(मूलाचार ग्रन्थ से)
दुविहा य तवाचारो बाहिर अब्भंतरो मुणेयव्वो। एक्कक्को विय छद्धा जधाकमं तं परूवेमो।।३४५।।
द्विप्रकारस्तप आचारस्तपोऽनुष्ठानं। बाह्यो बाह्यजनप्रकटः। अभ्यन्तरोऽभ्यन्तर-जनप्रकटः। एकैकोऽपि च बाह्याभ्यन्तरश्चैकैकः षोढा षड्प्रकारः यथाक्रमं क्रममनुल्लंघ्य प्ररूपयामि कथयिष्यामीति।।३४५।। बाह्यं षड्भेदं नामोद्देशेन निरूपयन्नाह ।।
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा। कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठं।।३४६।।
अनशनं चतुर्विधाहारपरित्यागः। अवमौदर्यमतृप्तिभोजनं। रसानां परित्यागो रसपरित्यागः स्वाभिलषितस्निग्धमधुराम्लकटुकादिरसपरिहारः। वृत्तेः परिसंख्या वृत्तिपरिसंख्या गृहदायकभाजनौदनकालादीनां परिसंख्यानपूर्वको ग्रहः। कायस्य शरीरस्य परितापः कर्मक्षयाय बुद्धिपूर्वक शोषणं आतापनाभ्रावकाशवृक्षमूलादिभिः। विविक्तशयनासनं स्त्रीपशुषण्ढकविवर्जितं स्थानसेवनं षष्ठमिति।।३४६।।
अब तप आचार को कहते हैं -
गाथार्थ - बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप आचार दो प्रकार का जानना चाहिए। उसमें एक-एक भी छः प्रकार का है। उनको मैं क्रम से कहूँगा।।३४५।।
आचारवृत्ति - तप के अनुष्ठान का नाम तप-आचार है। उसके दो भेद हैं—बाह्य और आभ्यन्तर। जो बाह्य जनों में प्रकट है वह बाह्य तप है और जो आभ्यन्तर जनों—अपने धार्मिकजनों में प्रकट है उसे आभ्यन्तर तप कहते हैं। ये बाह्य-आभ्यन्तर दोनों ही तप छः-छः प्रकार के हैं। मैं इन सभी का क्रम से वर्णन करूँगा। बाह्य तप के छहों भेदों के नाम और उद्देश्य का निरूपण करते हैं -
गाथार्थ - अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शयनासन ये छः बाह्य तप हैं।।३४६।।
आचारवृत्ति - चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है। अतृप्ति भोजन अर्थात् पेट भर भोजन न करना अवमौदर्य है। रसों का परित्याग करना—अपने लिए इष्ट स्निग्ध, मधुर, अम्ल, कटुक आदि रसों का परिहार करना रसपरित्याग है। वृत्ति — आहार की चर्या में परिसंख्या—गणना अर्थात् नियम करना। गृह का, दातार
अनशनस्य भेदं स्वरूपं च प्रतिपादयन्नाह—
इत्तिरियं जावजीवं दुविहं पुण अणसणं मुणेयव्वं। इत्तिरियं साकंखं णिरावकंखं हवे बिदियं।।३४७।।
अनशनं पुनरित्तिरिययावज्जीवभेदाभ्यां द्विविधं ज्ञातव्यं इत्तिरियं साकांक्षं कालादिभिः सापेक्षं एतावन्तं कालमहमशनादिकं नानुतिष्ठामीति। निराकांक्षं भवेद् द्वितीयं यावज्जीवं आमरणान्तादपि न सेवनम्।।३४७।।
साकांक्षानशनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह -
छट्ठट्ठमदसमदुवादसेिंह मासद्धमासखमणाणि। कणगेगावलिआदी तवोविहाणाणि णाहारे।।३४८।।
अहोरात्रस्य मध्ये द्वे भक्तवेले तत्रैकस्यां भक्तवेलायां भोजनमेकस्याः परित्याग एकभक्तः। चतसृणां भक्तवेलानां परित्यागे चतुर्थः। षण्णां भक्तवेलानां परित्यागे षष्ठो द्विदिनपरित्यागः। अष्टानां परित्यागेऽष्ट मस्त्रय उपवासाः। दशानां त्यागे दशमश्चत्वार उपवासाः। द्वादशानां परित्यागे द्वादशः पंचोपवासाः। मासार्ध-पंचदशोपवासाः पंचदशदिनान्याहारपरित्यागः। मास—मासोपवासािंस्त्रशदहोरात्रमात्रा अशनत्यागः। क्षमणान्युपवासाः। आवलीशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते। कनकावली चैकावली चका, बर्तनों का, भात आदि भोज्य वस्तु का या काल आदि का गणनापूर्वक नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान है अर्थात् आहार को निकलते समय दातारों के घर का या किसी दातार आदि का नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है। काय अर्थात् शरीर को परिताप—क्लेश देना, आतापन, अभ्रावकाश और वृक्षमूल आदि के द्वारा कर्मक्षय के लिए बुद्धिपूर्वक शोषण करना कायक्लेश तप है। स्त्री, पशु और नपुंसक से वर्जित स्थान का सेवन करना विविक्तशयनासन तप है। ऐसे इन छः बाह्य तपों का नाम निर्देशपूर्वक संक्षिप्त लक्षण किया है। आगे प्रत्येक का लक्षण आचार्य स्वयं कर रहे हैं।
अनशन का स्वरूप और उसके भेद बतलाते हुए कहते हैं -
गाथार्थ - काल की मर्यादा सहित और जीवनपर्यन्त के भेद से अनशन तप दो प्रकार जानना चाहिए। काल की मर्यादा सहित साकांक्ष है और दूसरा यावज्जीवन अनशन निराकांक्ष होता है।।३४७।।
आचारवृत्ति - इत्तिरिय—इतने काल तक और यावज्जीवं—जीवनपर्यन्त तक के भेद से अनशन तप दो प्रकार का है। उसमें ‘इतने काल पर्यन्त मैं अनशन अर्थात् भोजन आदि का अनुष्ठान नहीं करूंगा’ ऐसा काल आदि सापेक्ष जो अनशन होता है
कनकावल्येकावल्यौ तौ विधी आदिर्येषां तपोविधानानां कनकैकावल्यादीनि। आदिशब्देन मुरजमध्य-विमानपंक्ति-िंसहनिष्क्रीडितादीनां ग्रहणं। कनकावल्यादीनां प्रपंचः टीकाराधनायां द्रष्टव्यो विस्तरभयान्नेह प्रतयन्ते। अनाहारोऽनशनं षष्ठाष्टमदशमद्वादशैर्मासार्धमासादिभिश्च यानि क्षमणानि कनकैकावल्यादीनि च यानि तपोविधानानि तानि सर्वाण्यनाहारो यावदुत्कृष्टेन षण्मासास्तत्सर्वं साकांक्षमनशनमिति।।३४८।।
निराकांक्षस्यानशनस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह -
भत्तपइण्णा इंगिणि पाउवगमणाणि जाणि मरणाणि। अण्णेवि एवमादी बोधव्वा णिरवकंखाणि।।३४९।।