसे महावली तथा रामचन्द्रजी जैसे न्यायी, श्रेणिक जैसे समाचतुर, अभयकुमार जैसे दयालु, चेलना जैसी विदुषी, अंजनी जैसी पतिपरायणा, बाहुबलि जैसे परमतपस्वी उत्पन्न होकर अपने वल पराक्रमादि अतुल गुण, कला, चातुर्य, न्याय, रूपादिसे संसारको विस्मित करते हुए स्वर्ग-मोक्षको प्रयाण कर जाते थे।

वास्तवमें संसारमें जितनी बुराइयां हैं, वे कामसे उत्पन्न होती हैं और इसके विपरीत सम्पूर्ण प्रकारके सद्गुण ब्रह्मचर्य से प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्मचर्यके प्रभावसे पूर्व समयमें भारत धन, बल, विद्या, कला, चतुराई, सौंदर्य आदिमें सर्वापेक्षा चढ़ा-बढ़ा था । आज इसी पवित्र ब्रह्मचर्यके न रहनसे इस देशपर अनेक प्रकारकी आपत्तियां आने लगी हैं, और यह रोगोंका घर बन गया है।

इसलिये लौकिक तथा पारलौकिक सुखाभिलाषी जीवोंको उत्तम ब्रह्मचर्य धारण करना चाहिये।

जो उत्तम पुरुष हैं, वे कभी ऐसे कुत्सित कार्यमें रक्त नहीं होते हैं। वे सोचते हैं कि यह शरीर जो सुन्दर सुकोमल दीखता है, इसके भीतर अस्थि, मांस, रुधिर, पीव, नशे, मल, मूत्र, शुक्र आदि घृणित पदार्थ मर रहे हैं। ऊपरंसे केवल चमड़ेकी चादर लिपट रही है, जो सब ऐवोंको ढांके हुए है। इसके दूर होते अथवा रोगादिक होते ही इसकी सब पोल खुल जाती है और असली अवस्था प्रगट हो जाती है, तब फिर इसकी ओर दृष्टि उठाकर देखनेको भी जी नहीं चाहता है।

यह दण्डी साधु किसी सुशील स्त्रीपर आसक्त होकर उसके यहां भिक्षाके बहानेसे गया और अपनी कु इच्छा प्रगट की । स्त्री पतिव्रता और चतुर विदुपी थी। उसका पति घर नहीं था, इसलिये उसने सोच समझकर कहा-" महाराज! आज मैं ऋतुवती हूं, आप कल आइये ।" साधु दूसरे दिन आया, यहां उस स्त्रीने जर्राहको बुलाकर अपने शरीरमें कई जगह फस्ते खुलवा लीं और सब लोहू इकट्ठा एक वर्तनमें रख छोड़ा और दूसरे दिन उस असाधुके आते ही वह धीरे धीरे आई । जब साधुने उसे नहीं पहिचाना और कहा-"दासी। तू अपनी मालकिनको बुला ला ।" तब वह स्त्री बोली-“स्वामी महाराज! मैं ही वह स्त्री हूं।" तब भी वह न माना । निदान स्त्रीने वह सब खून लाकर दिखाया और बोली-" महाराज ! आपके जानेके बाद मैंने फस्ते खुलवाई हैं और सब लोहू यह रखा है। कल जो रूप देख आप मोहित हुए थे, वह सब इसी बर्तनमें है, इसलिये इसे ग्रहण कीजिये । साधु यह दशा देखकर लज्जित हुआ, और बोला--" तुम मेरी धर्मकी माता हो, यथार्थमें यह शरीर ऐसा ही घृणित और नाशवान् है। मेरा अपराध क्षमा कीजिये। अबसे मैं फिर कभी इस प्रकार दुष्ट कार्यका चितवन भी न करूँगा । तुमने मुझे आज डूबतेसे बचा लिया । मैं तुम्हारे इस उपकारका चिर कृतज्ञ रहूंगा।" इत्यादि कहते हुए चल दिया ।

'तात्पर्य यह शरीर ही ऐसावृणित वनाशवान् है तो इसके विषयसेवन करने में मुख्य कहां है ? केवल मूर्खजन ही सुख मानते हैं। कहा है-

" नारीजयनग्न्ध्रस्थ,-विमुत्रमयचर्मणा ।
बागह इव विड्भक्षी, हन्त महासुखायते ।।"

इसीलिये यदि दुःखसे छूटना और सच्चा सुख पाना है, तो विपयोंसे रहित अपने स्वरूपका ध्यान करो, यही उत्तम ब्रह्मचर्य है।

वर्तमान ममयमं नो इस ब्रामचर्य व्रतकी कैरी दुर्दशा इस समालने की है जिसके कारण धर्म कर्म सबका मटियामेंट होगया है। एक ओर तो छोटे २ दुधमुंहे बच्चोंका विवाह प्रारम्भ कर दिया और दुसरी ओर बूढ़े बाबाने विवाह करके व्यभिचारका मार्ग खोल दिया । ब्राह्मण लोभी होगये, उन्होंने स्वार्थवश अर्थका अनर्थ कर दिया, खोटी पुस्तकें बना २ का जगतका नाश कर दिया, ज्योतिपकी शीघ्र पुस्तकमें लिख दिया-" अष्टवर्पा भवेद् गौरी, नववर्षा च रोहिणी ।

दशवर्षा मंवत्कन्या ततो ऊर्ध्वं रजस्वला ॥ १ ॥"

इत्यादि लिखकर लिख दिया कि जो दश वर्षसे ऊपर कन्या 'घरमें रखता है, उसको प्रतिमास १ वालक मारनेकी हत्याका पाप लगता है ! बस, लोग गाडरी प्रवाहमें वह गये, और यहांतक इन ब्रमगुरुओंके आज्ञापालक बने कि गर्भके बालकोंकी सगाई और माताका स्तन चूसते हुवे पालनमें झूलते वच्चोंका विवाह (लम ) करके आपको धन्य मानने, और बड़ी उमरमें होनेवाले सम्बन्धोंको 'वृणित समझने लगे । दूसरी ओर इन ब्रह्मगुरुओंने यह सुझाया* अपुत्रस्य गति स्ति" बस, फिर क्या था । एक २ आदमी अनेक अनेक विवाह करने लगे। और " साठे नाठे भी पाठे बन गये " अर्थात् ६१ वर्षके बूढ़े वर वन बनकर बेचारी कन्याओंका भाग्य फोड़ने और उनको विधवा बनाने लगे। उन्होंने इस बातपर पानी डाल दिया कि शुक्रोदयके पश्चात् और शुक्राम्तसे पहिले पहिले ही विवाह सम्बंध तथा स्त्री समागम करना चाहिये । अर्थात् जब पुरुषोंका २० या २५ वर्षके बाद और कन्याओं १६ वर्षके बाद शुक्रोदय (वीर्य परिपक्व ) होजाय तबसे लेकर करीव ४० वर्षकी अवस्था तक शुक्रास्त (वीर्य क्षीण ) होनेसे पूर्वतक ही सम्बंध योन्य होता है इत्यादि । ब्राह्मणोंने भी लोभसे चट इस ( शुक्रोदय और शुक्रास्त) का अर्थ बदलकर शुक्र नामके नक्षत्रका उदय और अस्तका अर्थ बतला दिया कि-कार्तिक माससे शुक्र तारेका उदय होता है और आषाढ़में उसका अस्त होजाता है, इसलिये कार्तिकके वाद आषाढ़ तक ही लग्न करना चाहिये इत्यादि । वस, भोले तथा विषयी जीव ठगाये गये।

इस वातका १ प्रमाण ही वस होगा कि यदि आपाड़के वाद कार्तिक तक लयादि सम्बन्ध अयोग्य होते तो भगवान् श्री नेमिनाथ ( तीर्थकर ) के विवाहका समारम्भ कैसे श्रावणमासमें होता? और कैसे वे तोरणसे स्थ फेरकर श्रावण सुदी ६ को गिरनार गिरिके शेसावनमें दीक्षा लेते ? इत्यादि बातोंसे स्पष्ट है कि ये झूठे पचड़े अर्थका अनर्थ करके इन लोभी ब्राह्मणोंने ज्योतिष आदिका भय बताकर लोगोंके पीछे लगा दिये और खूब द्रव्य ठगने लगे, तथा इन भोले जीवोंका. ब्रह्मचर्य नष्ट कर सत्यानाश कर दिया।

विद्यार्थियोंका तो यह बाल्यविवाह पूर्ण शत्रु बन गया। यह ज्ञान, विवेक, विद्या तथा सदाचारको तो जड़मूलसे उखाड़ फेंकता है। एक कविन कहा है कि-

नत्र तक ही विद्या व्यसन, धीरज अरु गुरुमान ।
जब तकवनिता नयन विप, पैठी नहि हिय आन ॥१॥

उतने हीसे इतिश्री नहीं हुई, परन्तु लोगोंने आगे और भी अनाचाग्में पग फैलाये । उन्होंने वेश्या तथा पर वनिताओं तथा पापुरुष सेवन भी आम्भ कर दिया, जिससे अनाचार तो फैला ही किन्तु बल, वीर्य और सम्पत्तिका भी सर्वनाश होगया, अनेकों रोग संमाग्में फैल गये, मार, काट व ईपभाव बढ़ गया। हजारों मृत्यु केवल इमी पापसे संसारमें होती हैं। यह तो निश्चित ही है कि कोई भी पुरुष अपने संबंध रखनेवाली तथा स्वविवाहित लोकी ओर किसी अन्य पुरुषकी दृष्टि होना मात्र भी नहीं सह सकता है परन्तु खेद तो यह है कि वह उपर्युक्त बात परकी बीके संबंधमें भूल जाता है। इसी पापमे सर्वस्व खोगया और खो जायगा । किसी कविने कहा है-

जाही पाप इन्द्रकी सहस्रभग देह भई,
जाही पाप चन्द्रमें कलंक आय छायो है।
जाही पाप रातिके बगती शिशुपाल भगो,
जाही पाप कीचकको कोच ठहरायो है ।।
जाही पाप रामने हतो थो राय बालीको,
जाही पाप भस्मासुर हाथ दे जरायो है।
जाही पाप रौना (रावण)के न छौनारहो भौना माहि,
सोही पाप लोगन खिलौना कर पायो है ॥

इसलिये इस ब्रह्मचर्यके घातक बाल्यविवाह, बहुविवाह, वृद्धविवाह और पुनर्विवाहको सर्वथा जलांजलि देकर, वेश्या ओर परदाराका भी त्यागकर अच्छा तो यह है कि समस्त त्री मात्रका त्याग करके उत्तम ब्रह्मचर्य धारण करें, और यदि जो कोई ऐसा करनेमें असमर्थ होवें, उनको स्वदारसन्तोषव्रत ही मन, वचन, कायसे पालन करना चाहिये । इसीको कहते हैं-

शील वाढ नव राख, ब्रह्म भाव अन्तर लखो।
कर दोनों अमिलाप, करो सफल नरभव सदा ॥
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानो।
सहे वाण वर्षा बहु सूरे, टिके न नयन बाण लख करे ।।
कूरे त्रियाके अशुचि तनमें काम रोगी रति करें।
बहु मृतक सड़े मशान माहीं काक जिम चोंचे भरै ।।
संसारमें विपवेलि नारी तज गये जोगीश्वरा ।
धानत धरम दश पैंड चढ़के शिवमहलमें पग धरा ।।१।।