जं तं तवोकम्मं णामे।।२५।।
तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो— तं सब्भंतरबाहिरं बारसविहं तं सव्वं तवोकम्मं णाम।।२६।। तं तवोकम्मं बाहिरमब्भंतरेण सह बारसविहं। को तवो णाम ? तिण्णं रयणाण-माविब्भावट्ठमिच्छाणिरोहो। तत्थ चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ अणेसणं णाम तवो। किमेसणं ? असण-पाण-खादिय-सादियं। किमट्ठमेसो कीरदे ? पािंणदियसंजमट्ठं, भुत्तीए उहयासंजमअवि-णाभावदंसणादो। ण च चउव्विहआहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादीहि सह तच्चागस्स अणेसणभावब्भुवगमादो। अत्र श्लोक :— अप्रवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणैः सह। उपवासस्स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ।।६।।
उसके अर्थ का खुलासा करते हैं—
वह तपःकर्म बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से बारह प्रकार का है।
शंका - तप किसे कहते हैं ?
समाधान — तीन रत्नों को प्रकट करने के लिए इच्छानिरोध को तप कहते हैं। उसमें चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषण का ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषण का त्याग करना अनेषण नाम का तप है।
शंका एषण किसे कहते हैं ?
समाधान — अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इनका नाम एषण है।
शंका - यह किसलिए किया जाता है ?
समाधान — यह प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम की सिद्धि के लिए किया जाता है क्योंकि भोजन के साथ दोनों प्रकार के असंयम का अविनाभाव देखा जाता है।
पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकार के आहार का त्याग ही अनेषण कहलाता है क्योंकि रागादिकों के त्याग के साथ ही उन चारों के त्याग को अनेषण रूप से स्वीकार किया है।
इस विषय में एक श्लोक है—
उपवास में प्रवृत्ति नहीं करने वाले जीव को अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उपवास करने वाले को अनेक गुण, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। शरीर के शोषण करने को उपवास नहीं कहते ।।६।।
बारह प्रकार के तपों में पहला अनशन तप है। यहाँ इसका नाम अनेषण दिया है। एषण का अर्थ खोज करना है। साधु बुभुक्षा की बाधा होने पर चार प्रकार के निर्दोष आहार की यथाविधि खोज करता है इसलिए इसका एषण यह नाम सार्थक है। एषणा समिति से भी यही अभिप्राय लिया गया है। अनशन यह नाम अशन नहीं करना, इस अर्थ में चरितार्थ है। इससे अनेषण इस नाम में मौलिक विशेषता है। एषण की इच्छा न होने पर साधु अनशन की प्रतिज्ञा करता है इसलिए अनेषण साधन है और अनशन उसका फल है। भोजनरूप क्रिया की व्यावृत्ति अनशन है और भोजन की इच्छा न होना अनेषण है। यहाँ ‘अन् ‘का अर्थ ‘ईषत्’ भी है। इससे यह अर्थ भी फलित होता है कि जो चार प्रकार के आहार में से एक, दो या तीन प्रकार के आहार का त्याग करते हैं उनके भी अनेषण तप माना जाता है।
अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारो तत्तो ऊणाहार-विसयअभिग्गहो अवमोदरियमिदि भणिदं होदि। तत्थ ताव पयडिपुरिसित्थीणमाहार परूवणाए गाहा—
आधे आहार का नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहारविषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है। उसमें प्रकृतिस्थ पुरुष और स्त्रियों के आहार का कथन करते समय यह गाथा आती है—
बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरणो भणिदो। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे कवला।।७।।
गाथार्थ — उदरपूर्ति के निमित्त पुरुष का बत्तीस ग्रास और महिला का अट्ठाईस ग्रास आहार कहा है।।७।।
किं कवलपमाणं ? सालितंदुलसहस्से ट्ठिदे जं कूरपमाणं तं सव्वमेगो कवलो होदि। एसो पयडिपुरिसस्स कवलो परूविदो। एदेहि बत्तीसकवलेहि पयडिपुरिसस्स आहारो होदि, अट्ठावीसकवलेहि महिलियाए। इमं कवलमेदमाहारं च मोत्तूण जो जस्स पयडिकवलो पयडिआहारो सो च घेत्तव्वो। ण च सव्वेिंस कवलो आहारो वा अवट्ठिदो अत्थि, एगकुडवतंडुलकूरभुंजमाणपुरिसाणं एगगलत्थकूराहारपुरिसाणं च उवलंभादो। एवं कवलस्स वि अणवट्ठाणमुवलब्भदे। तम्हा अप्पप्पणो पयडिआहारादो ऊणाहारग्गहणणियमो ओमोदरिय तवो होदि त्ति सिद्धं। एसो तवो केहि कायव्वो ? पित्तप्पकोवेण उववासअक्खमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवोमा-हप्पेण भव्वजीवुवसमणवावदेिंह वा सगकुक्खिकिमिउप्पत्तिणिरोहकंखुएिंह वा अदिम-त्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणिमित्तेण सज्झायभंगभीरुएिंह वा।
भोयण-भायण-घर-वाड-दादारा वुत्ती णाम। तिस्से वुत्तीए परिसंखाणं गहणं वुत्तिपरिसंखाणं णाम। एदम्मि वुत्तिपरिसंखाणे पडिबद्धो जो अवग्गहो सो वुत्तिप-रिसंखाणं णाम तवो त्ति भणिदं होदि। एसा केहि कायव्वा ? सगतावोविसेसेण भव्व-जणमुवसमेदूण सगरस-रुहिर-मांससोसणदुवारेण इंदियसंजममिच्छंतेहि साहूहि कायव्वा भायण-भोयणादिविसयरागादिपरिहरणचित्तेहि वा।
शंका — एक ग्रास का क्या प्रमाण है ?
समाधान — शाली धान्य के एक हजार चावलों का जो भात बनता है वह सब एक ग्रास होता है। यह प्रकृतिस्थ पुरुष का ग्रास कहा है। ऐसे बत्तीस ग्रासों द्वारा प्रकृतिस्थ पुरुष का आहार होता है और अट्ठाईस ग्रासों द्वारा महिला का आहार होता है। प्रकृत में इस ग्रास और इस आहार का ग्रहण न कर जो जिसका प्राकृतिक ग्रास और प्राकृतिक आहार है वह लेना चाहिए। कारण कि सबका ग्रास और आहार अवस्थित एक समान नहीं होता क्योंकि कितने ही पुरुष एक कुडव प्रमाण चावलों के भात का और कितने ही पुरुष एक गलस्थ प्रमाण चावलों के भात का आहार करते हुए पाए जाते हैं। इसी प्रकार ग्रास भी अनवस्थित पाया जाता है इसलिए अपना-अपना जो प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार के ग्रहण करने का नियम अवमौदर्य तप होता है, यह बात सिद्ध होती है।
शंका — यह तप किन्हें करना चाहिए ?
समाधान — जो पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, जिन्हें आधे आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान आती है, जो अपने तप के माहात्म्य से जीवों को उपशान्त करने में लगे हैं, जो अपने उदर में कृमि की उत्पत्ति का निरोध करना चाहते हैं और जो व्याधिजन्य वेदना के निमित्तभूत अतिमात्रा में भोजन कर लेने से स्वाध्याय के भंग होने का भय करते हैं, उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए। भोजन, भाजन, घर, वाट (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्ति का परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है। इस वृत्तिपरिसंख्यान में प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण-नियंत्रण होता है वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
खीर-गुड-सप्पि-लवण-दधिआदओ सरीिरदियरागादिवुड्ढिणिमित्ता रसा णाम। तेिंस परिच्चाओ रसपरिच्चाओ। किमट्ठमेसो कीरदे ? पािणदियसंजमट्ठं। कुदो ? जििब्भदिए णिरुद्धे सयिंलदियाणं णिरोहुवलंभादो, सयिंलदिएसु णिरुद्धेसु चत्तपरिग्ग-हस्स णिरुद्धराग-दोसस्स तिगुत्तिगुत्तस्स पंचसमिदिमंडियस्स वासी-चंदणसमाणस्स पाणासंजमणिरोहुवलंभादो।
रुक्खमूलब्भोकासादावणजोग-पलियंक-कुक्कुटासण-गोदोहद्धपलियंक-वीरासण-मदय-सयण-मयरमुह-हत्थिसोंडादीहि जं जीव दमणं सो कायकिलेसो। किमट्ठमेसो कीरदे ? सीद-वादादवेहि बहुदोववासेहि तिसा-छुहादिबाहाहि विसंठुलासणेहि य ज्झाण-परिचयट्ठं, अभावियसीदबाधादिउव वासादिबाहस्स मारणंतियअसादेण ओत्थ-अस्स ज्झाणाणुववत्तीदो।
त्थी-पसु-संढयादीहि ज्झाण-ज्झेयविग्घकारणेहि वज्जिय गिरिगुहा-कंदर-पब्भार-सुसाण-सुण्णहरारामुज्जाणाओ पदेसा विवित्तं णाम। तत्थ सयणासणाभिग्गहो विवि-त्तसयणासणं णाम तवो होदि। किमट्ठमेसो कीरदे ? असब्भजणदंसणेण तस्सहवासेणय जणिदतिकालविसयराग-दोसपरिहरणट्ठं।
अत्र श्लोक :—
बाह्यं तपः परमदुश्चरमाचरस्त्व। माध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम्।। ध्यानं निरस्य कलुषद्वयमुत्तरस्मिन्। ध्यानद्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने।।८।।
समाधान — जो पित्त के प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ हैं, जिन्हें आधे आहार की अपेक्षा उपवास करने में अधिक थकान आती है, जो अपने तप के माहात्म्य से जीवों को उपशान्त करने में लगे हैं, जो अपने उदर में कृमि की उत्पत्ति का निरोध करना चाहते हैं और जो व्याधिजन्य वेदना के निमित्तभूत अतिमात्रा में भोजन कर लेने से स्वाध्याय के भंग होने का भय करते हैं, उन्हें यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।
भोजन, भाजन, घर, वाट (मुहल्ला) और दाता, इनकी वृत्ति संज्ञा है। उस वृत्ति का परिसंख्यान अर्थात् ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान है। इस वृत्तिपरिसंख्यान में प्रतिबद्ध जो अवग्रह अर्थात् परिमाण-नियंत्रण होता है वह वृत्तिपरिसंख्यान नाम का तप है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
शंका—यह किनको करना चाहिए ?
समाधान जो अपने तपविशेष के द्वारा भव्यजनों को शान्त करके अपने रस, रुधिर और मांस के शोषण द्वारा इन्द्रियसंयम की इच्छा करते हैं उन साधुओं को करना चाहिए अथवा जो भाजन और भोजनादिविषयक रागादि को दूर करना चाहते हैं उन्हें करना चाहिए।
शरीर और इन्द्रियों में रागादि वृद्धि के निमित्तभूत दूध, गुड़, घी, नमक और दही आदि रस कहलाते हैं। इनका त्याग करना रसपरित्याग तप है।
समाधान — प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम की प्राप्ति के लिए किया जाता है, क्योंकि जिह्वा इन्द्रिय का निरोध हो जाने पर इन्द्रियों का निरोध देखा जाता है और सब इन्द्रियों का निरोध हो जाने पर परिग्रह का त्याग कर राग-द्वेष का निरोध कर चुका है, जो त्रिगुप्तिगुप्त है, जो पाँच समितियों से मण्डित है और वसूला और चन्दन में समान बुद्धि रखता है उसके प्राणों के असंयम का निरोध देखा जाता है।
वृक्ष के मूल में निवास, निरावरण प्रदेश में आकाश के नीचे आतापन योग, पल्यंकासन, कुक्कुटासन, गोदोहासन, अर्धपल्यंकासन, वीरासन, मृतकवत् शयन अर्थात् मृतकासन तथा मकर-मुख और हस्तिशुंडादि आसनों द्वारा जो जीव का दमन किया जाता है, वह कायक्लेश तप है।
शंका—यह किसलिए किया जाता है ?
समाधान — शीत, वात और आतप के द्वारा ; बहुत उपवासों द्वारा ; तृषा, क्षुधा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यान का अभ्यास करने के लिए किया जाता है, क्योंकि जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदि की बाधा का अभ्यास नहीं किया है और जो मारणान्तिक असाता से खिन्न हुआ है उसके ध्यान नहीं बन सकता।
ध्यान और ध्येय में विघ्न के कारणभूत स्त्री, पशु और नपुंसक आदि से रहित गिरि की गुफा, कन्दरा, पब्भार (गिरि-गुफा), श्मशान, शून्य घर, आराम और उद्यान आदि प्रदेश विविक्त कहलाते हैं। वहाँ शयन और आसन का नियम करना विविक्तशयनासन नाम का तप है।
शंका—यह विविक्त शयनासन तप किसलिए किया जाता है ?
समाधान
शंका—यह रस परित्याग तप किसलिए किया जाता है ?
— असभ्यजनों के देखने से और उनके सहवास से उत्पन्न हुए त्रिकालविषयक दोषों को दूर करने के लिए किया जाता है। इस विषय में श्लोक है— (हे कुन्थु जिनेन्द्र ! ) आपने आध्यात्मिक तप को बढ़ाने के लिए अत्यन्त दुश्चर बाह्य तप का आचरण किया और प्रारम्भ के दो मलिन ध्यानों को छोड़कर अतिशय को प्राप्त उत्तर के दो ध्यानों में प्रवृत्ति की।।८।।
प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत्। तच्चित्तग्राहकं कम्र्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्।।९।।
समाधान — यह अपने से पृथग्भूत मिथ्यादृष्टियों के द्वारा भी जाना जाता है इसलिए इसकी ‘बाह्य’ संज्ञा है। अब छह प्रकार के आभ्यन्तर तप के स्वरूप का कथन करते हैं। यथा—संवेग और निर्वेद से युक्त अपराध करने वाला साधु अपने अपराध का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान करता है यह प्रायश्चित्त नाम का तपःकर्म है। इस विषय में श्लोक है— प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मन का है इसलिए उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिए।।९।।
अत्र ग्राहके ग्राह्योपचाराच्चित्तग्राहकस्य कर्मणश्चित्तव्यपदेशः। कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवन्त्यात्मविगर्हणेन। प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि।।१०।। तं च पायच्छित्तमालोचणा-प्पडिक्कमण-उभय-विवेग-विउसग्ग-तव-च्छेद-मूल-परिहार-स्सहद्दहणभेदेण दसविहं। एत्थ गाहा—
यहाँ ग्राहक में ग्राह्य का उपचार करके चित्त-ग्राहक कर्म की ‘चित्त’ संज्ञा दी है। अपनी गर्हा करने से, दोषों का प्रकाशन करने से और उनका संवर करने से किए गए अतिदारुण कर्म कृश हो जाते हैं। अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं।।१०।।
अलोयण-पडिकमणे उभय-विवेगे तहा विउस्सग्गो। तवछेदो मूलं पि य परिहारी चेव सद्दहणा।।११।। आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार, और श्रद्धान; ये प्रायश्चित्त के दस भेद हैं।।११।।
वह प्रायश्चित्त आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार, और श्रद्धान के भेद से दस प्रकार का है। इस विषय में गाथा— आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार, और श्रद्धान; ये प्रायश्चित्त के दस भेद हैं।।११।।
गुरूणमपरिस्सवाणं सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरु व्व थिराणं सगदोस-णिवेयणमालोयणा णाम पायच्छित्तं। गुरूणमालोचणाए विणा ससंवेग-णिव्वेयस्स पुणो ण करेमि त्ति जमवराहादो णियत्तणं पडिक्कमणं णाम पायच्छित्तं। एदं कत्थ होदि ? अप्पावराहे गुरूहि विणा वट्टमाणम्हि होदि। सगावराहं गुरूणमालोचिय गुरुसक्खिया अवराहादो पडिणियत्ती उभयं णाम पायच्छित्तं। एदं कत्थ होदि ? दुस्सुमिणदंसणादिसु। गण-गच्छ-दव्व-खेत्तादीिंहतो ओसारणं विवेगो णाम पायच्छित्तं। एदं कत्थ होदि ? जम्हि संते अणियत्तदोसो सो तम्हि होदि। उववासादीहि सह गच्छादिचागविहाण मेत्थेव णिवददि, उभयसद्दाणुवुत्तीदो। झाणेण सह कायमुज्झिदूण मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मासादिकालमच्छणं विउस्सग्गो णाम पायच्छित्तं। एत्थ वि दुसंजोगादीहि भंगुप्पत्ती वत्तव्वा; उभयसद्दस्स देसामासियत्तादो। सो कस्स होदि ? कयावराहस्स णाणेण दिट्ठणवट्ठस्स वज्जसंघडणस्स सीदवादादवसहस्स ओघसूरस्स साहुस्स होदि। खवणायंबिल-णिव्वियडि-पुरिमंडलेयट्ठाणाणि तवो णाम। एत्थ दुसंजोगा जोजेयव्वा। एदं कस्स होदि ? तिव्विंदियस्स जोव्वणभरत्थस्स बलवंतस्स सत्तसहायस्स कयावराहस्स होदि।
दिवस-पक्ख-मास-उदु-अयण-संवच्छरादिपरियायं छेत्तूण इच्छिदपरियायादो हेट्ठिमभूमीए ठवणं छेदो णाम पायच्छित्तं। एदं कस्स होदि ? उववासादिखमस्स ओघबलस्स ओघसूरस्स गव्वियस्स कयावराहस्स साहुस्स होदि।
सव्वं परियायमवहारिय पुणो दीक्खणं मूल णाम पायच्छित्तं। एदं कस्स होदि ? अवरिमियअवराहस्स पासत्थोसण्ण-कुसील-सच्छंदादिउव्वट्ठट्ठियस्स होदि।
परिहारो दुविहो अणवट्ठओ परंचिओ चेदि। तत्थ अणवट्ठओ जहण्णेण छम्मा-सकालो उक्कस्सेण बारसवासपेरंतो। कायभूमीदो परदो चेव कायविहारो पडिवंदणवि-रहिदो गुरुवदिरित्तासेसजणेसु कयमोणाभिग्गहो खवणायंबिलपुरिमड्ढेयट्ठाणणिव्विय- दीहि सोसिय-रस-रुहिर-मांसो होदि। जो सो पारंचिओ सो एवंविहो चेव होदि, किंतु साधम्मियवज्जियक्खेत्ते समाचरेयव्वो। एत्थ उक्कस्सेण छम्मासक्खवणं पि उवइट्ठं। एदाणि दो वि पायच्छित्ताणि णिंरदविरुद्धाचरिदे आइरियाणं णव-दसपुव्वहराणं होदि।
मिच्छत्तं गंतूण ट्ठियस्स महव्वयाणि घेत्तूण अत्तागम-पयत्थसद्दहणा चेव सद्दहण पायच्छित्तं। णाण-दंसणचरित्त-तवोवयारभेएण विणओ पंचविहो। रत्नत्रयवत्सु नीचै-र्वृत्र्तििवनयः। एदेिंस विणयाणं लक्खणं सुगमं ति ण भण्णदे। एदं विणओ णाम तवोकम्मं।
व्यापदि यत्क्रियते तद्वैयावृत्त्यम् । तं च वेज्जावच्चं दसविहं-आइरिय-उवज्झाय-साहु-तवस्सि-सिक्खुवगिलाण-कुल-गण-संघ-मणुण्णवेज्जावच्चं चेदि। तत्थ कुलं पंचविहं-पंचथूहकुलं गुहावासीकुलं सालमूलकुलं असोगवाडकुलं खंडकेसरकुलं। तिपुरिसओ गणो। तदुवरि गच्छो। आइरियादिगणपेरंताणं महल्लावईए णिवदिदाणं समूहस्स जं बाहावणयणं तं संघवेज्जावच्चं णाम। आइरियेहि सम्मदाणं गिहत्थाणं दिक्खाभिमुहाणं वा जं कीरदे तं मणुण्णवेज्जावच्चं णाम। एवमेदं सव्वं पि वेज्जावच्चं णाम तवोकम्मं।
अंगंगबाहिरआगमवायण-पुच्छणाणुपेहा-परियट्टण-धग्मकहाओ सज्झायो णाम। उत्तमसंहननस्य एकाग्रिंचतानिरोधो ध्यानम् ।
एत्थ गाहा—
जं थिरमज्झवसाणं त झाणं जं चलंतयं चित्तं। तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिता।।१२।।
अपरिस्रव अर्थात् आस्रव से रहित, श्रुत के रहस्य को जानने वाले, वीतराग और रत्नत्रय में मेरु के समान स्थिर ऐसे गुरुओं के सामने अपने दोषों का निवेदन करना आलोचना नाम का प्रायश्चित्त है। गुरुओं के सामने आलोचना किए बिना संवेग और निर्वेद से युक्त साधु का ‘फिर से कभी ऐसा न करूंगा’ यह कहकर अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त है।
समाधान — जब अपराध छोटा सा हो और गुरु समीप न हों, तब यह प्रायश्चित्त होता है। अपने अपराध की गुरु के सामने आलोचना करके गुरु की साक्षीपूर्वक अपराध से निवृत्त होना उभय नाम का प्रायश्चित्त है।
शंका—यह उभय प्रायश्चित्त कहाँ पर होता है ?
समाधान — यह दुःस्वप्न देखने आदि अवसरों पर होता है। गण, गच्छ, द्रव्य और क्षेत्र आदि से अलग करना विवेक नाम का प्रायश्चित्त है।
शंका—यह विवेक प्रायश्चित्त कहाँ पर होता है ?
समाधान — जस दोष के होने पर उसका निराकरण नहीं किया जा सकता, उस दोष के होने पर यह प्रायश्चित्त होता है। उभय शब्द की अनुवृत्ति होने से उपवास आदि के साथ जो गच्छादि के त्याग का विधान किया जाता है उसका अन्तर्भाव इसी विवेक प्रायश्चित्त में हो जाता है। काय का उत्सर्ग करके ध्यानपूर्वक एक मुहूर्त, एक दिन, एक पक्ष और एक महीना आदि काल तक स्थित रहना व्युत्सर्ग नाम का प्रायश्चित्त है। यहाँ पर भी द्विसंयोग आदि की अपेक्षा भंगों की उत्पत्ति कहनी चाहिए क्योंकि उभय शब्द देशामर्शक है।
शंका—यह व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त किसके होता है ?
समाधान — जिसने अपराध किया है किन्तु जो अपने विमल ज्ञान से नौ पदार्थों को समझता है, वङ्का संहनन वाला है; शीतवात और आतप को सहन करने में समर्थ है तथा सामान्य रूप से शूर है ऐसे साधु के होता है। उपवास, आचाम्ल, र्नििवकृति, पुरुमंडल और एकस्थान ये तप प्रायश्चित्त है। यही द्विसंयोगी अंगों की योजना कर लेनी चाहिए।
शंका—यह तप प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ?
समाधान — जसकी इन्द्रियाँ तीव्र हैं, जो जवान है, बलवान् है और सशक्त है, ऐसे अपराधी साधु को दिया जाता है। एक दिन, एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन और एक वर्ष आदि तक की दीक्षा पर्याय का छेद कर इच्छित पर्याय से नीचे की भूमिका में स्थापित करना छेद नाम का प्रायश्चित्त है।
शंका—यह छेद प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ?
समाधान — जसने अपराध किया है तथा जो उपवास आदि करने में समर्थ है, सब प्रकार से बलवान् है, सब प्रकार से शूर है और अभिमानी है, ऐसे साधु को दिया जाता है। समस्त पर्याय का विच्छेद कर पुनः दीक्षा देना मूल नाम का प्रायश्चित्त है।
शंका—यह मूल प्रायश्चित्त किसे दिया जाता है ?
समाधान — अपरिमित अपराध करने वाला जो साधु पाश्र्वस्थ, अवसन्न, कुशील और स्वच्छन्द आदि होकर कुमार्ग में स्थित है, उसे दिया जाता है।
परिहार दो प्रकार का है—अनवस्थाप्य और पारञ्चिक। उनमें से अनवस्थाप्य परिहार प्रायश्चित्त का जघन्य काल छः महीना और उत्कृष्ट काल बारह वर्ष है। वह कायभूमि से दूर रहकर ही विहार करता है, प्रतिवन्दना से रहित होता है, गुरु के सिवाय अन्य सब साधुओं के साथ मौन का नियम रखता है।
पारञ्चिक तप भी इसी प्रकार का होता है किन्तु इसे साधर्मी पुरुषों से रहित क्षेत्र में आचरण करना चाहिए। इसमें उत्कृष्ट रूप से छः मास के उपवास का भी उपदेश दिया गया है। ये दोनों ही प्रकार के प्रायश्चित्त राजा के विरुद्ध आचरण करने पर नौ और दस पूर्वों को धारण करने वाले आचार्य करते हैं।
मिथ्यात्व को प्राप्त होकर स्थित हुए जीव के महाव्रतों को स्वीकार कर आप्त, आगम और पदार्थों का श्रद्धान करने पर श्रद्धान नाम का प्रायश्चित्त होता है।
ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप और उपचार के भेद से विनय पाँच प्रकार का है। रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है। इन विनयों का लक्षण सुगम है, इसलिए यहाँ नहीं कहते हैं। यह विनय नामक तपःकर्म है।
आपत्ति के समय उसके निवारणार्थ जो किया जाय वह वैयावृत्य नाम का तप है। आचार्य, उपाध्याय, साधु, तपस्वी, शैक्ष, उपग्लान, कुल, गण, संघ और मनोज्ञों की वैयावृत्य के भेद से वह वैयावृत्य तप दस प्रकार का है। उनमें कुल पाँच प्रकार का है—पञ्चस्तूप कुल, गुफावासी कुल, शालमूल कुल, अशोकवाट कुल और खण्डकेशर कुल। तीन पुरुषों के समुदाय को गण कहते हैं और इसके आगे गच्छ कहलाता है। महान् आपत्ति में पड़े हुए आचार्य से लेकर गणपर्यंत सर्व साधुओं के समूह की बाधा दूर करना संघवैयावृत्य नाम का तप है। जो आचार्यों द्वारा सम्मत हैं और जो दीक्षाभिमुख गृहस्थ हैं उनकी वैयावृत्य करना वह मनोज्ञवैयावृत्य नाम का तप है। इस प्रकार यह सब वैयावृत्य नाम का तप है। अंग और अंगबाह्य आगम की वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, परिवर्तना और धर्मकथा करना स्वाध्याय नाम का तप है। उत्तम संहनन वाले का एकाग्र होकर चिन्ता का निरोध करना ध्यान नाम का तप है। इस विषय में गाथा— जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना है वह या तो भावना है या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है।।१२।।
तत्थ झाणे चत्तारि अहियारा होंति-ध्याता ध्येयं ध्यानं ध्यानफलमिति। तत्थ उत्तमसंघडणो ओघबलो ओघसूरो चोद्दसपुव्वहरो वा दस-णवपुव्वहरो वा, णाणेण विणा अणवगयणवपयत्थस्स झाणाणुववत्तीदो। जदि णवपयत्थविसयणाणेणेव ज्झाणस्स संभवो होइ तो चोद्दस-दस-णवपुव्वधरे मोत्तूण अण्णेिंस पि ज्झाणं किण्ण संपज्जदे, चोद्दस-दस-णवपुव्वेहि विणा थोवेण वि गंथेण णवपयत्थावगमोवलंभादो? ण, थोवेण गंथेण णिस्सेसमवगंतुं बीजबुद्धिमुणिणो मोत्तूण अण्णेसिमुवायाभावादो। जीवाजीव-पुण्ण-पाव-आसव-संवर-णिज्जरा-बंध-मोक्खेहि णवहि पयत्थेहि वदिरित्तमण्णं ण किं पि अत्थि, अणुवलंभादो। तम्हा ण थोवेण सुदेण एदे अवगंतुं सक्किज्जंते, विरोहादो। ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोविंलगभूदस्स सुदत्त-विरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेसणवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणा-भावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडि-उवसम-सेडीणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस दस-णवपुव्वहरा पुण धम्म-सुक्कज्झाणाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेिंस चेव एत्थ णिद्देसो कदो।
सम्मइट्ठी—ण च णवपयत्थविसयरुइ-पच्चय-सद्धाहि विणा झाणं संभवदि, तप्पवुत्तिकारणसंवेग-णिव्वेयाणं अण्णत्थ असंभवादो। चत्तासेसबज्झंतरंगगंथो-खेत्त-वत्थु-धण-धण्ण-दुवय-चउप्पय-जाण-सयणासण-सिस्स-कुल-गण-संघेहि जणिदमि-च्छत्त-कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-अरइ-सोग-भय-दुगुंछा-त्थी-पुरिस-णवुंसयवे-दादिअंतरंगगंथकंखा परिवेढियस्स सुहज्झाणा-णुववत्तीदो। एत्थ गाहा—
ज्झाणिस्स लक्खणं से अज्जव-लहुअत्त-वुड्ढवुवएसा। उवएसाणासुत्त णिस्सग्गगदाओ रुचियो से।।१३।।
ध्यान के विषय में चार अधिकार हैं—ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यानफल। (१) जो उत्तम संहनन वाला, निसर्ग से बलशाली, निसर्ग से शूर, चौदह पूर्वों को धारण करने वाला या नौ, दस पूर्वों को धारण करने वाला होता है वह ध्याता है; क्योंकि इतना ज्ञान हुए बिना जिसने नौ पदार्थों को भले प्रकार नहीं जाना है उसके ध्यान की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
शंका—यदि नौ पदार्थविषयक ज्ञान से ही ध्यान की प्राप्ति सम्भव है तो चौदह, दस और नौ, पूर्वधारियों के सिवाय अन्य को वह ध्यान क्यों नहीं प्राप्त होता; क्योंकि चौदह, दस और नौ पूर्वों के बिना स्तोक ग्रन्थ से भी नौ पदार्थविषयक ज्ञान देखा जाता है।
समाधान — नहीं, क्योंकि स्तोक ग्रन्थ से बीजबुद्धि मुनि ही पूरा जान सकते हैं, उनके सिवाय दूसरे मुनियों को जानने का अन्य कोई साधन नहीं है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ; इन नौ पदार्थों के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि इनके सिवाय अन्य कोई पदार्थ उपलब्ध नहीं होता इसलिए स्तोक श्रुत से इनका ज्ञान करना शक्य नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है और द्रव्यश्रुत का यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि ज्ञान के उपिंलगभूत पुद्गल के विकारस्वरूप जड़ वस्तु को श्रुत मानने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि स्तोक द्रव्यश्रुत से नौ पदार्थों को पूरी तरह जानकर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियों के ध्यान नहीं मानने से मोक्ष का अभाव प्राप्त होता है तो इस पर यह कहना है कि स्तोक ज्ञान से यदि ध्यान होता है तो वह क्षपकश्रेणी और उपशमश्रेणी के अयोग्य धर्मध्यान ही होता है परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वों के धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानों के स्वामी होते हैं, क्योंकि ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता इसलिए उन्हीं का यहाँ निर्देश किया है।
(२) वह (ध्याता) सम्यग्दृष्टि होता है। कारण कि नौ पदार्थविषयक रुचि, प्रतीति और श्रद्धा बिना ध्यान की प्राप्ति के सम्भव नहीं है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति के मुख्य कारण संवेग और निर्वेद अन्यत्र नहीं हो सकते।
(३) वह (ध्याता) समस्त बहिरंग और अन्तरंग परिग्रह का त्यागी होता है, क्योंकि जो क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, शिष्य, कुल, गण और संघ के कारण उत्पन्न हुए मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद आदि अन्तरंग परिग्रह की कांक्षा से वेष्ठित है उसके शुभ ध्यान नहीं बन सकता। इस विषय में गाथा— जसकी उपदेश, जिनाज्ञा और जिनसूत्र के अनुसार आर्जव, लघुता और वृद्धत्व गुण से युक्त स्वभावगत रुचि होती है वह ध्यान करने वाले का लक्षण है।।१३।।
विवित्तपासुअगिरि-गुहा-कंदर-पब्भार-सुसाण-आरामुज्जाणादिदेसत्थो-अण्णत्थ मणोविक्खेवहेदुवत्थु दंसणेण सुहज्झाणविणासप्पसंगादो। जहासुहत्थो-असुहासणे ट्ठियस्स पीडियंगस्स ज्झाणवाघादसंभवादो। एत्थ गाहा—
जच्चिय देहावत्था जया ण ज्झाणावरोहिणी होइ। ज्झाएज्जो तदवत्थो ट्ठियो णिसण्णो वा।।१४।। अणियदकालो—सव्वकालेसु सुहपरिणामसंभवादो। एत्थ गाहा— सव्वासु वट्टमाणा मुणओ जं देस-काल-चेट्ठासु। वरकेवलादिलाहं पत्ता बहुसो खवियपावा।।१५।। तो जत्थ समाहाणं होज्ज मणो-वयण-कायजोगाणं। भूदोवधायरहिओ सो देसो ज्झायमाणस्स।।१६।।
(४) वह (ध्याता) एकान्त और प्रासुक ऐसे पहाड़, गुफा, कन्दरा, पब्भार (गिरि-गुफा) श्मशान, आराम और उद्यान आदि देश में स्थित होता है, क्योंकि अन्यत्र मन के विक्षेप के हेतुभूत पदार्थ दिखाई देने से शुभ ध्यान के विनाश का प्रसंग आता है।
(५) वह (ध्याता) अपने सुखासन अर्थात् सहजसाध्य आसन से बैठता है, क्योंकि असुखासन से बैठने पर उसके अंग दुखने लगते हैं जिससे ध्यान में व्याघात होना सम्भव रहता है इस विषय में गाथा—
जैसी भी देह की अवस्था जिस समय ध्यान में बाधक नहीं होती उस अवस्था में रहते हुए खड़ा होकर या बैठकर कायोत्सर्गपूर्वक ध्यान करे।।१४।।
(६) उस (ध्याता) के ध्यान करने का कोई नियत काल नहीं होता, क्योंकि सर्वदा शुभ परिणामों का होना सम्भव है। इस विषय में गाथाएँ हैं— सब देश, सब काल और सब अवस्थाओं में विद्यमान मुनि अनेकविध पापों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञान आदि को प्राप्त हुए।।१५।।
मनोयोग, वचनयोग और काययोग का जहाँ समवधान हो और जो प्राणियों के उपघात से (अर्थात् एकाग्रता) रहित हो वही देश ध्यान करने वाले के लिए उचित है।।१६।।
णिच्चं विय-जुवइ-पसू-णवुंसय-कुसीलवज्जियं जइणो। ट्ठाणं वियणं भणियं विसेसदो ज्झाणकालम्मि।।१७।। थिरकयजोगाणं पुण मुणीण झाणेसु णिच्चलमणाणं। गामम्मि जणाइण्णे सुण्णे रण्णे य ण विसेसो।।१८।। कालो वि सो च्चिय जिंह जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ। ण उ दिवसणिसावेलादिणियमणं ज्झाइणो समए।।१९।। तो देसकालचेट्ठाणियमो झाणस्स णत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं।।२०।।
सालंबणो—ण च आलंबणेण विणा ज्झाण-पासायारोहणं संभवइ, आलंबणभूद-णिस्सेणिआदीहि विणा पासादादिमारोहमाणपुरिसाणमणुवलंभादो। एत्थ गाहा—
आलंबणाणि वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुपेहाओ। सामाइयादियाइं सव्वं आवासयाइं च।।२१।।
जो स्थान श्वापद, स्त्री, पशु, नपुंसक और कुशीलजनों से रहित हो और जो निर्जन हो; यतिजनों को विशेष रूप से ध्यान के समय ऐसा ही स्थान उचित माना है।।१७।। परन्तु जिन्होंने अपने योगों को स्थिर कर लिया है और जिसका मन ध्यान में निश्चल है ऐसे मुनियों के लिए मनुष्यों से व्याप्त ग्राम में और शून्य जंगल में कोई अन्तर नहीं है।।१८।। काल भी वही योग्य है जिसमें उत्तम रीति से योग का समाधान प्राप्त होता है। ध्यान करने वाले के लिए दिन, रात्रि और बेला आदि रूप से समय में किसी प्रकार का नियमन नहीं किया जा सकता।।१९।। ध्यान के समय में देश, काल और चेष्टा का भी कोई नियम नहीं है। तत्त्वतः जिस तरह योगों का समाधान हो उस तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए।।२०।। (७) वह (ध्याता) आलम्बनसहित होता है। आलम्बन के बिना ध्यानरूपी प्रासाद पर आरोहण करना सम्भव नहीं है, क्योंकि आलम्बनभूत नसैनी आदि के बिना पुरुषों का प्रासाद आदि पर आरोहण करना नहीं देखा जाता है। इस विषय में गाथा है— वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और सामायिक आदि सब आवश्यक कार्य; ये सब ध्यान के आलम्बन हैं।।२१।।
विसम हि समारोहइ दिढदव्वालंबणो जहा पुरिसो। सुत्तादिकयालंबो तह झाणवरं समारुहइ।।२२।।
सुट्ठु त्तिरयणेसु भावियप्पा। ण च भावणाए विणा ज्झाणं संपज्जइ, एगवा-रेणेव बुद्धीए थिरत्ताणुववत्तीदो। एत्थ गाहा—
पुव्वकयब्भासो भावणाहि ज्झाणस्स जोग्गदमुवेदि। ताओ य णाण-दंसण-चरित्त-वेरग्गजणियाओ।।२३।। णाणे णिच्चब्भासो कुणइ मणोवारणं विसुिंद्ध च। णाणगुण मुणियसारो तो ज्झायइ णिच्चमईओ।।२४।। संकाइसल्लरहियो पसमत्थेयादिगुणगणोवईयो। होइ असंमूढमणो दंसणसुद्धीए ज्झाणम्मि।।२५।। णवकम्माणादाणं पोराणवि णिज्जरा सुहादाणं। चारित्तभावणाए ज्झाणमयत्तेण य समेइ।।२६।।
जिस प्रकार कोई पुरुष नसैनी आदि दृढ़ द्रव्य के आलम्बन से विषम भूमि पर भी आरोहण करता है उसी प्रकार ध्याता भी सूत्र आदि के आलम्बन से उत्तम ध्यान को प्राप्त होता है।।२२।। (८) वह (ध्याता) भले प्रकार रत्नत्रय की भावना करने वाला होता है। भावना के बिना ध्यान की प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि केवल एक बार में ही बुद्धि में स्थिरता नहीं आती। इस विषय में गाथा है— जिसने पहले उत्तम प्रकार से अभ्यास किया है वह पुरुष ही भावनाओं द्वारा ध्यान की योग्यता को प्राप्त होता है और वे भावनाएँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वैराग्य से उत्पन्न होती हैं।।२३।। जिसने ज्ञान का निरन्तर अभ्यास किया है वह पुरुष ही मनोनिग्रह और विशुद्धि को प्राप्त होता है, क्योंकि जिसने ज्ञान गुण के बल से सारभूत वस्तु को जान लिया है वही निश्चलमति हो ध्यान करता है।।२४।। जो शंका आदि शल्यों से रहित है और जो प्रशम तथा स्थैर्य आदि गुणगणों से उपचित है, वही दर्शनविशिुद्धि के बल से ध्यान में असंमूढ मन वाला होता है।।२५।। चारित्र भावना के बल से जो ध्यान में लीन है उसके नूतन कर्मों का ग्रहण नहीं होता, पुराने कर्मों की निर्जरा होती है और शुभ कर्मों का आस्रव होता है।।२६।।
सुविदियजयस्सहावो णिस्संगो णिब्भयो णिरासो य। वेरग्गभावियमणो ज्झाणम्मि सुणिच्चलो होइ।।२७।।
विसएहिंतो दिट्ठिंणिरुंधिऊण ज्झेये णिरुद्धचित्तो। कुदो ? विसएसु पसरंतदिट्ठिस्स थिरत्ताणुववत्तीदो। एत्थ गाहाओ—
िंकचिद्दिट्ठिमुपावत्तइत्तु ज्झेये णिरुद्धदिट्ठीओ। अप्पाणम्मि सिंद संधित्तुं संसारमोक्खट्ठं।।२८।। पच्चाहरित्तु विसएहि इंदियाइं मणं च तेिंहतो। अप्पाणम्मि मणं तं जोगं पणिधाय धारेदि।।२९।। एवं ज्झायंतस्स लक्खणं परूविदं।
संपहि ज्झेयपरूवणं कीरदे—को ज्झाइज्जइ ? जिणो वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणंतपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवललद्धिप्पहुडिअणंतगुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो अजोणिसंभवो अदज्झो अछेज्जो अवत्तो णिरंजणो णिरामओ अणवज्जो सयलकिलेसुम्मुक्को तोसवज्जियो वि सेवयजणकप्परुक्खो, रोस-वज्जिओ वि सगसमयपरम्मुहजीवाणं कयंतोवमो, सिद्धसज्झो जियजेयो संसार-सायरु-त्तिण्णो सुहामियसायरणिबुड्ढासेस करचरणो णिच्चओ णिरायुहभावेण जाणावि-यपडिवक्खाभावो सव्वलक्खणसंपुण्णदप्पणसंकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयल-माणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ।
द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। सिद्धाष्टगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधाः स्मृताः।।३०।।
जिसने जगत् के स्वभाव को जान लिया है, जो निःसंग है, निर्भय है, सब प्रकार की आशाओं से रहित है और वैराग्य की भावना से जिसका मन ओत-प्रोत है वही ध्यान में निश्चल होता है।।२७।। (९) वह (ध्याता) विषयों से दृष्टि को हटाकर ध्येय में चित्त को लगाने वाला होता है, क्योंकि जिसकी दृष्टि विषयों में फैलती है उसके स्थिरता नहीं बन सकती। इस विषय में गाथाएँ— जसकी दृष्टि ध्येय में रुकी हुई है वह बाह्य विषय से अपनी दृष्टि को कुछ क्षण के लिए हटाकर संसार से मुक्त होने के लिए अपनी स्मृति को अपने आत्मा में लगावे।।२८।। इन्द्रियों को विषयों से हटाकर और मन को भी विषयों से दूर कर समाधिपूर्वक उस मन को अपनी आत्मा में लगावे।।२९।। इस प्रकार ध्यान करने वाले का लक्षण कहा। अब ध्येय का कथन कहते हैं—
शंका—ध्यान करने योग्य कौन है ?
समाधान — जो वीतराग है, केवलज्ञान के द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायों से उपचित छः द्रव्यों को जान लिया है, नौ केवल लब्धि आदि अनन्त गुणों के साथ जो आरम्भ हुए दिव्य देह को धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनिसम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य है, अव्यक्त है, निरंजन है, निरामय है, अनवद्य है, समस्त क्लेशों से रहित है, तोष गुण से रहित होकर भी सेवकजनों के लिए कल्पवृक्ष के समान है, रोष से रहित होकर भी आत्मधर्म से पराङ्मुख हुए जीवों के लिए यम के समान है, जिसने साध्य की सिद्धि कर ली है। जो जितजेय है, संसार सागर से उत्तीर्ण है, जिसके हाथ-पैर सुखामृत-सागर में पूरी तरह से डूबे हुए हैं, नित्य है, निरायुध होने से जिसने ‘उसका कोई प्रतिपक्षी नहीं है’ इस बात को जताया है, समस्त लक्षणों से परिपूर्ण है अतएव दर्पण में संक्रान्त हुई मनुष्य की छाया के समान होकर भी समस्त मनुष्यों के प्रभाव से परे है, अव्यक्त है, अक्षय है। सिद्धों के आठ गुण होते हैं। उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार गुण मिलाने पर बारह गुण माने गए हैं।।३०।।
बारसगुणकलियो। एत्थ गाहा—
अकसायमवेदत्तं अकारयत्तं विदेहदा चेव। अचलत्तमलेपत्तं च होंति अच्चंतियाइं से ।।३१।।
सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणासओ जिणउवइट्ठवपयत्था वा ज्झेयं होंति। कधं ते णिग्गुणा कम्मक्खयकारिणो ? ण, तेिंस रागादिणिरोहे णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो। उत्तं च—
इस प्रकार जो बारह गुणों से विभूषित है। इस विषय में गाथा—
अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व; ये सिद्धों के आत्यन्तिक गुण होते हैं।।३१।। जिन जीवों ने अपने स्वरूप में चित्त लगाया है उनके समस्त पापों का नाश करने वाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने योग्य है अथवा जिन द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य हैं।
शंका—जबकि नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं अर्थात् अतिशयरहित होते हैं ऐसी हालत में वे कर्मक्षय के कर्ता कैसे हो सकते हैं ?
समाधान — नहीं, क्योंकि वे रागादिक के निरोध करने में निमित्त कारण हैं इसलिए उन्हें कर्मक्षय का निमित्त मानने में कोई विरोध नहीं आता। कहा भी है—
आलंबणेहि भरियो लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स। जं जं मणसा पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ।।३२।।
बारसअणुपेक्खाओ उवसमसेडि-खवगसेडिचडणविहाणं तेवीसवग्गणाओ पंच-परियट्टाणि ट्ठिदि-अणुभाग-पयडि-पदेसादि सव्वं पि ज्झेयं होदि त्ति दट्ठव्वं। एवं ज्झेयपरूवणा गदा। झाणं दुविहं—धम्मज्झाणं सुक्कज्झाणमिदि। तत्थ धम्मज्झाणं ज्झेयभेदेण चउ-व्विहं होदि-आणाविचओ अपायविचओ विवागविचओ संठाणविचओ चेदि। तत्थ आणा णाम आगमो सिद्धंतो जिणवयणमिदि एयट्ठो। एत्थ गाहाओ—
सुणिउणमणाइणिहणं भूदहिदं भूदभावणमणग्घं। अमिदमजिदं महत्थं महाणुभावं महाविसयं।।३३।।
ज्झाएज्जो णिरवज्जं जिणाणमाणं जगप्पईवाणं। अणिउणजणदुण्णेयं णयभंगपमाणगमगहणं।।३४।।
यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है। ध्यान में मन लगाने वाला क्षपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है वह-वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती है।।३२।।
बारह अनुप्रेक्षाएँ, उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी पर आरोहणविधि, तेईस वर्गणाएँ, पाँच परिवर्तन, स्थिति, अनुभाग, प्रकृति और प्रदेश आदि ये सब ध्यान करने योग्य अर्थात् ध्येय होते हैं ; ऐसा यहाँ जानना चाहिए। इस प्रकार ध्येय का कथन समाप्त हुआ।
ध्यान दो प्रकार का है—धर्मध्यान और शुक्लध्यान। उनमें से धर्मध्यान ध्येय के भेद से चार प्रकार का है—आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। यहाँ पर आज्ञा से आगम, सिद्धान्त और जिनवचन लिए गए हैं क्योंकि ये एकार्थवाची शब्द हैं। इस विषय में गाथाएँ हैं—
जो सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगत् के जीवों का हित करने वाली है, जगत् के जीवों द्वारा सेवित है, अमूल्य है, अमित है, अजित है, महान अर्थ वाली है, महानुभाव है, महान् विषय वाली है, निरवद्य है, अनिपुणजनों के लिए दुज्र्ञेय है और नयभंगों तथा प्रमाणागम से गहन है; ऐसी जग के प्रदीपस्वरूप जिन भगवान् की आज्ञा का ध्यान करना चाहिए।।३३-३४।।
एसा आणा। एदीए-आणाए पच्चक्खाणुमाणादिपमाणाणमगोयरत्थाणं जं ज्झाणं सो आणाविचओ णामज्झाणं। एत्थ गाहाओ—
तत्थ मइदुब्बलेण य तव्विज्जाइरियविरहदो वा वि। णेयगहणत्तणेण य णाणावरणादिएणं च।।३५।।
हेदूदाहरणासंभवे य सरि-सुट्ठुज्जाणबुज्झेज्जो। सव्वणुमयमवितत्थं तहाविहं िंचतए मदिमं।।३६।।
अणुवगयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा। जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण।।३७।।
पंचत्थिकायछज्जीवकाइए कालदव्वमण्णे य। आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि।।३८।।
मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणिदकम्मसमुप्पण्णजाइ-जरा-मरणवेयणाणुसरणं तेिंहतो अवायिंचतणं च अवायविचयं णाम धम्मज्झाणं। एत्थ गाहाओ—
रागद्दोसकसायासवादिकिरियासु वट्टमाणाणं। इहपरलोगावाए ज्झाएज्जो वज्जपरिवज्जी।।३९।।
यह आज्ञा है। इस आज्ञा के बल से प्रत्यक्ष और अनुमान आदि प्रमाणागम के विषयभूत पदार्थों का जो ध्यान किया जाता है वह आज्ञाविचय नाम का ध्यान है। इस विषय में गाथाएँ— मति की दुर्बलता होेने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने से और हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होने से नदी और सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थान में मतिमान् ध्याता ‘सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है’ ऐसा चिन्तवन करे।।३५-३६।।
यतः जग में श्रेष्ठ जिन भगवान् जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवों का भी अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं और उन्होंने राग, द्वेष और मोह पर विजय प्राप्त कर ली है ; इसलिए वे अन्यथावादी नहीं हो सकते।।३७।।
पाँच अस्तिकाय, छः जीवनिकाय, काल द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ हैं उनका यह आज्ञाविचय ध्यान के द्वारा चिन्तवन करता है।।३८।।
मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगों के निमित्त से कर्म उत्पन्न होते हैं और कर्मों के निमित्त से जाति,जरा, मरण और वेदना उत्पन्न होते हैं ; ऐसा चिन्तवन करना और उनसे अपाय का चिन्तन करना अपायविचय नाम का धर्मध्यान है। इस विषय में गाथाएँ हैं—
पाप का त्याग करने वाला साधु राग, द्वेष, कषाय और आस्रव आदि क्रियाओं में विद्यमान जीवों के इहलोक ओर परलोक से अपाय का चिन्तवन करे।।३९।।
कल्लाणपावए जे उवाए विचिणादि-जिणमयमुवेच्च। विचिणादि वा अवाए जीवाणं जे सुहा असुहा।।४०।।
कम्माणं सुहासुहाणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसभेएण चउव्विहाणं विवागाणु-सरणं विवागविचयं णाम तदियधम्मज्झाणं। एत्थ गाहाओ—
पयडिट्ठिदिप्पदेसाणुभागभिण्णं सुहासुहविहत्तं। जोगाणुभागजणियै कम्मविवागं वििंचतेज्जो।।४१।।
एगाणेगभवगयं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं। उदओदीरणसंकमबंधे मोक्खं च विचिणादी।।४२।।
तिण्णं लोगाणं संठाण-पमाणाउयादििंचतणं संठाणविचयं णाम चउत्थं धम्म-ज्झाणं। एत्थ गाहाओ—
जिणदेसियाइ लक्खणसंठाणासणविहाणमाणाइं। उप्पाद-ट्ठिदिभंगादिपज्जया जे य दव्वाणं।।४३।।
अथवा जिनमत को प्राप्त कर कल्याण करने वाले जो उपाय हैं उनका चिन्तवन करता है। अथवा जीवों के जो शुभाशुभ भाव होते हैं उनसे अपाय का चिन्तवन करता है।।४०।।
प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार के शुभाशुभ कर्मों के विपाक का चिन्तवन करना विपाकविचय नाम का तीसरा धर्मध्यान है। इस विषय में गाथाएँ— जो प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग इन चार भागों में विभक्त है, जो शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है तथा जो योग और अनुभाग अर्थात् कषाय से उत्पन्न हुआ है ऐसे कर्म के विपाक का चिन्तवन करे।।४१।।
जीवों को जो एक और अनेक भव में पुण्य और पाप कर्म का फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष का चिन्तवन करता है।।४२।।
तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि का चिन्तवन करना संस्थान- विचय नाम का चौथा धम्र्यध्यान है। इस विषय में गाथाएँ— जिनदेव के द्वारा कहे गए छः द्रव्यों के लक्षण, संस्थान, रहने का स्थान, भेद, प्रमाण तथा उनकी उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि रूप पर्यायों का; पाँच अस्तिकायमय, अनादिनिधन, नामादि अनेक भेदरूप और अधोलोक आदि भाग रूप से तीन प्रकार के लोक का; तथा पृथ्वीवलय, द्वीप, सागर, नगर, विमान, भवन आदि के संस्थान का; एवं आकाश में प्रतिष्ठान, नियत और लोकस्थिति आदि भेद का चिन्तवन करे।।४३-४५।।
पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खादं। णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागादिं।।४४।। खिदिवलयदीवसायरणयरविमाण भवणादिसंठाणं। वोमादिपडिट्ठाणं णिययं लोगट्ठिदिविहाणं।।४५।। उवजोगलक्खणमणाइणिहणमत्थंतरं सरीदादो। जीवमरूिंव कािंर भोइं च सयस्स कम्मस्स।।४६।। तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं। वसणसयसावमीणं मोहावत्तं महाभीमं।।४७।। णाणमयकण्णहारं वरचारित्तमयमहापोयं। संसारसागरमणोरपारमसुहं वििंचतेज्जो।।४८।। किं बहुसो सव्वं चि य जीवादिपयत्थवित्थरो वेयं। सव्वणयसमूहमयं ज्झायज्जो समयसब्भावं।।४९।। ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादििंचतणापरमो। होई सुभावियचित्तो धम्मज्झाणे जिह व पुव्वं।।५०।।
जीव उपयोग लक्षण वाला है, अनादिनिधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है तथा अपने कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। ऐसे उस जीव के कर्म से उत्पन्न हुआ जन्म मरण आदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सैकड़ों व्यसनरूपी छोटे मत्स्य हैं, मोहरूपी आवर्त है और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है और उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ और अनादि अनन्त संसार का चिन्तवन करे।।४६-४८।।
बहुत कहने से क्या लाभ, यह जितना जीवादि पदार्थों का विस्तार कहा है उस सबसे युक्त और सर्व नयसमूहमय समयसद्भाव का ध्यान करे।।४९।।
ऐसा ध्यान करके उसके अन्त में मुनि निरन्तर अनित्य आदि भावनाओं के चिन्तवन में तत्पर होता है। जिससे वह पहले के समान धम्र्यध्यान में सुभावितचित्त होता है।।५०।।
जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्वि-सएण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, दोण्णं पि ज्झाणाणं विसयं पडि भेदाभावादो। जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे। कुदो ? दंसमसय-सीह-वय-वग्घ-तरच्छच्छहल्लेहि खज्जंतो वि वासीए तच्छिज्जंतो वि करवत्तेहि फाडिज्जंतो वि दावाणलसिहामुहेण कवलिज्जंतो वि सीदवादादवेहि बाहिज्जंतो अच्छरसयकोडीहि लालिज्जंतओ वि जिस्से अवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम। एसो वि त्थिर-भावो उभयत्थ सरिसो, अण्णहा ज्झाणभावाणुववत्तीदो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-सच्चं, एदेहि दोहि वि सरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो। किंतु धम्मज्झाणमेयव-त्थुम्हि थोवकालावट्ठाइ। कुदो ? सकसायपरिणामस्स गब्भहरंतट्ठिद-पईवस्सेव चिरकालमवट्ठाणाभावादो। धम्मज्झाणं सकसाएसु चेव होदि त्ति कधं णव्वदे ? असंजदसम्मादिट्ठि-संजदासंजद-पमत्तसंजद-अप्पमत्तसंजद-अपुव्वसंजद-अणियट्ठिसंजद-सुहुमसांपराइयखवगोवसामएसु धम्मज्झाणस्स पवुत्ती होदि त्ति जिणोवएसादो। सुक्कज्झाणस्स पुण एक्कम्हि वत्थुम्हि धम्मज्झाणावट्ठाणकालादो संखेज्जगुणकालमवट्ठाणं होदि, वीयराय-परिणामस्स मणिसिहाए व बहुएण वि कालेण संचालाभावादो। उवसंतकसायज्झाणस्स पुधत्तविदक्कवीयारस्स अंतोमुहुत्तं चेव अवट्ठाणमुवलब्भदि त्ति चे—ण एस दोसो, वीयरायत्ताभावेण तव्विणासुववत्तीदो। अत्थदो अत्थंतरसंचालो उवसंतकसायज्झाणस्स उवलब्भदि त्ति चे—ण, अत्थंतरसंचाले संजादे वि चित्तंतरगमणाभावेण ज्झाणविणासाभावादो। वीयरायत्ते संते वि खीणकसायज्झाणस्स एयत्तवियक्कावीचारस्स विणासो दिस्सदि त्ति चे—ण, आवरणाभावेण असेसदव्वपज्जाएसु उवजुत्तस्स केवलोवजोगस्स एगदव्वम्हि पज्जाए वा अवट्ठाणाभावं दट्ठूण तज्झाणाभावस्स परूवित्तादो। तदो सकसायाकसायसामिभेदेण अचिरकाल-चिरकालावट्ठाणेण ण दोण्णं ज्झाणाणं सिद्धो भेओ। सकसायतिण्णि-गुणट्ठाणकालादो उवसंतकसायकालो संखेज्जगुणहीणो, तदो वीयरायज्झाणावट्ठा-णकालो संखेज्जगुणो त्ति ण घडदे ? ण, एगवत्थुम्हि अवट्ठाणं पडुच्च तदुत्तीए। एत्थ गाहाओ—
अंतोमुहुत्तमेत्तं िंचतावत्थाणमेगवत्थुम्हि। छदुमत्थाणं ज्झाणं जोगणिरोहो जिणाणं तु।।५१।। अंतोमुहुत्तपरदो िंचता-ज्झाणंतरं व होज्जाहि। सुचिरं पि होज्ज बहुवत्थुसंकमे ज्झाणसंताणो।।५२।।
एदम्हि धम्मज्झाणे पीय-पउम-सुक्कलेस्साओ तिण्णि चेव होंति, मंद-मंदयर-मंदतमकसाएसु एदस्स ज्झाणस्स संभवुवलंभादो। एत्थ गाहा—
होंति कमविसुद्धाओ लेस्साओ पीय-पउम-सुक्काओ। धम्मज्झाणोवगयस्स तिव्व-मंदादिभेयाओ।।५३।।
एसो धम्मज्झाणे परिणमदि त्ति कधं णव्वदे ? जिण-साहुगुणपसंसण-विणय-दाण-संपत्तीए। एत्थ गाहाओ—
आगमउवदेसाणा णिसग्गदो जं जिणप्पणीयाणं। भावाणं सद्दहणं धम्मज्झाणस्स तिंल्लगं।।५४।।
शंका—यदि समस्त समयसद्भाव धम्र्यध्यान का ही विषय है तो शुक्लध्यान का कोई विषय शेष नहीं रहता ?
समाधान — यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानों में विषय की अपेक्षा कोई भेद नहीं है।
शंका — यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानों में एकत्व अर्थात् अभेद प्राप्त होता है क्योंकि दंशमशक, िंसह, भेड़िया, व्याघ्र, श्वापद और भल्ल (रीछ) द्वारा भक्षण किया गया भी; वसूला द्वारा छीला गया भी, करोंतों द्वारा फाड़ा गया भी, दावानल के शिखा-मुख द्वारा ग्रसा गया भी; शीत, वात और आतप द्वारा बाधा गया भी; और सैकड़ों करोड़ अप्सराओं द्वारा ललित किया गया भी जो जिस अवस्था में ध्येय से चलायमान नहीं होता वह जीव की अवस्था ध्यान कहलाती है। इस प्रकार का यह स्थिर भाव दोनों ध्यानों में समान है अन्यथा ध्यानरूप परिणाम की उत्पत्ति नहीं हो सकती ?
समाधान — यहाँ इस शंका के समाधान में कहते हैं कि यह बात सत्य है कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपों की अपेक्षा दोनों ही ध्यानों में कोई भेद नहीं है किन्तु इतनी विशेषता है कि धम्र्यध्यान एक वस्तु में स्तोक काल तक रहता है क्योंकि कषायसहित परिणाम का गर्भगृह के भीतर स्थित दीपक के समान चिरकाल तक अवस्थान नहीं बन सकता।
शंका — धम्र्यध्यान कषाय सहित जीवों के ही होता है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान — असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, क्षपक और उपशामक अपूर्वकरणसंयत, क्षपक और उपशामक अनिवृत्तिकरणसंयत तथा क्षपक और उपशामक सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों के धम्र्यध्यान की प्रवृत्ति होती है ; ऐसा जिनदेव का उपदेश है। इससे जाना जाता है कि धम्र्यध्यान कषायसहित जीवों के होता है।
परन्तु शुक्लध्यान के एक पदार्थ में स्थित रहने का काल धर्मध्यान के अवस्थानकाल से संख्यातगुणा है, क्योंकि वीतराग परिणाम मणि की शिखा के समान बहुत काल के द्वारा भी चलायमान नहीं होता।
शंका — उपशान्तकषाय गुणस्थान में पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान का अवस्थान अन्तर्मुहूर्त काल ही पाया जाता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि अर्थान्तर में गमन होने पर भी एक विचार से दूसरे विचार में गमन नहीं होने से ध्यान का विनाश नहीं होता।
शंका — वीतरागता के रहते हुए भी क्षीणकषाय में होने वाले एकत्ववितर्क अवीचार ध्यान का विनाश देखा जाता है ?'
समाधान — नहीं, क्योंकि आवरण का अभाव होने से केवली जिनका उपयोग अशेष द्रव्यपर्यायों में उपयुक्त होने लगता है, इसलिए एक द्रव्य में या एक पर्याय में अवस्थान का अभाव देखकर उस ध्यान का अभाव कहा है। इसलिए सकषाय और अकषाय रूप स्वामी के भेद से तथा अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थित रहने के कारण इन दोनों ध्यानों का भेद सिद्ध है।
शंका — कषायसहित तीन गुणस्थानों के काल से चूंकि उपशान्तकषाय का काल संख्यातगुणा हीन है इसलिए वीतरागध्यान का अवस्थानकाल संख्यातगुणा है ; यह बात नहीं बनती ?
समाधान — नहीं, क्योंकि एक पदार्थ में कितने काल तक अवस्थान होता है, इस बात को देखकर उक्त बात कही है। इस विषय में गाथाएँ—
एक वस्तु में अन्तर्मुहूर्त काल तक चिन्ता का अवस्थान होना छद्मस्थों का ध्यान है और योगनिरोध जिन भगवान् का ध्यान है।।५१।।
अन्तर्मुहूर्त के बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है या चिरकाल तक बहुत पदार्थों का संक्रम होने पर भी एक ही ध्यानसन्तान होती है।।५२।।
इस धर्मध्यान में पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन ही लेश्याएँ होती हैं, क्योंकि कषायों के मन्द, मन्दतर और मन्दतम होने पर धर्मध्यान की प्राप्ति सम्भव है। इस विषय में गाथा—
धर्मध्यान को प्राप्त हुए जीव के तीव्र-मन्द आदि भेदों को लिए हुए क्रम से विशुद्धि को प्राप्त हुई पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती हैं।।५३।।
शंका — यह धर्मध्यान में परिणमता है, यह किस प्रमाण से जाना जाता है ?
समाधान — जिन और साधु के गुणों की प्रशंसा करना, विनय करना और दान सम्पत्ति से जाना जाता है। इस विषय में गाथाएँ हैं—
आगम, उपदेश और जिनाज्ञा के अनुसार निसर्ग से जो जिन भगवान् के द्वारा कहे गए पदार्थों का श्रद्धान होता है वह धर्मध्यान का लिंग है।।५४।।