।। द्वादशतप ।।

द्वादशतप (तत्त्वार्थर्वाितक से)

(तत्त्वार्थर्वाितक से)

आह—उत्तंक़ चारित्रम्, तदन्तर मुद्दिष्टं यत् ‘‘तपसा निर्जरा च’’ (९/३) इति, तस्येदानीं तपसो विधानं कत्र्तव्यमिति; अत्रोच्यते—तद् द्विविधं बाह्यमभ्यन्तरं च, तत्प्रत्येकं षड्विधम्, तत्र बाह्यस्य भेदप्रतिपत्त्यर्थमाह—

अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन
कायक्लेशा बाह्यं तपः।।१९।।

दृष्टफलानपेक्षं संयमप्रसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमनशनव-चनम्।।१।।
यत्किञ्चिद् दृष्टफलं मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते। तत्किमर्थम् ?
संयमप्रसिद्धिरागोच्छेदकर्मविनाशध्यानागमावाप्त्यर्थमवसेयम्।
तद् द्विविधम्—अवधृतानवधृतकालभेदात्।२।

तदनशनं द्वेधा व्यवतिष्ठते। कुतः ?
अवधृताऽनवधृतकालभेदात्। तत्रावधृतकालं सकृद्भोजनं। चतुर्थभक्तादि, अनवधृतकाल-मादेहोपरमात्।
संयमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायसुखसिद्ध्याद्यर्थमवमोदर्यम्।३।

आशितं-भवो य ओदनः तस्य चतुर्भागेनाद्र्धग्रासेन वा अवममूनं उदरमस्यासाववमोदरः,
अवमोदरस्य भावः कर्म वा अवमोदर्यम्। तत्किमर्थम् ? संयमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्याय-सुखसिद्ध्यर्थम्।
एकागारसप्तवेश्मैकरथ्याद्र्धग्रामादिविषयः संकल्पो वृत्तिपरिसंख्यानम्।४।

भिक्षार्थिनो मुनेरेकागारादिविषयः संकल्पश्चिन्तावरोधः वृत्तिपरिसंख्यानमाशानिवृत्त्यर्थमवगन्तव्यम्।
दान्तेन्द्रियत्वतेजोऽहानिसंयमोपरोधव्यावृत्त्याद्यर्थ घृतादिरसत्यजनं रसपरित्यागः।५।

दान्तेन्द्रियत्वं तेजोऽहानिः संयमोपरोधनिवृत्तिरित्येवमाद्यर्थं घृतदधिगुडतैलादिरसत्यजनं रसपरित्याग इत्युच्यते।
रसवत्परित्याग इति चेत्; न; मतोर्लुप्तनिर्दिष्टत्वात्।६।

स्यान्मतम्-रस-शब्दोऽयं गुणवाची, तद्वतश्चात्र परित्याग इष्ट इति तस्माद्रसवत्परित्याग इति निर्देशः कत्र्तव्य इति; तन्न; िंक कारणम् ? मतोर्लुप्तनिर्दिष्टत्वात्। लुप्तनिर्दिष्टोऽत्र मतुः यथा शुक्लः पट इति।
अव्यतिरेकाद्वा तद्वत्संप्रत्ययः।७।

अथवा, न गुणं व्यतिरिच्य गुणी वर्तते, ततः सामथ्र्यात्तद्वन्निर्देशः प्रतिपत्तव्यः। द्रव्यत्यागमुखेन रसपरित्यागो नान्यथेति। सर्वत्यागप्रसङ्ग इति चेत्; न; प्रकर्षगतेः।८।

स्यादेतत्—सर्वमुपभोगार्हं पुद्गलद्रव्यं रसवत्, अतः सर्वत्यागः प्राप्नोतीति; तन्न; िंक कारणम् ?
प्रकर्षगतेः। यथा अभिरूपाय कन्या देयेति अभिरूपतमे संप्रत्ययो भवति तथा सर्वस्य पुद्गलद्रव्यस्य रसवत्त्वात् प्रकृष्टरसत्यागसंप्रत्ययो भवति।
कश्चिदाह—
अनशनावमोदर्यरसपरित्यागानां वृत्तिपरिसंख्यानावरोधात् पृथगनिर्देशः।९।

वृत्तिपरिसंख्यानमिदं सामान्यभिक्षाचरणे नियमकारित्वात्। अतः अनशनावमोदर्यरसपरित्यागानां तेनैवावरुद्धत्वात् पृथङ् निर्देशोऽनर्थकः।
तद्विकल्पनिर्देश इति चेत्; न; अनवस्थनाम्।१०।

अथ मतम्—तस्य वृत्तिपरिसंख्या-नस्य विकल्पा निर्देष्टव्या इति पृथगुपदेशः कर्तव्य इति; तन्न; िंक कारणम् ? अनवस्थानात्।
न वा, कायचेष्टाविषयगणनार्थत्वाद् वृत्तिपरिसंख्यानस्य।११।

न वा एष दोषः; िंक कारणम् ? भिक्षाचरणे प्रवर्तमानः साधुः एतावत्क्षेत्रविषयां कायचेष्टां कुर्वीत कदाचिद्यथाशक्तीति विषयगणनार्थं वृत्तिपरिसंख्यानं क्रियते, अनशनमभ्यवहत्र्तव्यनिवृत्तिः, एवं अवमोदर्यरसपरित्यागौ अभ्यवहर्तव्यैकदेशनिवृत्तिपराविति महान् भेदः।
आबाधात्यब्रह्मचर्यस्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्ध्यर्थं विविक्तशय्यासनम्।१२।

शून्यागारादिषु विवित्तेâषु जन्तुपीडाविरहितेषु संयतस्य शय्यासनं वेदितव्यम्।
तत्किमर्थम् ? आबाधात्ययब्रह्मचर्यस्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्ध्यर्थम्।
कायपरिक्लेशः स्थानमौनातपनादिरनेकधा।१३।

नानाविधप्रतिमास्थानं वाचयमत्वम् आतापनम् वृक्षमूल (वासः) इत्येवमादिना शरीरपरिखेदः कायक्लेशः इत्युच्यते। स किमर्थः ?
देहदुःखतितिक्षासुखानभिष्वङ्गप्रवचनप्रभावनार्थम्।१४।

दुःखोपनिपाते सति तितिक्षार्थं विषयसुखे चानभिष्वङ्गार्थं प्रवचनप्रभावनाद्यर्थ च कायक्लेशानुष्ठानं क्रियते। इतरथा हि ध्यानप्रवेशकाले सुखोचितस्य द्वन्द्वोपनिपाते सति समाधानं न स्यात्।
परीषहजातीयत्वात् पौनरुक्त्यमिति चेत्; न; स्वकृतक्लेशापेक्षत्वात्।१५।

स्यान्मतम्—अयं कायक्लेशः स्थानमौनादिः परीषहजातीयस्ततः पुनरुपदेशः पौनरुक्त्यं जनयतीति; तत्र; किं कारणम् ?
स्वकृतकायक्लेशापेक्षत्वात्। बुद्धिपूर्वो हि कायक्लेश इत्युच्यते, यदृच्यते, यदृच्छयोपनिपाते परीषहः। दृष्टफलानपेक्षमित्येतत् सर्वत्रानुवत्र्तते। तत्तर्हि कर्तव्यम्—
सम्यगित्यनुवृत्तेर्दृष्टफलनिवृत्तिः।१६।

‘‘सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः’’(९।३।) इत्यतः सम्यग्ग्रहणमनुवत्र्तते, तेन दृष्टफलनिवृत्तिः कृता भवति सर्वत्र। बाह्यत्वमस्य कृतः ?
ब्राह्यद्रव्यापेक्षत्वाद्बाह्यत्वम्।१७।

बाह्यमशनादिद्रव्यमपेक्ष्य क्रियत इति बाह्यत्वमस्य ग्राह्यम्।
परप्रत्यक्षत्वात्।१८।

परेषां खल्वप्यनशनादि प्रत्यक्षं भवति, ततश्चास्य बाह्यत्वम्।
तीथ्र्यगृहस्थकार्यत्वाच्च।१९।

अनशनादिहितीथ्र्यैर्गृहस्थैश्च क्रियते ततोऽप्यस्य बाह्यत्वम्। कथं तह्र्येतदनशनादि तप इत्युच्यते ?
कर्मनिर्दहनात्तपः।२०।

यथाऽग्निः सञ्चितं तृणादि दहति तथा कर्म मिथ्यादर्शना-द्र्यिजतं निर्दहतीति तप इति निरुच्यते।
देहेन्द्रियतापाद्वा।२१।

अथवा, देहस्येन्द्रियाणां च तापं करोतीत्यनशनादि (अतः) तप इत्युच्यते। तत्तापादिन्द्रियनिग्रहः सुकरो भवति।
उक्तं बाह्य तपः, अथाभ्यन्तरस्य के भेदा इति ? अत्रोच्यते—
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।२०।।

कुतः पुनरुत्तरत्वम् ?
अन्यतीथ्र्यानभ्यस्तत्वादुत्तरत्वम्।। यतोऽन्यैस्तीथ्र्यैरनभ्यस्तमनालीढं ततोऽस्यो-त्तरत्वम्, अभ्यन्तरमिति यावत्।
अन्तःकरणव्यापारात्।। प्रायश्चित्तादितपः अन्तःकरणव्यापारालम्बनं ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम्।
बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वाच्च।। न हि बाह्यद्रव्यमपेक्ष्य वर्तते प्रायश्चित्तादि, ततश्चास्याभ्यन्तरत्व-मवसेयम्।

चारित्र का वर्णन तो कर दिया, अब चारित्र के अनन्तर जो ‘तपसा निर्जरा च’ अर्थात् तप से भी संवर होता है और तप से निर्जरा भी होती है अतः अब उस तप का विधान करना योग्य है। उसी का वर्णन करते हैं—वह तप अन्तरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार का है। प्रत्येक के छह-छह भेद हैं। उनमें बाह्य तप के छह भेदों का वर्णन करते हैं— अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश, ये छह बहिरंग तप हैं।।१९।।

लौकिक सुख, मंत्रसाधनादि दृष्टफल की अपेक्षा बिना संयम की सिद्धि, इन्द्रिय विषय सम्बन्धी राग के उच्छेद, कर्मों के विनाश, ध्यान की सिद्धि और आगम ज्ञान की प्राप्ति के लिए चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास (अनशन) कहलाता है।।१।।

अवधृतकाल (नियतकालिक) और अनवधृतकाल के भेद से अनशन दो प्रकार का है। दिन में एक बार भोजन करना, चतुर्थभक्त (एक उपवास का नाम चतुर्थभक्त है, क्योंकि इसमें एक भुक्ति पहले दिन की, दो उपवास के दिन की और एक पारणा के दिन की; इस प्रकार चार भुक्ति का त्याग होता है। एक दिन में दो भुक्ति होती है, इसी प्रकार दो उपवास को षष्ठभक्त, तेला को अष्टभक्त आदि कहते हैं।) आदि नियतकालिक वा अवधृतकालिक उपवास है, क्योंकि इसमें काल की मर्यादा है। यावज्जीवन (शरीरत्याग पर्यन्त) अन्न-पानी का त्याग करना अनवधृतकालिक अनशन है।।२।।

संयम को जागृत करने के लिए, दोषों को शांत करने के लिए, सन्तोष, स्वाध्याय एवं सुख की सिद्धि के लिए अवमौदर्य होता है। तृप्ति के लिए पर्याप्त भोजन में से चतुर्थांश या दो-चार ग्रास कम खाना अवमोदर है और अवमोदर का भाव या कर्म अवमौदर्य कहलाता है।

प्रश्न—अवमौदर्य किसलिए किया जाता है ?

उत्तर — संयम की जागरुकता, दोषप्रशम, संतोष, स्वाध्याय और सुख की सिद्धि आदि के लिए अवमौदर्य तप किया जाता है अर्थात् अवमौदर्य तप से स्वाध्याय आदि की वृद्धि होती है।।३।।

एक घर, सात घर, एक गली (एक मोहल्ला), अद्र्धग्राम आदि के विषय का संकल्प करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। आशा-तृष्णा की निवृत्ति के लिए भिक्षा को जाते समय साधु का एक, दो, तीन, सात आदि घर-गली, ग्राम, दाता, भोज्यपदार्थ आदि का नियम कर लेना वृत्तिपरिसंख्यान तप है।।४।।

जितेन्द्रियत्व, तेजोवृद्धि, संयम में बाधा की निवृत्ति आदि के लिए घी, दूध, दही, गुड़, नमक, तेल आदि रसों का परित्याग करना रसपरित्याग तप कहलाता है।।५।।

प्रश्न—यह रस शब्द गुणवाची है अतः रस का त्याग नहीं, रस वाले का त्याग कहना चाहिए। रसपरित्याग न कह करके रसवत्परित्याग कहना चाहिए ?

उत्तर — रस शब्द गुणवाची है अतः गुणत्याग न होकर गुण वाली वस्तु का ही त्याग होता है परन्तु जैसे ‘शुक्लवान् पटः’ न कहकर ‘शुक्लः पटः’ कहा जाता है, ‘मतु’ ‘वान्प्रत्यय का लोप किया है, उसी प्रकार ‘मतु’ प्रत्यय का लोप समझना चाहिए।।६।।

अथवा, अव्यतिरेक होने से तद्वान् का बोध हो जाता है। गुण को छोड़कर गुणी पृथव् नहीं रहता है अतः गुणी के कथन के सामथ्र्य से गुणवान् का बोध ही हो जाता है क्योंकि द्रव्य के त्याग से ही गुण रूप रस का परित्याग होता है, गुणवान् द्रव्य का त्याग किए बिना रसादि गुणों के त्याग की असंभवता है।।७।।

प्रश्न—रसत्याग कहने से उपभोग के योग्य सर्व वस्तुओं का त्याग हो जाता है क्योंकि सर्व पुद्गल रूप-रस वाले हैं ?

उत्तर — यद्यपि सब पुद्गल रस वाले हैं पर यहाँ प्रकर्ष रस वाले द्रव्य की विवक्षा है, जैसे कि ‘अधिक रूप वाले को कन्या देनी चाहिए’ यहाँ सुन्दर या विशिष्ट रूपवान् की विवक्षा है, उसी प्रकार सब पुद्गल रस वाले होने पर रसपरित्याग में प्रकृष्ट रस करने की विवक्षा है अतः प्रकृष्ट रसत्याग का बोध होता है।।८।।

प्रश्न—अनशन, अवमौदर्य और रसपरित्याग रूप तपों का वृत्तिपरिसंख्यान नामक तप से अन्तर्भाव हो जाता है क्योंकि सामान्य भिक्षा के आचरण में नियमकारी (प्रतिबन्ध लगाने वाला) वृत्तिपरिसंख्यान तप है अतः अनशन, अवमौदर्य और रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान तप से व्याप्त होने से इनका पृथक कथन करना निरर्थक है ?।।९।। अथवा, वृत्तिपरिसंख्यान के भेद मानकर अनशन आदि का पृथव् निर्देश करना भी उचित नहीं है क्योंकि अनशन, अवमौदर्य और रसपरित्याग को वृत्तिपरिसंख्यान के विकल्प मानने पर तो गिनती की कोई व्यवस्था ही नहीं रहेगी ? ।।१०।।

उत्तर — ऐसा नहीं है, क्योंकि कायचेष्टा के विषयों की गणना के लिए वृत्तिपरिसंख्यान का वर्णन है। भिक्षा करने में प्रवत्र्तमान साधु इतने क्षेत्र (घर) विषयक कायचेष्टा करता है अर्थात् कभी घर आदि का नियम करता है, कभी यथाशक्ति पंचेन्द्रियों के विषयों का दमन करने के लिए वृत्तिपरिसंख्यान किया जाता है वह करता है। इस प्रकार वृत्तिपरिसंख्यान तप में कायचेष्टा आदि का नियमन (निरोध) होता है परन्तु अनशन में (उपवास में) भोजन मात्र की निवृत्ति है, अवमौदर्य और रसपरित्याग में भोजन की आंशिक निवृत्ति है, आहार का एकदेशत्याग किया जाता है; अतः तीनों में महान् भेद है।।११।। जन्तुबाधा का परिहार, ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान आदि की सिद्धि के लिए निर्जन्तु शून्यागार, गिरिगुफा आदि एकान्त स्थानों में शय्या (सोना), आसन (बैठना) विविक्तशय्यासन है। विविक्त (एकान्त) में सोने -बैठने से ब्रह्मचर्य व्रत का पालन होता है, ध्यान और स्वाध्याय की वृद्धि होती है और गमनागमन का अभाव होने से जीवों की रक्षा होती है।।१२।। अनेक प्रकार के प्रतिमायोग (प्रतिमा के समान अचल, स्थिर रहना) धारण करना, मौन रखना, आतापन (ग्रीष्मकाल में सूर्य के सम्मुख खड़े रहना), वृक्षमूल (चातुर्मास में वृक्ष के नीचे चार महीना निश्चल बैठे रहना), सर्दी में नदीतट पर ध्यान करना आदि क्रियाओं से शरीर को कष्ट देना कायक्लेश तप है।

प्रश्न—यह कायक्लेश तप क्यों किया जाता है ?।।१३।।

उत्तर — देह को कष्ट देने की इच्छा, विषयसुख की अनासक्ति और प्रवचन (जिनधर्म) की प्रभावना के लिए कायक्लेश तप किया जाता है। कायक्लेश तप करने से अकस्मात् शारीरिक कष्ट आने पर सहनशीलता बनी रहती है, विषयसुखों में आसक्ति नहीं होती है तथा धर्म की प्रभावना होती है अतः कायक्लेश तप करना चाहिए। यदि कायक्लेश तप का अनुष्ठान नहीं किया जाता है तो ध्यानादि के समय में सुखशील व्यक्ति को द्वन्द्व (दुःख, आपत्ति) आने पर चित्त का समाधान नहीं हो सकेगा यानी चित्त स्थिर नहीं रहेगा।।१४।।

प्रश्न—वृक्षमूल में स्थान, मौनधारण आदि रूप कायक्लेश तप परीषह की जाति का है अतः कायक्लेश तप का कथन पुनरुक्त दोष उत्पन्न करता है ?

उत्तर — कायक्लेश तप परीषहजातीय नहीं है; क्योंकि परीषह जब चाहे तब आते हैं और कायक्लेश बुद्धिपूर्वक किया जाता है या कायक्लेश में स्वकृत अपेक्षा है अतः बुद्धिपूर्वक कायक्लेश होता है, चाहे जब आने वाले परीषह होते हैं; यह कायक्लेश और परीषह में भेद है। दृष्टफलानपेक्ष की अनुवृत्ति सब तपो में करनी चाहिए अर्थात् सभी तपों में इहलौकिक फल की कामना नहीं होनी चाहिए।।१५।। ‘सम्यग्योगनिग्रहोगुप्ति’ इस सूत्र में जो ‘सम्यग्’ पद है उसका अनुवत्र्तन सब तपों में है अतः सम्यक पद की अनुवृत्ति आने से दृष्टफलनिरपेक्षता का होना तपों में अनिवार्य है अथवा सर्व तपों में दृष्टफल की निवृत्ति हो जाती है।

शंका — इन तपों में बाह्यपना कैसे है ? अर्थात् ये तप बाह्य क्यों कहलाते हैं ?।।१६।।

समाधान — बाह्य द्रव्य की अपेक्षा होने से ये बाह्य कहलाते हैं अर्थात् ये अनशन आदि तप बाह्य द्रव्यों की (आहारत्याग, स्वल्पाहार, घरों की संख्या नियत करना, रस छोड़ना आदि) अपेक्षा करके किए जाते हैं इसलिए इन्हें बाह्य तप कहते हैं। और भी—।।१७।।। ये तप दूसरों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञेय हैं तथा इन तपों को मुनीश्वर भी करते हैं और गृहस्थ भी, सम्यग्दृष्टि भी और मिथ्यादृष्टि भी, इसलिए भी इन्हें बाह्य तप कहते हैं।

प्रश्न—इन अनशनादि को तप क्यों कहते हैं ?।।१८-१९।।

उत्तर — कर्मों को जलाते हैं, भस्म करते हैं इसलिए इनको तप कहते हैं। जैसे—अग्नि सञ्चित तृणादि र्इंधन को भस्म कर देती है, जला देती है उसी प्रकार ये तप मिथ्यादर्शन, अविरति, कषाय आदि के द्वारा अर्जित कर्म रूप र्इंधन को भस्म कर देते हैं, जला देते हैं, नष्ट कर देते हैं इसलिए इनको तप कहते हैं।।२०।। अथवा, इन्द्रिय और शरीर को ताप देते हैं, इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति का निरोध करके अनशनादि तप शरीर और इन्द्रियों को तपा देते हैं इसलिए अनशनादि को तप कहते हैं। इन अनशनादि बाह्य तपों के द्वारा इन्द्रियों का निग्रह सहज हो जाता है।।२१।। इस प्रकार बाह्य तपों का वर्णन करके अब अन्तरंग तप और उसके भेद कहते हैं— प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये उत्तर यानी अन्तरंग तप हैं।।२०।।

प्रश्न—इन तपों को उत्तर (अन्तरंग) क्यों कहते हैं ?

उत्तर — ये प्रायश्चित्त आदि अन्य मतावलम्बियों के द्वारा अनभ्यस्त हैं, उनसे नहीं किए जाते हैं, उन मिथ्यादृष्टियों के द्वारा अप्राप्य हैं, अतः इनको उत्तर और अभ्यन्तर तप कहते हैं।।१।। ये प्रायश्चित्तादि तप अन्तःकरण के व्यापार का अवलम्बन लेकर होते हैं इसलिए इनके अभ्यन्तरत्व है।।२।।

अथवा, ये प्रायश्चित्तादि तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं रखते हैं इसलिए अभ्यन्तर कहलाते हैं, कर्मों की निर्जरा करने के लिए इन अभ्यन्तर तपों को करना चाहिए।।३।।