काये भवः कायिकः। वाचि भवो वाचिकः। मनसि भवो मानसिकः। त्रिविधस्रिप्रकारस्तु पंचमो विनयः। स्वर्गमोक्षादीन् विशेषेण नयतीति विनयः। कायाश्रयो वागाश्रयो मानसाश्रयश्चेति। स पुनः सर्वोऽपि कायिको वाचिको मानसिकश्च द्विविधो द्विप्रकारः प्रत्यक्षश्चैव परोक्षश्च। गुरोः प्रत्यक्षश्चक्षुरादिविषयः। चक्षुरादिविषया-दतिक्रान्तः परोक्ष इति।।३७२।।
रात्रिक प्रतिक्रमण में ५४ उच्छ्वासपूर्वक १८ कायोत्सर्ग, देववंदना में चैत्य, पंचगुरुभक्ति सम्बन्धी कायोत्सर्ग इत्यादि कहे गए हैं सो उतने प्रमाण से विधिवत् करना।
गाथार्थ — तपोधिक साधु में और तप में भक्ति रखना तथा और दूसरे मुनियों की अवहेलना नहीं करना, आगम में कथित चारित्र वाले साधु का यह तपोविनय है।।३७१।।
आचारवृत्ति — जो तपश्चर्या में अपने से अधिक हैं वे तपोधिक होते हैं। उनमें तथा बारह प्रकार के तपश्चरण के अनुष्ठान में भक्ति अर्थात् अनुराग रखना। स्तुति के परिणाम को अथवा सेवा को भक्ति कहते हैं सो इनकी भक्ति करना। शेष जो मुनि अनुत्कृष्ट तप वाले हैं अर्थात् अधिक तपश्चरण नहीं करते हैं उनका तिरस्कार—अपमान नहीं करना। संयतों में प्रणाम की वृत्ति होना, यह सब तपोविनय है जो कि आगमानुवूâल चारित्रधारी साधु के होता है। पाँचवें औपचारिक विनय का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं—
गाथार्थ — कायिक, वाचिक और मानसिक इस प्रकार पाँचवाँ औपचारिक विनय तीन भेद रूप है, पुनः वह तीन भेद रूप विनय प्रत्यक्ष तथा परोक्ष की अपेक्षा से दो प्रकार का है।।३७२।।
आचारवृत्ति — काय से होने वाला कायिक है, वचन से होने वाला वाचिक और मन से होने वाला मानसिक विनय है। जो स्वर्ग, मोक्षादि में विशेष रूप से ले जाता है वह विनय है। इस तरह औपचारिक नामक पाँचवाँ विनय तीन प्रकार का है अर्थात् काय के आश्रित, वचन के आश्रित और मन के आश्रित से यह विनय तीन भेद रूप है। वह तीनों प्रकार का विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार है अर्थात् प्रत्यक्ष विनय के भी तीन भेद हैं और परोक्ष के भी तीन भेद हैं। जब गुरु प्रत्यक्ष में हैं, चक्षु आदि इन्द्रियों के गोचर हैं तब उनकी विनय प्रत्यक्ष विनय है तथा जब गुरु चक्षु आदि से परे दूर हैं तब उनकी जो विनय की जाती है वह परोक्षविनय है।
कायिकविनयस्वरूपं दर्शयन्नाह—

अब्भुट्ठाणं किदिअम्मं णवणं अंजलीय मुंडाणं।
पच्चूगच्छणमेत्ते पछिदस्सणुसाहणं चेव।।३७३।।

अभ्युत्थानमादरेणासनादुत्थानं। क्रियाकर्म सिद्धभक्तिश्रुतभक्तिगुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गादिकरणं। नमनं शिरसा प्रणामः। अञ्जलिना करकुंडलेनाञ्जलिकरणं वा मुण्डानामृषीणां। अथवा मुण्डा सामान्यवन्दना। पच्चूगच्छणमेत्ते—आगच्छतः प्रतिगमनमभिमुखयानं। प्रस्थितस्य प्रयाणके व्यवस्थितस्यानुसाधनं चानुव्रजनं च साधूनामादरः कार्यः। तथा तेषामेव क्रियाकर्म कर्तव्यम्। तथा तेषामेव कृताञ्जलिपुटेन नमनं कत्र्तव्यं। तथा साधोरागतः प्रत्यभिमुखगमनं कर्तव्यं तथा तस्यैव प्रस्थितस्यानुव्रजनं कर्तव्यमिति।।३७३।।
कायिक विनय का स्वरूप दिखलाते हैं गाथार्थ — केशलोंच से मुण्डित हुए अतः जो मुण्डित कहलाते हैं ऐसे मुनियों के लिए उठकर खड़े होना, भक्तिपाठपूर्वक वन्दना करना, हाथ जोड़कर नमस्कार करना, आते हुए के सामने जाना और प्रस्थान करते हुए के पीछे-पीछे चलना।।३७३।।
आचारवृत्ति — मुण्ड अर्थात् ऋषियों को सामने देखकर आदरपूर्वक आसन से उठकर खड़े हो जाना, क्रियाकर्म—ाqसद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, गुरुभक्तिपूर्वक कायोत्सर्ग आदि करके वन्दना करना, अंजलि जोड़कर शिर झुकाकर नमस्कार करना नमन है। यहाँ मुण्ड का अर्थ ऋषि है अथवा ‘मुण्ड’ का अर्थ सामान्य वन्दना है अर्थात् भक्तिपाठ के बिना नमस्कार करना मुण्ड-वन्दना है। जो साधु सामने आ रहे हैं उनके सम्मुख जाना, प्रस्थान करने वाले के पीछे-पीेछे चलना। तात्त्पर्य यह है कि साधुओं का आदर करना चाहिए। उनके प्रति भक्तिपाठ करते हुए कृतिकर्म करना चाहिए तथा उन्हें अंजलि जोड़कर नमस्कार करना चाहिए। साधुओं के आते समय सन्मुख जाकर स्वागत करना चाहिए और उनके प्रस्थान करने पर कुछ दूर पहुँचाने के लिए उनके पीछे-पीछे जाना चाहिए।
गाथार्थ — गुरुओं से नीचे खड़े होना, नीचे अर्थात् पीछे चलना, नीचे बैठना, नीचे स्थान में सोना, गुरु को आसन देना, उपकरण देना और ठहरने के लिए स्थान देना—यह सब कायिक विनय है।।३७४।।
आचारवृत्ति — देव और गुरु के सामने नीचे खड़े होना (विनय से एक तरफ खड़े होना), गुरु के साथ चलते समय उनके बाएँ चलना या उनके पीछे चलना, गुरु के नीचे आसन रखना अथवा पीठ, पाटे आदि आसन को छोड़ देना। गुरु को आसन आदि
तथा—

णीचं ठाणं णीचं गमणं णीचं च आसणं सयणं।
आसणदाणं उवगरणदाण ओगासदाणं च।।३७४।।

देवगुरुभ्यः पुरतो नीचं स्थानं वामपाश्र्वे स्थानं। नीचं च गमनं गुरोर्वामपाश्र्वे पृष्ठतो वा गन्तव्यं। नीचं च न्यग्भूतं चासनं पीठादिवर्जनंं। गुरोरासनस्य पीठादिकस्य दानं निवेदनं। उपकरणस्य पुस्तिकाकुंडिकापिच्छिकादिकस्य प्रासुकस्यान्विष्य दानं निवेदनं। अथवा नीचं स्थानं करचरणसंकुचितवृत्तिर्गुरोः सधर्मणोऽन्यस्य वा व्याधितस्येति।।३७४।।
तथा—

पडिरूवकायसंफासणदा य पडिरूपकालकिरिया य। पेसणकरणं संथरकरणं उवकरण पडिलिहणं।।३७५।।

प्रतिरूपं शरीरबलयोग्यं कायस्य शरीरस्य संस्पर्शनं मर्दनमभ्यंगनं वा। प्रतिरूपकालक्रिया चोष्णकाले शीतक्रिया शीतकाले उष्णक्रिया वर्षाकाले तद्योग्यक्रिया। प्रेष्यकरणं—आदेशकरणं। संस्तरकरणं पट्टकादिप्रस्तरणं। उपकरणानां पुस्तिकाकुण्डि-कादीनां प्रतिलेखनं सम्यग्निरूपणम् ।।३७५।।
देना, उनके लिए आसन देकर उन्हें विराजने के लिए निवेदन करना। उन्हें पुस्तक, कमण्डलु, पिच्छिका आदि उपकरण देना, वसतिका या पर्वत की गुफा आदि प्रासुक स्थान अन्वेषण करके गुरु को उसमें ठहरने के लिए निवेदन करना। अथवा ‘नीच स्थान’ का अर्थ यह है कि गुरु, सहधर्मी मुनि अथवा अन्य कोई व्याधिग्रसित मुनि के प्रति हाथ-पैर संकुचित करके बैठना। तात्पर्य यही है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में विनम्रता रखना। उसी प्रकार से— गाथार्थ — गुरु के अनुरूप उनके अंग का मर्दनादि करना, उनके अनुरूप और काल के अनुरूप क्रिया करना, आदेश पालन करना, उनके संस्तर लगाना तथा उपकरणों का प्रतिलेखन करना।।३७५।।
आचारवृत्ति — गुरु के शरीर बल के योग्य शरीर का मर्दन करना अथवा उनके शरीर में तेल मालिश करना, उष्ण काल में शीत क्रिया, शीतकाल में उष्णक्रिया करना और वर्षाकाल में उस ऋतु के योग्य क्रिया करना अर्थात् गुरु की सेवा आदि ऋतु के अनुवूâल और उनकी प्रकृति के अनुवूâल करना। उनके आदेश का पालन करना; उनके

इच्चेवमादिओ जो उवयारो कीरदे सरीरेण।
एसा काइयविणओ जहारिहं साहुवग्गस्स।।३७६।।

इत्येवमादिरूपकारो गुरोरन्यस्य वा साधुवर्गस्य यः शरीरेण क्रियते यथायोग्यं स एष कायिको विनयः कायाश्रितत्वादिति।।३७६।। वाचिकविनयस्वरूपं विवृण्वन्नाह—

पूयावयणं हिदभासणं मिदभासणं च मधुरं च।
सुत्ताणुवीचिवयणं अणिट्ठुरमकक्कसं वयणं।।३७७।।

पूजावचनं बहुवचनोच्चारणं यूयं भट्टारका इत्येवमादि। हितस्य पथ्यस्य भाषणं इहलोकपरलोकधर्मकारणं वचनं। मितस्य परिमितस्य भाषणं चाल्पाक्षरबह्वर्थं। मधुरं च मनोहरं श्रुतिसुखदं। सूत्रानुवीचिवचनमागमदृष्ट्या भाषणं यथा पापं न भवति। अनिष्ठुरं दग्धमृतप्रलीनेत्यादिशब्दै रहितं। अकर्कशं वचनं च वर्जयित्वा वाच्यमिति।।३७७।।
लिए संस्तर अर्थात् चटाई, घास, पाटा आदि लगाना, उनके पुस्तक, कमण्डलु आदि उपकरणों को ठीक तरह से पिच्छिका से प्रतिलेखन करके उन्हें देना। गाथार्थ — साधुवर्ग का इसी प्रकार से और भी जो उपकार यथायोग्य अपने शरीर के द्वारा किया जाता है यह सब कायिक विनय है।।३७६।।
आचारवृत्ति — इसी प्रकार से अन्य और भी जो उपकार गुरु या साधु वर्ग का शरीर के द्वारा योग्यता के अनुसार किया जाता है वह सब कायिक विनय है; क्योंकि वह काय के आश्रित है। वाचिक विनय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — पूजा के वचन, हित वचन, मितवचन और मधुर वचन, सूत्रों के अनुकूल वचन, अनिष्ठुर और कर्वâशतारहित वचन बोलना वाचिक विनय है।।३७७।।
आचारवृत्ति — ‘आप भट्टारक!’ इत्यादि प्रकार बहुवचन का उच्चारण करना पूजा वचन है। हित—पथ्य वचन बोलना अर्थात् इस लोक और परलोक के लिए धर्म के कारणभूत वचन हितवचन हैं। मित—परिमित बोलना, जिसमें अल्प अक्षर हों किन्तु अर्थ बहुत हो मित वचन हैं। मधुर—मनोहर अर्थात् कानों को सुखदायी वचन मधुर वचन हैं। आगम के अनुकूल बोलना कि जिस प्रकार से पाप न हो सूत्रानुवीचि वचन हैं। तुम जलो मरो, प्रलय को प्राप्त हो जाओ इत्यादि शब्दों से रहित वचन अनिष्ठुर वचन हैं और कठोरतारहित वचन अकर्कश वचन हैं अर्थात् उपर्युक्त प्रकार के वचन बोलना ही वाचिक विनय है।

उवसंतवयणमगिहत्थवयणमकिरियमहीलणं वयणं।
एसो वाइयविणओ जहारिहं होदि कादव्वो।।३७८।।

उपशान्तवचनं क्रोधमानादिरहितं। अगृहस्थवचनं गृहस्थानां मकारवकारादि यद्वचनं तेन रहितं बन्धनत्रासनताडनादिवचनरहितं। अकिरियं असिमसिकृष्यादिक्रिया (दि) रहितं अथवा सक्रियमिति पाठः। सक्रियं क्रियायुक्तमन्यच्चिन्तान्यदोषयोरिति न वाच्यं, तदुच्यते यन्निष्पाद्यते। अहीलं—अपरिभवचनंं। इत्येवमादिवचनं यत्र स एष वाचिको विनयो यथायोग्यं भवति कर्तव्य इति।।३७८।। मानसिकविनयस्वरूपमाह—

पापविसोत्तिअपरिणामवज्जणं पियहिदे य परिणामो।
णादव्वो संखेवेणेसो माणसिओ विणओ।।३७९।।

पापविश्रुतिपरिणामवर्जनं पापं िंहसादिकं विश्रुतिः सम्यग्विराधना तयोः परिणामस्तस्य वर्जनं परिहारः। प्रिये धर्मोपकारे हिते च सम्यग्ज्ञानादिके च परिणामो ज्ञातव्यः। संक्षेपेण स एष मानसिकश्चित्तोद्भवो विनय इति।।३७९।।
गाथार्थ — कषायरहित वचन, गृहस्थी सम्बन्ध से रहित वचन, क्रियारहित और अवहेलना रहित वचन बोलना—यह वाचिक विनय है जिसे यथायोग्य करना चाहिए।।३७८।।
आचारवृत्ति — क्रोध, मान आदि से रहित वचन उपशान्त वचन हैं। गृहस्थों के जो मकार-वकार आदि रूप वचन हैं उनसे रहित वचन तथा बन्धन, त्रासन, ताडन आदि से रहित वचन अगृहस्थ वचन हैं। असि, मषि, कृषि आदि क्रियाओं से रहित वचन अक्रियवचन हैं। अथवा ‘सक्रियं’ ऐसा भी पाठ है जिसका अर्थ यह है कि क्रियायुक्त वचन बोलना किन्तु अन्य की चिन्ता और अन्य के दोषरूप वचन नहीं बोलना चाहिए। जैसा करना वैसा ही बोलना चाहिए। किसी का तिरस्कार करने वाले वचन नहीं बोलना अहीलन वचन हैं। और भी ऐसे ही वचन जहाँ होते हैं वह सब वाचिक विनय है जो कि यथायोग्य करना चाहिए। मानसिक विनय का स्वरूप कहते हैं—
गाथार्थ — पापविश्रुत के परिणाम का त्याग करना और प्रिय तथा हित में परिणाम करना संक्षेप से यह मानसिक विनय है।।३७९।।
आचारवृत्ति — सादि को पाप कहते हैं और सम्यक्त्व की विराधना को विश्रुति कहते हैं। इन पाप और विराधनाविषयक परिणामों का त्याग करना। धर्म और उपकार को प्रिय कहते हैं तथा सम्यग्ज्ञानादि के लिए हित संज्ञा है। इन प्रिय और हित में परिणाम को लगाना। संक्षेप से यह चित्त से उत्पन्न होने वाला मानसिक विनय कहलाता है।

इय एसो पच्चक्खो विणओ पारोक्खिओवि जं गुरुणो।
विरहम्मिवि वट्टिज्जदि आणाणिद्देसचरियाए।।३८०।।

इत्येष प्रत्यक्षविनयः कायिकादिः, गुर्वादिषु सत्सु वर्तते यतः, पारोक्षिकोऽपि विनयो यद्गुर्रोिवरहेऽपि गुर्वादिषु परोक्षीभूतेषु यद्वर्तते। आज्ञानिर्देशेन चर्याया वार्हद्भट्टारकोपदिष्टेषु जीवादिपदार्थेषु श्रद्धानं कर्तव्यं तथा तैर्या चर्योद्दिष्टा व्रतसमित्यादि- का तया च वर्तनं परोक्षो विनयः। तेषां प्रत्यक्षतो यः क्रियते स प्रत्यक्षमिति।।३८०।। पुनरपि त्रिविधं विनयमन्येन प्रकारेणाह—

अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहा समासदो भणिओ।
सत्त चउव्विह दुविहो बोधव्वो आणुपुव्वीए।।३८१।।

अथौपचारिको विनय उपकारे धर्मादिकपरचित्तानुग्रहे भव औपचारिकः खलु स्फुटं त्रिविधस्त्रिप्रकारः कायिकवाचिकमानसिकभेदेन समासतः संक्षेपतो भणितः
गाथार्थ — इस प्रकार यह प्रत्यक्ष विनय है तथा जो गुरु के न होने पर भी उनकी आज्ञा, निर्देश और चर्या में रहता है उसके परोक्ष सम्बन्धी विनय होता है।।३८०।।
आचारवृत्ति — यह सब ऊपर कहा गया कायिक आदि विनय प्रत्यक्ष विनय है, क्योंकि यह गुरु के रहते हुए उनके पास में किया जाता है। और गुरुओं के विरह में—उनके परोक्ष रहने पर अर्थात् अपने से दूर हैं उस समय भी जो उनका विनय किया जाता है वह परोक्ष विनय है। वह उनकी आज्ञा और निर्देश के अनुसार चर्या करने से होता है अथवा अर्हन्त भट्टारक द्वारा उपदिष्ट जीवादि पदार्थों में श्रद्धान करना तथा उनके द्वारा जो भी व्रत, समिति आदि चर्याएँ कही गई हैं, उन रूप प्रवृत्ति करना यह सब परोक्ष विनय है अर्थात् उनके प्रत्यक्ष में किया गया विनय प्रत्यक्ष विनय तथा परोक्ष में किया गया नमस्कार, आज्ञा पालन आदि विनय परोक्ष विनय है। पुनः इन्हीं तीन प्रकार की विनय को अन्य रूप से कहते हैं— गाथार्थ — यह औपचारिक विनय संक्षेप से कायिक, वाचिक और मानसिक ऐसा तीन प्रकार से कहा गया है। वह क्रम से सात भेद, चार भेद और दो भेदरूप जानना चाहिए।।३८१।।
आचारवृत्ति — जो उपचार अर्थात् धर्मादि के द्वारा पर के मन पर अनुग्रह करने वाला होता है वह औपचारिक विनय कहलाता है। यह औपचारिक विनय प्रकट रूप से कायिक, वाचिक और मानसिक भेदों की अपेक्षा संक्षेप में तीन प्रकार का कहा गया है। उसमें क्रम से सात, चार और दो भेद माने गए हैं अर्थात् कायिक विनय सात प्रकार का है, वाचिक विनय चार प्रकार का है और मानसिक विनय दो प्रकार का है।
कथितः। सप्तविधश्चर्तुिवधो द्विविधो बोद्धव्यः। आनुपूव्र्यानुक्रमेण कायिकः सप्तप्रकारो वाचिकश्चर्तुिवधः मानसिको द्विविध इति।।३८१।। कायिकविनयं सप्तप्रकारमाह—

अब्भुट्ठाणं सण्णदि आसणदाणं अणुप्पदाणं च।
किदियम्मं पडिरूवं आसणचाओ य अणुव्वजणं।।३८२।।

अभ्युत्थानम् आदरेणोत्थानं। सन्नतिः शिरसा प्रणामः। आसनदानं पीठाद्युपनयनं। अनुप्रदानं च पुस्तकपिच्छिकाद्युपकरणदानं। क्रियाकर्म श्रुतभक्त्यादिपूर्वककायोत्सर्गः प्रतिरूपं यथायोग्यं, अथवा शरीरप्रतिरूपं कालप्रतिरूपं भावप्रतिरूपं च क्रियाकर्म शीतोष्णमूत्रपुरीषाद्यपनयनं। आसनपरित्यागो गुरोः पुरत उच्चस्थाने न स्थातव्यं। अनुव्रजनं प्रस्थितेन सह विंâचिद्गमनमिति। अभ्युत्थानमेकः सन्नर्तििद्वतीय आसनदानं तृतीयः अनुप्रदानं चतुर्थः प्रतिरूपक्रियाकर्म पंचमः आसनत्यागः षष्ठोऽनुव्रजनं सप्तमः प्रकारः कायिकविनयस्येति।।३८२।।
कायिक विनय के सात प्रकार को कहते हैं—
गाथार्थ — गुरुओ को आते हुए देखकर उठकर खड़े होना, उन्हें नमस्कार करना, आसन देना, उपकरणादि देना, भक्ति पाठ आदि पढ़कर वन्दना करना या उनके अनुकूल क्रिया करना, आसन को छोड़ देना और जाते समय उनके पीछे जाना ये सात भेदरूप कायिक विनय है।।३८२।।
आचारवृत्ति — अभ्युत्थान—गुरुओं को सामने आते हुए देखकर आदर से उठकर खड़े हो जाना। सन्नति—ाqशर से प्रणाम करना। आसनदान—पीठ, काष्ठासन, पाटा आदि देना। अनुप्रदान—पुस्तक, पिच्छिका आदि उपकरण देना। प्रतिरूप क्रियाकर्म— यथायोग्य श्रुतभक्ति आदिपूर्वक कायोत्सर्ग करके वन्दना करना अथवा गुरुओं के शरीर के प्रकृति के अनुरूप, काल के अनुरूप और भाव के अनुरूप सेवा-शुश्रूषा आदि क्रियाएँ करना; जैसे कि शीतकाल में उष्णकारी और उष्णकाल में शीतकारी आदि परिचर्या करना, अस्वस्थ अवस्था में उनके मल-मूत्रादि को दूर करना आदि। आसनत्याग—गुरु के सामने उच्चस्थान पर नहीं बैठना। अनुव्रजन—उनके प्रस्थान करने पर साथ-साथ कुछ दूर तक जाना। इस प्रकार से (१) अभ्युत्थान, (२) सन्नति, (३) आसनदान, (४) अनुप्रदान, (५) प्रतिरूपक्रियाकर्म, (६) आसनत्याग और (७) अनुव्रजन—ये सात प्रकार कायिक विनय के होते हैं।
वाचिकमानसिकविनयभेदानाह—

हिदमिदपरिमिदभासा अणुवीचीभाषणं च बोधव्वं।
अकुसलमणस्स रोधो कुसलमणपवत्तओ चेव।।३८३।।

हितभाषणं मितभाषणं परिमितभाषणमनुवीचिभाषणं च। हितं धर्मसंयुक्तं। मितमल्पाक्षरं बह्वर्थं। परिमितं कारणसहितं। अनुवीचीभाषणमागमाविरुद्धवचनं चेति चतुर्विधो वचनविनयो ज्ञातव्यः। तथाऽकुशलमनसो रोधः पापादानकारकचित्तनिरोधः। कुशलमनसो धर्मप्रवृत्तचित्तस्य प्रवर्तकश्चेति द्विविधो मनोविनय इति।।३८३।। स एवं द्विविधो विनयः साधुवर्गेण कस्य कर्तव्य इत्याशंकायामाह—

रादिणिए उगरादिणिएसु अ अज्जासु चेव गिहिवग्गे।
विणओ जहारिओ सो कायव्वो अप्पमत्तेण।।३८४।।

रादिणिए—रात्र्यधिके दीक्षागुरौ श्रुतगुरौ तपोधिके च। उणरादिणिएसु य—ऊनरात्रिकेषु च तपसा कनिष्ठेषु गुणकनिष्ठेषु वयसा कनिष्ठेसु च साधुषु। अज्जासु—र्आियकासु। गिहिवग्गे—गृहिवर्गे श्रावकलोके च। विनयो यथार्हो यथायोग्यः कर्तव्यः। अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन। साधूनां यो योग्यः आर्यिकाणां यो योग्यः, श्रावकाणां यो योग्यः, अन्येषामपि यो योग्यः स तथा कर्तव्यः, केन ? साधुवर्गेणाप्रमत्तेनात्म-तपोऽनुरूपेण प्रासुकद्रव्यादिभिः स्वशक्त्या चेति। किमर्थं विनयः क्रियते इत्याशंकायामाह—

वणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा।
विणओ सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं।।३८५।।

विनयेन विप्रहीणस्य विनयरहितस्य भवति शिक्षा श्रुताध्ययनं निर्रिथका विफला सर्वा सकला विनयः पुनः शिक्षा या विद्याध्ययनस्य फलं, विनयफलं सर्वकल्याणान्यभ्यु-दयनिःश्रेयससुखानि। अथवा स्वर्गावतरणजन्मनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणादीनि कल्याणादीनीति।।३८५।।
वाचिक और मानसिक विनय के भेदों को कहते हैं—
गाथार्थ — हितवचन, मितवचन, परिमितवचन और सूत्रानुसार वचन, इन्हें वाचिक विनय जानना चाहिए। अशुभ मन को रोकना और शुभ मन की प्रवृत्ति करना ये दो मानसिक विनय हैं।।३८३।।
आचारवृत्ति — हित भाषण—धर्मसंयुक्त वचन बोलना, मित भाषण—ाqजसमें अक्षर अल्प हों अर्थ बहुत हो ऐसे वचन बोलना, परिमित भाषण—कारण सहित वचन बोलना अर्थात् बिना प्रयोजन के नहीं बोलना, अनुवीचिभाषण—आगम से अविरुद्ध वचन बोलना, इस प्रकार से वचन विनय चार प्रकार का है। पाप आस्रव करने वाले अशुभ मन का रोकना अर्थात् मन में अशुभ विचार नहीं लाना तथा धर्म में चित्त को लगाना ये दो प्रकार का मनोविनय है। यह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप दोनों प्रकार का विनय साधुओं को किनके प्रति करना चाहिए ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं—
गाथार्थ — एक रात्रि भी अधिक गुरु में, दीक्षा में एक रात्रि न्यून भी मुनि में, आर्यिकाओं में और गृहस्थों में अप्रमादी मुनि को यथायोग्य यह विनय करना चाहिए।।३८४।।
आचारवृत्ति — जो दीक्षा में एक रात्रि भी बड़े हैं वे रात्र्यधिक गुरु हैं। यहाँ रात्र्यधिक शब्द से दीक्षा गुरु, श्रुतगुरु और तप में अपने से बड़े गुरुओं को लिया है। जो दीक्षा में एक रात्रि भी छोटे हैं वे ऊनरात्रिक कहलाते हैं। यहाँ पर ऊनरात्रिक से जो तप में कनिष्ठ—लघु हैं, गुणों में लघु हैं और आयु में लघु हैं उन साधुओं को लिया है। इस प्रकार से दीक्षा आदि बड़े गुरुओं में, अपने से छोटे मुनियों में, र्आियकाओं में और श्रावक वर्गों में प्रमादरहित मुनि को यथायोग्य विनय करना चाहिए अर्थात् साधुओं के जो योग्य हो, र्आियकाओं के जो योग्य हो, श्रावकों के जो योग्य हो और अन्यों के भी जो योग्य हो वैसा ही करना चाहिए। किसको ? प्रमादरहित हुए साधु को अपने तप अर्थात् अपने व्रतों के, अपने पद के अनुरूप ही प्रासुक द्रव्यादि के द्वारा अपनी शक्ति से उन सबका विनय करना चाहिए।
विशेष — यहाँ पर जो मुनियों द्वारा र्आियकाओं की और गृहस्थों की विनय का उपदेश है सो नमस्कार नहीं समझना, प्रत्युत् यथायोग्य शब्द से समझना कि मुनिगण र्आियकाओं का भी यथायोग्य आदर करें, श्रावकों का भी यथायोग्य आदर करें क्योंकि ‘यथायोग्य’ पद उनके अनुरूप अर्थात् पदस्थ के अनुकूल विनय का वाचक है। उससे आदर, सन्मान और बहुमान ही अर्थ सुघटित है।
विनय किसलिए किया जाता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं—
गाथार्थ — विनय से हीन हुए मनुष्य की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का फल सर्व कल्याण है।।३८५।।
आचारवृत्ति — विनय से रहित साधु का सम्पूर्ण श्रुत का अध्ययन निरर्थक है। विद्याअध्ययन का फल विनय है और अभ्युदय तथा निःश्रेयसरूप सर्व कल्याण को प्राप्त कर लेना विनय का फल है अथवा स्वर्गावतरण, जन्म, निष्क्रमण, केवलज्ञानोत्पत्ति और परिनिर्वाण ये पाँच कल्याणक आदि कल्याणों की प्राप्ति का होना भी विनय का फल है।
विनयस्तवमाह—

वणओ मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं।
विणएणाराहिज्जदि आइरिओ सव्वसंघो य।।३८६।।

विनयो मोक्षस्य द्वारं प्रवेशकः। विनयात्संयमः। विनयात्तपः। विनयाच्च ज्ञानं। भवतीति सम्बन्धः। विनयेन चाराध्यते आचार्यः सर्वसंघश्चापि।।३८६।।

आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्जंजा।
अज्जवमद्दवलाहवभत्तीपल्हादकरणं चं।।३८७।।