।। जैन मन्दिर ।।

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मन्दिर समवसरण के लघु संस्करण एव प्रतीक होते हैं। समवरण मे 12श्री मंडप और उनके मध्य मे गन्ध कुटी होती है, जिसके मध्य मे सिंहासन पर भगवान विराजमान होते हैं। समवसरण के द्वार पर धर्मच और उसके आगे मान स्तम्भ रहता है। यही रचना जिनालय मे रहती है। प्राचीन काल मे मन्दिर के साथ मान स्तम्भ रहता है। मन्दिर की बेदी के आगे के भाग मे धर्म चक्र का अंकन रहता है।

मन्दिरों की स्थापत्य संरचना और शैली मे देश और काल की विभिन्नता के कारण स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता है। उदाहरण के लिए मध्यप्रदेश के विन्ध्य विभाग वाले जैन मन्दिरो पर चन्देल कला का प्रभाव है। महाकौशल विभाग की जैनाश्रित कला कलचुरी कला से प्रभावित रही है, मध्य भारत सम्भाग पर परमारकला का प्रभाव अंकित है। महाराष्ट्र के जिनालयो मे कुछ जिनालय हेमाड़-पंथी शैली की अनुकृति पर निर्मित हुए है और दक्षिण के देवालयो पर होयकसल शैली का प्रभाव है। सामान्यतः जिनालय नागर शैली के है। यह पंचायतन शैली कहलाती है। इस शैली मे गर्भगृह, अन्तराल, प्रदक्षिणापथ, महामण्डप और अर्द्धमण्डप होते हैं। उत्तर और दक्षिण के प्राचीन जिनालय इसी पंचायतन शैली मे निर्मित होते थे। अनेक प्राचीन जैन मन्दिर की बाह्य भित्तियो पर लोक जीवन के सरस आह्लादकारी रूपो का भाव पूर्ण अंकन मिलता है। यहा तक कि मन्दिर की जंघा और रथिकाओ मे लोक जीवन के अतिरिक्त यक्ष-यक्षियों, तीर्थंकरो और मिथुन मूर्तियों की उत्कीर्ण किया गया है। अनेक मन्दिरों की शिखर-संयोजना मे वैविध्य के दर्शन होते हैं। शिखर की चूड़ा पर आमलक, स्तूपिता, कलश और बीज पूरक होते हैं।

साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार कर्म भूमि के प्रारंभ मे ही इन्द्र ने अयोध्या मे पांच जिनालयो का निर्माण किया था। पश्चात् सम्राट भरत ने 72 जिन मन्दिरो का निर्माण कराया था, किन्तु उनमे से वर्तमान मे एक भी मन्दिर उपलब्ध नही है। ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे प्राचीन जैन मन्दिर के चिन्ह बिहार मे पटना के लोहानी पुर मुहल्ले मे पाए जाते हैं। यहां एक जैन मन्दिर की नींव मिली है। पुरातत्वेत्ता इसे मौर्य काल की मानते हैं। इसके पश्चात् उदयगिरि-खण्डगिरी गुफा समूह के पास कुमारी पर्वत पर देव सभा के अवशेष मिलते हैं, जो सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित जिनालय के बताए जाते हैं। बिहार के पाकवीर आदि अनेक स्थानो पर भी प्राचीन जिनालयों के खण्डहर मिलते हैं। वैभाविगरि के ऊपरतो मन्दिर के 22 कमरेभू-गर्भ से निकले हैं। ये 7-8 वीं शताब्दी के माने जाते हैं। लगभग इसी काल का एक शिखरबद्ध मन्दिर के शोरायपाटन (राजस्थान) के चम्बल (चर्मण्यवती) नदी के तट पर अवस्थित है। इसके कुछ भाग का जीर्णो द्वार कर दिया गया है। पावागढ़ (गुजरात) मे भी एक मन्दिर तालाब के किनारे जीर्ण दशा में खड़ा है।

दसवीं शताब्दी के अनेक मन्दिर अब तक अपने मूल रूप् मे सुरक्षित मिलते हैं। खजुराहो, ग्यारसपुर, ऊन, श्रवण बेलागोला, कम्बड हल्ली, हलेविड, देवगढ़, कोल्हापुर, जिन्तूर, सिरपुर आदि स्थानो पर 10वीं शताब्दी के मन्दिर अपने समुन्नत शिल्प-वैभव के साथ खड़े हुए हैं। 11-12वीं शताब्दी के जैन मन्दिर तो देश के सभी भागो मे सैकड़ों की संख्या मे मिलते हैं।

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तलप्रकोष्ठ (भोंयरा), नन्दीश्वर जिनालय, सहस्त्र कूट जिनालय- ये सब जिनालय के ही रूप् है। आतताइयो से मूर्तियों की सुरक्षा के लिए भूमि के नीचे तल प्रकोष्ठ बनाए जाते थे, जहां वेदी बनाकर मूर्तियां विराजमान की जाती थी । नन्दीश्वर जिनालय मे चारो दिशाओ मे 13-13 मन्दिर (कुल 52 मन्दिर) बनाए जाते थे। अनेक स्थानो पर नन्दीश्वर जिनालयों की रचना की गयी हैे। अनेक स्थानो पर धातु के नन्दीश्वर जिनालय मिलते हैं। सहस्त्र कूट जिनालय में 1008 मूर्तियां होती हैं। वे या तो शिला फलक मे बनाई जाती है अथवा धातु की बनाई जाती हैं। पाषाण की अपेक्षा पीतल के सहस्त्र कूट जिनालय अधिक प्राप्त होते हैं।

जिनालय की रचना शैली मे मान स्तम्भ का भी प्रमुख स्थान है। संभवतः सबसे प्राचीन मान स्तम्भ ऊँ (उत्तर प्रदेश) का है, जो सम्राट समुद्रगुप्त के काल का है। सबसे सुन्दर और कला पूर्ण मान स्तम्भ चित्तौड़ दुर्ग का कीर्ति स्तम्भ है, जो अपने कला-वैशिष्ट्य के कारण संसार मे विख्या तळ। मान स्तम्भ के समान चैत्य स्तम्भो का भी प्रचलन रहा है। एक लघु स्तम्भ मे चारो दिशाओ मे तीर्थंकर-मूर्ति बनाई जाती थी। यही चैत्य स्तम्भ कहलाता था।

कुछ प्राचीन जैन मन्दिरो मे स्तूप और आयाग पट्ट भी मिलते हैै।

जैन परम्परा मे विहारो का ही प्रचलन था, जहां रहकर जैन मुनि ध्यान और अध्ययन करते थे। पहाड़ पुर (राजशाही जिला, बंगला देश) में खुदाई के फलस्वरूप एक जैन विहार निकला था। वहां प्राप्त ताम्रलेख (गुप्त संवत् 158-ई.स. 478) के अनुसार निग्र्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दि का यह बिहार एक हजार वर्ग गज मे फैला हुआ था। इस मे 175 से भी अधिक गुहा का रप्रकोष्ठ थे। मध्य मे स्वास्तिक के आकार का सर्वतोभद्र जिनालय था। यह तीन मंजिल का था। उसकी तीसरी मंजिल पर शिखर था। यह प्रथम ज्ञात मन्दिर है।