इत्तिरिय - साकांक्ष अनशन तप है। जिसमें मरण पर्यन्त तक अनशन का त्याग कर दिया जाता है वह यावज्जीवन निराकांक्ष नाम का दूसरा तप होता है। अब साकांक्ष अनशन का स्वरूप कहते हैं— गाथार्थ — बेला, तेला, चौला, पाँच उपवास, पन्द्रह दिन और महीने भर का उपवास कनकावली, एकावली आदि तपश्चरण के विधान अनशन में कहे गए हैं।।३४८।।

आचारवृत्ति - अहोरात्र के मध्य भोजन की दो बेला होती हैं। उनमें से एक भोजन बेला में भोजन करना और एक भोजन बेला में भोजन का त्याग करना यह एकभक्त है। चार भोजन बेलाओं में चार भोजन का त्याग करना चतुर्थ है अर्थात् धारणा और पारणा के दिन एकाशन करना तथा व्रत के दिन दोनों समय भोजन का त्याग करके उपवास करना—इस तरह चार भोजन का त्याग होने से जो उपवास होता है उसे चतुर्थ कहते हैं। छह भोजन बेलाओं के त्याग में षष्ठ कहा जाता है अर्थात् धारणा-पारणा के दिन एकाशन तथा दो दिन का पूर्ण उपवास इसे ही षष्ठ बेला कहते हैं। आठ भोजन बेलाओं में आठ भोजन का त्याग करने से अष्टम अर्थात् तेला कहा जाता है। दश भोजन बेलाओं के त्याग करने पर दशम—चार उपवास होते हैं। बारह भुक्तियों के त्याग से द्वादश—पाँच उपवास हो जाते हैं। पन्द्रह दिन तक आहार का त्याग करने से अर्धमास का उपवास होता है। तीन दिन-रात तक भोजन का त्याग करने से एक मास का उपवास होता है तथा कनकावली, एकावली आदि भी तपो विधान है। यहाँ आदि शब्द से मुरजबन्ध, विमानपंक्ति, सिंहनिष्क्रीड़ित आदि व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। इन कनकावली आदि व्रतों का विस्तृत कथन आराधना टीका में देखना चाहिए। विस्तार के भय से उनको यहाँ पर हम नहीं कहते हैं।

तात्पर्य यह है कि आहार का त्याग करना अनशन है। बेला, तेला, चौला, पाँच उपवास, पन्द्रह दिन, एक महीने आदि के उपवास, कनकावली, एकावली आदि।

भक्तप्रत्याख्यानं द्व्याद्यष्टचत्वािंरशन्निर्यापकै परिचर्यमाणस्यात्मपरोपकार-सव्यपेक्षस्य यावज्जीवमाहारत्यागः। इङ्गणीमरणं नामात्मोपकारसव्यपेक्षं परोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनमरणं नामात्मपरोपकारनिरपेक्षं। एतानि त्रीणि मरणानि। एवमादीन्यन्यान्यपि प्रत्याख्यानि निराकांक्षाणि यानि तानि सर्वाण्यनिराकांक्षमनशनं बोद्धव्यं ज्ञातव्यमिति।।३५०।।

अवमौदर्यस्वरूपं निरूपयन्नाह—

बत्तीसा किर कवला पुरिसस्स दु होदि पयदि आहारो।
एगकवलादििंह तत्तो ऊणियगहणं उमोदरियं।।३५०।।

आचरण ये सब उपवास उत्कृष्ट से छः मास पर्यन्त तक होते हैं। ये सब साकांक्ष अनशन हैं। अब निराकांक्ष अनशन का स्वरूप निरूपित करते हैं—
गाथार्थ — भक्त प्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन जो ये मरण हैं ऐसे और भी जो अनशन हैं वे निराकांक्ष जानना चाहिए।।३४९।।
आचारवृत्ति — दो से लेकर अड़तालीस पर्यन्त निर्यापकों के द्वारा जिनकी परिचर्या की जाती है, जो अपनी और पर के उपकार की अपेक्षा रखते हैं ऐसे मुनि का जो जीवन पर्यन्त आहार का त्याग है वह भक्त प्रत्याख्यान नाम का समाधिमरण है। जो अपने उपकार की अपेक्षा सहित है और पर के उपकार से निरपेक्ष है वह इंगिनीमरण है। जिस मरण में अपने और पर के उपकार की अपेक्षा नहीं है वह प्रायोपगमन मरण है। ये तीन प्रकार के मरण होते हैं अर्थात् छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक के जीवों के मरण का नाम पण्डितमरण है उसके ही ये तीनों भेद हैं। इसी प्रकार से और भी जो अन्य उपवास होते हैं वे सब निराकांक्ष अनशन कहलाते हैं।
अब अवमौदर्य का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — पुरुष का निश्चित रूप से स्वभाव से बत्तीस कवल आहार होता है। उस आहार में से एक कवल आदि रूप से कम ग्रहण करना अवमौदर्य तप है।।३५०।।
आचारवृत्ति — पुरुष का प्राकृतिक आहार बत्तीस कवल प्रमाण होता है। उन बत्तीस ग्रासों में से एक ग्रास कम करना, दो ग्रास कम करना, तीन ग्रास कम करना, इस प्रकार से जब तक एक ग्रास न हो जाय तब तक कम करते जाना अथवा एक सिक्थ—भात का कण मात्र रह जाय तब तक कम करते जाना यह अवमौदर्य तप है। गाथा में आया ‘किल’ शब्द आगम अर्थ का सूचक है अर्थात् आगम में ऐसा कहा गया|
द्वात्रिंशत्कवला: पुरुषस्य प्रकृत्याहारो भवति। ततो द्वात्रिंशत्कवलेभ्य: एककवलेनोनं द्वाभ्यां। त्रिभिः, इत्येवं यावदेककवलः शेषः एकसिक्थो वा। किलशब्द आगमार्थसूचकः आगमे पठितमिति। एककवलादिर्भििनत्यस्याहारस्य ग्रहणं यत् सावमौदर्यवृत्तिः। सहस्रतंदुलमात्रः कवल आगमे पठितः द्वात्रिंशत्कवलाः पुरुषस्य स्वाभाविक आहारस्तेभ्यो यन्न्यूनग्रहणं तदवमोदर्यं तप इति।।३५१।।
किमर्थमवमोदर्यवृत्तिरनुष्ठीयत इति पृष्टे उत्तरमाह—

धम्मावासयजोगे णाणादीए उवग्गहं कुणदि।
ण य इंदियप्पदोसयरी उम्मोदरितवोवुत्ती।।३५१।।

है। एक ग्रास आदि से प्रारम्भ करके एक ग्रास कम तक जो आहार का ग्रहण करना है वह अवमौदर्य चर्या है। आगम में एक हजार चावल का एक कवल कहा गया है अर्थात् बत्तीस ग्रास पुरुष का स्वाभाविक आहार है उससे जो न्यून है वह अवमौदर्य तप है।
किसलिए अवमौदर्य तप का अनुष्ठान किया जाता है ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं—
गाथार्थ — धर्म, आवश्यक क्रिया और योगों में तथा ज्ञानादिक में उपकार करता है क्योंकि अवमौदर्य तप की वृत्ति इन्द्रियों से द्वेष करने वाली नहीं है।।३५१।।
आचारवृत्ति — उत्तम क्षमा आदि लक्षण वाले दश प्रकार के धर्म में, समता, वन्दना आदि छः आवश्यक क्रियाओं में, वृक्षमूल आदि योगों में ज्ञानादिक—स्वाध्याय और चारित्र में यह अवमौदर्य तप उपकार करता है। इस तपश्चरण से इन्द्रियाँ प्रद्वेष को प्राप्त नहीं होती हैं किन्तु वश में रहती हैं। बहुत भोजन करने वाला धर्म का अनुष्ठान नहीं कर सकता है। परिपूर्ण आवश्यक क्रियाओं का पालन नहीं कर पाता है। आतापन, अभ्रावकाश और वृक्षमूल इन तीन काल सम्बन्धी योगों को भी सुख से नहीं धारण कर सकता है तथा स्वाध्याय और ध्यान करने में भी समर्थ नहीं हो पाता है। उस मुनि की इन्द्रियाँ भी स्वेच्छाचारी हो जाती हैं किन्तु मितभोजी साधु में धर्म, आवश्यक आदि क्रियाएँ स्वेच्छा से रहती हैं।
भावार्थ — भूख से कम खाने वाले साधु के प्रमाद नहीं होने से ध्यान, स्वाध्याय आदि निर्विघ्न होते हैं किन्तु अधिक भोजन करने वाले के प्रमाद से सभी कार्यों में बाधा पहुँचती है इसलिए यह तप गुणकारी है।
धर्मे क्षमादिलक्षणे दशप्रकारे। आवश्यकक्रियासु समतादिषु षट्सु। योगेषु वृक्षमूलादिषु। ज्ञानादिके स्वाध्याये चारित्रे चोपग्रहमुपकारं करोतीत्यवमोदर्यतपोवृत्तिः। न चेन्द्रियप्रद्वेषकरी न चावमोदर्यवृत्येन्द्रियाणि प्रद्वेषं गच्छन्ति किन्तु वशे तिष्ठन्तीति। बह्वाशीर्धर्मं नानुतिष्ठति। आवश्यकक्रियाश्च न सम्पूर्णाः पालयति। त्रिकालयोगं च न क्षेमेण समानयति। स्वाध्यायध्यानादिवंâ च न कर्तुं शक्नोति। तस्येन्द्रियाणि च स्वेच्छाचारीणि भवन्तीति। मिताशिनः पुनर्धर्मादयः स्वेच्छया वर्तन्त इति।।३५२।।
रसपरित्यागस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह—

खीरदहिसप्पितेल गुडलवणाणं च जं परिच्चयणं।
तित्तकटुकसायंविलमधुररसाणं च जं चयणं।।३५२।।

अथ को रसपरित्याग इति पृष्टेऽत आह—क्षीरदधिर्सिपस्तैलगुडलवणानां घृतपूरलड्डुकादीनां च यत् परिच्चयणं—परित्यजनं एकैकशः सर्वेषां वा तिक्तकटुककषा-याम्लमधुररसानां च यत्त्यजनं स रसपरित्यागः। एतेषां प्रासुकानामपि तपोबुद्ध्या त्यजनम्।।३५२।।
याः पुनर्महाविकृतयस्ताः कथमिति प्रश्नेऽत आह—

चत्तारि महावियडी य होंति णवणीदमज्जमंसमधू।
कंखापसंगदप्पासंजमकारीओ एदाओ।।३५३।।

याः पुनश्चतस्रो महाविकृतयो महापापहेतवो भवन्तीति नवनीतमद्यमांसमधूनि, कांक्षाप्रसंगदर्पासंयमकारिण्य एताः। नवनीतं कांक्षां—महाविषयाभिलाषं करोति।
अब रसपरित्याग का स्वरूप प्रतिपादित करते हैं—
गाथार्थ — दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और लवण इन रसों का जो परित्याग करना है और तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल तथा मधुर इन पाँच प्रकार के रसों का त्याग करना है वह रसपरित्याग है।।३५२।।
आचारवृत्ति — रसपरित्याग क्या है ऐसा प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं—दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक तथा घृतपूर्ण पुआ, लड्डू आदि का जो त्याग करना है। इनमें एक-एक का या सभी का छोड़ना; तथा तिक्त, कटुक, कषायले, खट्टे और मीठे इन रसों का त्याग करना रसपरित्याग तप है। इस तप में इन प्रासुक वस्तुओं का भी तपश्चरण की बुद्धि से त्याग किया जाता है।
जो महाविकृतियाँ हैं वे कौन सी हैं ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं— गाथार्थ — मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चार महाविकृतियाँ होती हैं। ये अभिलाषा, प्रसंग—व्यभिचार, दर्प और असंयम को करने वाली हैं।।३५३।।
मद्यं—सुराप्रसंगमगम्यगमनं करोति। मांसं-पिशितं दर्पं करोति। मधु असंयमं हिंसां करोति।।३५३।। एताः किंकर्तव्या इति पृष्टेऽत आह—

आणाभिकंखिणावज्जभीरुणा तवसमाधिकामेण।
ताओ जावज्जीवं णिव्वुड्ढाओ पुरा चेव।।३५४।।

सर्वज्ञाभिकाक्षिणा—सर्वज्ञमतानुपालकेन। अवद्यभीरुणा—पापभीरुणा, तपःकामेन—तपोनुष्ठानपरेण, समाधिकामे—न च ता नवनीतमद्यमांसमधूनि विकृतयो यावज्जीवं—सर्वकालं निव्र्यूढाः—निसृष्टाः त्यक्ताः पुरा चैव पूर्वस्मिन्नेव काले संयमग्रहणान्पूर्वमेव। आज्ञाभिकांक्षिणा नवनीतं सर्वथा त्याज्यं दुष्टकांक्षाकारित्वात्। अवद्यभीरुणा मांसं सर्वथा त्याज्यं दर्पकारित्वात्। ततः तपःकामेन मद्यं सर्वथा त्याज्यं प्रसंगकारित्वात्। समाधिकामेन मधु सर्वथा त्याज्यं, असंयमकारित्वात्। व्यस्तं समस्तं वा योज्यमिति।।३५४।।
आचारवृत्ति — मक्खन, मद्य, मांस और मधु ये चारों ही महाविकृति पाप की हेतु हैं। नवनीत विषयों की महान् अभिलाषा को उत्पन्न करता है। मद्य, प्रसंग, अगम्य अर्थात् वेश्या या व्यभिचारिणी स्त्री का सहवास कराता है। मांस अभिमान को पैदा करता है और मधु हिंसा में प्रवृत्त कराता है।
इन्हें क्या करना चाहिए ? सो ही बताते हैं—
गाथार्थ — आज्ञापालन के इच्छुक, पापभीरू, तप और समाधि की इच्छा करने वाले ने पहले ही इनका जीवन भर के लिए त्याग कर दिया है।।३५४।।
आचारवृत्ति — सर्वज्ञदेव की आज्ञा पालन करने वाले, पापभीरू, तप के अनुष्ठान में तत्पर और समाधि की इच्छा करने वाले भव्य जीव ने संयम ग्रहण करने के पूर्व में ही इन मक्खन, मद्य, मांस और मधु नामक चारों विकृतियों का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया है।
आज्ञापालन करने के इच्छुक को नवनीत का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए क्योंकि वह दुष्ट अभिलाषा को उत्पन्न करने वाला है। पापभीरू को मांस का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए क्योंकि वह दर्प—उत्तेजना का करने वाला है। तपश्चरण की इच्छा करने वाले को चाहिए कि वह मद्य को सर्वथा के लिए छोड़ दे क्योंकि वह अगम्या—वेश्या आदि का सेवन कराने वाला है तथा समाधि की इच्छा करने वाले को मधु का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए क्योंकि वह असंयम को करने वाला है। इनको पृथक-पृथक या समूहरूप से भी लगा लेना चाहिए।
वृत्तिपरिसंख्यानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह—

गोयरपमाण दायगभायण णाणाविहाण जं गहणं।
तह एसणस्स गहणं विविहस्स य वुत्तिपरिसंखा।।३५५।।

गोचरस्य प्रमाणं गोचरप्रमाणं गृहप्रमाणं, एतेषु गृहेषु प्रविशामि नान्येषु बहुष्विति। दायका दातारो भाजनानि परिवेष्यपात्राणि तेषां यन्नानाविधानं नानाकरणं तस्य ग्रहणं स्वीकरणं—दातृविशेषग्रहणं पात्रविशेषग्रहणं च। यदि वृद्धो मां विधरेत् तदानीं तिष्ठामि नान्यथा। अथवा वालो युवा स्त्री उषानत्करहितो वत्र्मनि स्थितोऽन्यथा वा विधरेत् तदानीं तिष्ठामिति। कांस्यभाजनेन रूप्यभाजनेन सुवर्णभाजनेन मृन्मयभाजनेन वा ददाति तदा गृहीष्यामीति यदेवमाद्यं। तथाशनस्य विविधस्य नानाप्रकारस्य यद्रग्रहणमवग्रहोपादानं, अद्य मकुष्ठं भोक्ष्ये नान्यत्। अथवाद्य मंडकान् सक्तून् ओदनं वा ग्रहीष्यामीति यदेवमाद्यं ग्रहणं तत्सर्वं वृत्तिपरिसंख्यानमिति।।३५५।।
भावार्थ — एक-एक गुण के इच्छुक को एक-एक के त्यागने का उपदेश दिया है। वैसे ही एक-एक गुण के इच्छुक को चारों का भी त्याग कर देना चाहिए अथवा चारों गुणों के इच्छुक को चारों वस्तुओं का सर्वथा ही त्याग कर देना चाहिए। वृत्तिपरिसंख्यान तप का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए आचार्य कहते हैं—
गाथार्थ — गृहों के प्रमाण, दाता का, बर्तनों का नियम ऐसे अनेक प्रकार का जो नियम ग्रहण करना है तथा नाना प्रकार के भोजन का नियम ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान व्रत है।।३५५।।
आचारवृत्ति — गृहों के प्रमाण को गोचर प्रमाण कहते हैं। जैसे ‘आज मैं इन गृहों में आहार हेतु जाऊँगा और अधिक गृहों में नहीं जाऊँगा’ ऐसा नियम करना। दायक अर्थात् दातार और भाजन अर्थात् भोजन रखने के या भोजन परोसने के बर्तन—इनकी जो नाना प्रकार से विधि लेना है वह दायक-भाजन विधि अर्थात् दाता विशेष और पात्र विशेष की विधि ग्रहण करना है। जैसे ‘यदि वृद्ध मनुष्य मुझे पड़गाहेगा तो मैं ठहरूँगा अन्यथा नहीं अथवा बालक, युवक, महिला या जूते अथवा खड़ाऊँ आदि से रहित कोई पुरुष मार्ग में खड़ा हुआ मुझे पड़गाहे तो मैं ठहरूँगा अथवा ये अन्य अमुक विधि से मुझे पड़गाहें तो मैं ठहरूँगा’ इत्यादि नियम लेकर चर्या के लिए निकलना। ऐसे ही बर्तन सम्बन्धी नियम लेना, जैसे ‘मुझे आज यदि कोई कांसे के बर्तन से, सोने के बर्तन से या मिट्टी के बर्तन से आहार देगा तो मैं ले लूँगा, या इसी प्रकार से अन्य और भी नियम लेना तथा नाना प्रकार के भोजन सम्बन्धी जो नियम लेना है वह सब वृत्तिपरिसंख्यान है। जैसे, ‘आज मैं मोठ ही खाऊँगा अन्य कुछ नहीं’, इत्यादि रूप से जो भी नियम लिए जाते हैं वे सब वृत्तिपरिसंख्यान तप कहलाते हैं।
कायक्लेशस्वरूपं विवृण्वन्नाह—

ठाणसयणासणेिंह य विविहेिंह य उग्गयेिंह बहुएहिं।
अणुवीचीपरिताओ कायकिलेसो हवदि एसो।।३५६।।

स्थानं—कायोत्सर्गं शयनं—एकपाश्र्वमृतकदण्डादिशयनं। आसनं—उत्कुटिका -पर्यंक—वीरासन-मकरमुखाद्यासनं। स्थानशयनासर्नैिवविधैश्चावग्रहैर्धर्मोपकार-हेतुभिरभिप्रायै-र्बहुभिरनुवीचीपरितापः सूत्रानुसारेण कायपरितापो वृक्षमूलाभ्रावकाशा-तापनादिरेष कायक्लेशो भवति।।३५६।। विविक्तशयनासनस्वरूपमाह—

तेरिक्खिय माणुस्सिय सविगारियदेवि गेहि संसत्ते।
वज्र्जेति अप्पमत्ता णिलए सयणासणट्ठाणे।।३५७।।

तिर्यंचो—गोमहिष्यादयः। मानुष्यः—स्त्रयो वेश्याः स्वेच्छाचारिण्यादयः। सविकारिण्यो—देव्यो भवनवानव्यन्तरादियोषितः। गेहिनो गृहस्याः। एतैः संसक्तान्—सहितान्, निलयानावसान् वर्जयन्ति—परिहरन्त्यप्रमत्ता यत्नपराः सन्तः शयनासनस्थानेषु कर्तव्येषु एवमनुतिष्ठतो विविक्तशयनासनं नाम तप इति।।३५७।।
भावार्थ — इन्द्रिय और मन के निग्रह के लिए नाना प्रकार के तपश्चरणों का अनुष्ठान किया जाता है और इस वृत्तिपरिसंख्यान के नियम से भी इच्छाओं का निरोध होकर भूख-प्यास को सहन करने का अभ्यास होता है।
कायक्लेश तप का स्वरूप बतलाते हैं—
गाथार्थ — खड़े होना—कायोत्सर्ग करना, सोना, बैठना और अनेक विधिनियम ग्रहण करना, इनके द्वारा आगमानुकूल कष्ट सहन करना, यह कायक्लेश नाम का तप है।।३५६।।
आचारवृत्ति — स्थान—कायोत्सर्ग करना। शयन—एक पसवाड़े से या मृतकासन से या दण्डे के समान लम्बे पड़कर सोना। आसन—उत्कुटिकासन, पर्यंकासन, वीरासन, मकरमुखासन आदि तरह-तरह के आसन लगाकर बैठना। इन कायोत्सर्ग, शयन और आसनों द्वारा तथा अनेक प्रकार के धर्मोपकार हेतु नियमों के द्वारा सूत्र के अनुसार काय को ताप देना अर्थात् शरीर को कष्ट देना; वृक्षमूल, अभ्रावकाश और आतापन आदि नाना प्रकार के योग धारण करना यह सब कायक्लेश तप है।
भावार्थ — इस तपश्चरण द्वारा शरीर में कष्ट-सहिष्णुता आ जाने से, घोर उपसर्ग या परीषहों के आ जाने पर भी साधु अपने ध्यान से चलायमान नहीं होते हैं इसलिए यह तप भी बहुत ही आवश्यक है।
बाह्य तप उपसंहरन्नाह—

सो णाम बाहिरतवो जेण मणो दुक्कडं ण उट्ठेदि।
जेण य सद्धा जायदि जेण य जोगा ण हीयंते।।३५८।।

तन्नाम बाह्यं तपो येन मनोदुष्कृतं-चित्तसंक्लेशो नोत्तिष्ठति नोत्पद्यते। येन च श्रद्धा शोभनानुरागो जायत उत्पद्यते येन च योगा मूलगुणा न हीयन्ते।।३५८।।

एसो दु बाहिरतवो बाहिरजणपायडो परम घोरो।
अब्भंतरजणणादं बोच्छं अब्भंतरं वि तवं।।३५९।।

तद्वाह्यं तपः षड्विधं बाह्यजनानां मिथ्यादृष्टिजनानामपि प्रकटं प्रख्यातं परमघोरं सुष्ठु दुष्करं प्रतिपादितं। अभ्यन्तरजनज्ञातं आगमप्रविष्टजनैज्र्ञातं वक्ष्ये कथयिष्याम्यभ्यन्त-रमपि षड्विधं तपः।।३५९।।
श्री पूज्यवाद स्वामी ने भी कहा है—

अदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ।
तस्माद् यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेद् मुनिः।।१०२।। (समाधिशतक)

सुखी जीवन में किया गया तत्त्वज्ञान का अभ्यास दुःख के आ जाने पर क्षीण हो जाता है इसलिए मुनि अपनी शक्ति के अनुसार दुःखों के द्वारा अपनी आत्मा की भावना करे अर्थात् कायक्लेश आदि के द्वारा दुःखों को बुलाकर अपनी आत्मा का चिन्तवन करते हुए अभ्यास दृढ़ करे। विविक्तशयनासन तप का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — अप्रमादी मुनि सोने, बैठने और ठहरने में तिर्यंचिनी, मनुष्य-स्त्री, विकारसहित देवियाँ और गृहस्थों से सहित मकानों को छोड़ देते हैं।।३५७।।
आचारवृत्ति — अप्रमत्त अर्थात् यत्न में तत्पर होते हुए सावधान मुनि सोना, बैठना और ठहरना इन प्रसंगों में अर्थात् अपने ठहरने के प्रसंग में—जहाँ, गाय, भैंस आदि तिर्यंच हैं; वेश्या, स्वेच्छाचारिणी आदि महिलाएँ हैं; भवनवासिनी, व्यंतरवासिनी आदि विकारी वेषभूषा वाली देवियाँ हैं अथवा गृहस्थजन हैं। ऐसे इन लोगों से सहित गृहों को, वसतिकाओं को छोड़ देते हैं। इस तरह इन तिर्यंच आदि से रहित स्थानों में रहने वाले मुनि के यह विविक्त शयनासन नाम का तप होता है।
अब बाह्य तपों का उपसंहार करते हुए कहते हैं—
गाथार्थ — बाह्य तप वही है जिससे मन अशुभ को प्राप्त नहीं होता है, जिससे श्रद्धा उत्पन्न होती है तथा जिससे योगहीन नहीं होते हैं।।३५८।।
के ते षट्प्रकारा इत्याशंकायामाह—

पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो।।३६०।।