।। पात्रों के भेद ।।

पात्रों के भेद - जिसमें पात्रता होती है, उसे पात्र कहते हैं, अथव पर = पापों से त्रा = त्राता बनकर रक्षा करे। दूसरी प्रकार पा = पार करे त्र = त्रसित जनों को संसार से त्र तिरायें अतः संसार सागर से पार करने वाले दुःखों के हत्र्ता, आत्म रक्षकों को पात्र कहते हैं। पात्रों के सामान्यतया तीन भेद होते हैं -

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1. सत्पात्र

2. अपात्र

3. कुपात्र

1 सत्पात्र - सत् या समीचीनता से युक्त् (सम्यक्) दर्शनज्ञानचारित्र से युक्त, संसार शरीर भोगों से विरक्त, पापों से भयभीत, धर्म, धर्मात्मा, धर्म के फलों में हर्ष भाव को धारण करनेवाले स्वपर कल्याण में निरत, सच्चे देव शास्त्र गुरू के आज्ञानुवर्ती महानुभाव ही सत्पात्रया सुपात्र कहलाते हैं। कभी-कभी सत्पात्र को पात्र भी कह दिया जाता है। सत्पात्र ही समीचीन गुणों से युक्त ऐसे भाजन या नौका हैं जो स्वयं तिरते हैं एवं आश्रयवान/शरणार्थी को भी भवदधि पार कराते हैं।

2 अपात्र - अर्थ स्पष्ट ही है, जिनमें पात्रता नहीं होती वे अपात्र कहलाते हैं अर्थात जो रत्नत्रय से रहित, मिथ्या दर्शन, अज्ञान, मोह से संयुक्त, धर्म के प्रति उदासीन, निजात्म कल्याण से रहित भव भोगों में इन्द्रिय विषय कषायों में प्रवृत्तमान हो रहा है, वे सभी अपात्र कहलाते हैं। अपात्रों को दान देने से संसार सागर से पार नहीं हो सकते। किंचित पापास्रव ही होता है। अतः अपात्र-दान भववर्धक ही है जैसे- चिडि़यों को दाना डालना, चीटियों को आटा डालना, बंदरों को खिलाना, भिखारियों को दान देना, लोक व्यवहार में लौकिक कार्य हेतु दान देना, शाही विवाह में दान देना इत्यादि। यह दान फूटे बर्तन में पानी भरने की समान विशेषलाभदायक नहीं हैै।

3 कुपात्र - कु = खोटे, पात्र = भाजन

जैसे - अपवित्र बर्तन में पवित्र वस्तु रखने से वह वस्तु भी अपवित्र हो जाती है उसी प्रकार कुपात्र-दान प्रचुर मात्र में पापास्रव ही कराने वाला है। जो मिथ्यात्व, अज्ञानता, असंयम का पोषण करने वाले, हिंसा में धर्म मानने वाले, कुशील सेवन करने वाले, परिग्रह से सहित, पापों व इन्द्रियों के विषय में स्वये के प्रवृत्त होकर दूसरों को भी प्रवृत्त कराने वालें, कषायों की तीव्रता से युक्त, अभक्ष्य का सेवन कराने वाले, (कुदेव-कुधर्म-कुगुरू की प्रवृत्ति करने व कराने वाले, मद्य-मांस-मधु जैसे निंद्य पदार्थों का सेवन करने वाले, दूसरों के धन को दान में प्राप्त करके उससे पाप कर्म (जुआ खेलना, मांस खाना, शराब पीना, गरीबों पर अत्याचार करना, कुदेवाश्रय बनाना इत्यादि कार्यों) में रत रहते हैं, वे कुपात्र कहलाते हैं कुपात्रों की दान देने से प्रचुर मात्रा में पापासुव ही होता है। अनेकों ऋषि, मुनि, आचार्य-भगवंतों ने कहा है कि भले ही अपने धन को किसी कुंए में डाल देना किन्तु कुपात्रों को दान नहीं देना क्योंकि कुपात्रों को दान देने से वे जो भी पाप कार्य करेंगे उसका षडांश पाप दाता को भी लगेगा। यदि उत्तम सुपात्रों को दान दिया जाता है तो उसका षडांश पुण्य भी दाता को मिलता है।

सत्यात्रों के भेद - सत्पात्रों के सामान्यता तीन भेद होते हैं -

1. उत्तम पात्र,

2. मध्यम पात्र

3. जघन्य पात्र।

1 उत्तम पात्र - उत्तम या श्रेष्ठ पात्र वे कहलाते हैं जो विषय कषाय आरंभ परिग्रह से रहित होते हैं, ज्ञान ध्यान तप में लीन रहते हुए स्वपर कल्याण में संलग्न होते हैं वे सभी दिगम्बर संत उत्तम पात्र कहलाते हैं। इन उत्तम पात्रों के भी तीन भेद किये जा सकते हैं -

1 उत्तमोत्तम पा - 4 ज्ञान के धरी, (केवल ज्ञान रूपी ऋद्धि से रहित बाकी) 63 द्धदियों से सहित तीर्थंकर भगवान सर्वश्रेष्ठ/उत्तमोत्त्म/सर्वोत्कृष्ट पात्र हैं।

2 उत्तम मध्यम पात्र - 4 ज्ञान के धरी, (मति श्रुत अवधि मनः पर्यय ज्ञान) के धारी, यथासंभव ऋद्धियों से सहित गणधर परमेष्ठी, श्रेुत केवली इत्यादि वर्धमान चारित्र युक्त मुनिराज उत्तम मध्यम पात्र हैं।

3 उत्तमजघन्य पात्र - हीन संहनन से युक्त, उपशम क्षयोपशम सम्यक्त सहित, 28, 25, 36 मूलगुणों से युक्त, विषय, कषाय, अरंभ, परिग्रह से रहित, ज्ञान, ध्यान तप में लीन, वर्तमान कालीन आचार्य-उपध्याय-साधु परमेष्ठी उत्तम जघन्य पात्र हैं। कलिकाल में ये ही तीर्थंकर, श्रुत केवली या गणधर के समान पूज्य हैं। आज इस कलिकाल में साक्षात् तीर्थंकर, श्रुत केवली या गणधर के समान पूज्य हैं। आज इस कलिकाल में साक्षात् तीर्थंकर, गणधर, श्रुतकेवली या ऋद्धि सम्मपन्न द्धषियों का अभाव है अतः अपनी उत्कृष्ट भावनाओं से आज के यथार्थ संतों में ही उक्त कल्पना करके, उनकी पूजा, भक्ति उपासना करके आहारादि दान देकर सातिशय पुण्यार्जन करना चाहिए।

2. मध्यम पात्र - यम्यक् दर्शन, ज्ञान, देश चारित्र या उपचार से सकल चारित्र से युक्त, संसार शरीर भोगों से उदासीन, सम्यक् ज्ञान के अध्ययन व अध्यापन में निरत, धर्म-धर्म के फल में, एवं धर्मात्माओं में अनुरक्त, पंचपरमेष्ठी में आसक्त, 2 प्रतिमाधरी से आर्यिका जी तक सभी पात्र मध्यम पात्र कहलाते हैं। इन मध्यम पात्रों के भी तीन भेद किये जा सकते हैं -

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1. मध्यमोत्तम पात्र

2. मध्यम मध्यम पात्र

3. मध्यम जघन्य पात्र

1. मध्यमोत्तम पात्र - यथाशक्य 28 मूलगुणों (5 महाव्रत, 5 समिति, 5 इन्द्रिय निरोध, षड् आवश्यक व शेष गुणों) से सहित, उपचार, से महाव्रती,रत्नत्रय से संयुक्त, ज्ञान-ध्यान-तप में संलग्न, उत्तम क्षमा मार्दव, आर्जव, शौचादि भावों से सहित, विषय कषाय आरंभ परिग्रह, ईष्र्या, द्वेष, कलह, मात्सर्य आदि भावों से रहित, निज-पर कल्याण में तत्पर, सरलता, सहजता, वात्सल्य, ममता, एवं भद्रता की मूर्ति स्वरूप आर्यिकाएं मध्यमोत्तम पात्र हैं।

2. मध्यम मध्यम पात्र - सम्यक् दर्शन ज्ञान व देश चारित्र श्रावक के 2 व्रतों 5 अणुव्रत $ 4 शिक्षा व्रत $ गुणव्रत से सहित एवं 11 प्रतिमाओं दर्शन प्रतिमा, व्रतप्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधेपवास प्रतिमा, सचित्त त्याग प्रतिमा, रात्रि भुक्ति या दिवा मैथुन त्याग प्रतिमा, ब्रह्चर्य प्रतिमा, आरंभ त्याग प्रतिमा; परिग्रह त्याग प्रतिाम, अनुमति त्याग प्रतिमा, उदिृष्ट त्याग प्रतिमा का यथाशक्य निरातिचार पालन करने वाले, सरल हृदय, स्वपर हित में यथाशक्य अनुरक्त उत्कृष्ट श्रावक (ऐलक जी व क्षुल्लुक जी मध्यम मध्यम पात्र कहलाते हैं।

3. मध्यम जन्घय पात्र - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, देश चारित्र से युक्त (2 प्रतिमा से लेकर 10 प्रतिमा तक ) श्रावक के 12 व्रतों का व यथाशक्य 2 से 10 प्रतिमाओं का निरतिचार पालन करने वाला, संसार-शरीर-भोगों से विरक्त, पंचपरमेष्ठी का अनन्य भक्त, पापों से भयभीत, निजात्म कल्याण में परमासक्त, सुधी देशव्रती श्रावक श्राविकाएं मध्यम जघन्य पात्र हैं।

3. जघन्य पात्र - सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान से सहित चारित्र से रहित किन्तु संसार-शरीर-भोगों से विरक्त, वैराग्य से परिपूर्ण, चारित्र के लिए आतुर, षड् आवश्यक कत्र्तव्यों का पालन करने में संलग्न, पंच परमेष्ठी के परमोपासक, सच्चे देव, शास्त्र, गुरू व जिनधर्म के लिए सदैव प्राणपन्न से समर्पित सहने वाले संवेगी श्रावक जघन्य पात्र होते हैं।

इनके भी 3 भेद किये जा सकते हैं -

1 जघन्योत्तम पात्र - अष्ट अंगों से सहित, 25 दोषों से रहित, सम्यक्त्व का यथार्थ परिपालन करने वाले, सम्यक् ज्ञान के जिज्ञासु, देव-पूजा-गुरू उपासना आदि षडावश्यक कर्तव्यों में संलग्न, सम्यक् चारित्र को ग्रहण करने में आतुर, यथाशक्य देशव्रतों का परिपालन करने वाले, सप्त व्यसनों से रहित, अष्ट मूलगुणों से सहित श्रावक के 12 व्रतों के अभ्यासी, अभ्क्ष्य-अन्यय-अनीति के परित्यागी सुधी श्रावक जघन्योत्तम पात्र कहलाते हैं।

2 जघन्य मध्यम पात्र - भद्र परिणामी, मंद कषायवान, सम्यक्त्व सहित, सप्त व्यसन के त्यागी, अष्ट मूलगुणों से सहित, षड् आवश्यक कत्र्तवयों से संयुक्त, अभक्ष्य आदि के त्यागी संवेगी सुधी श्रावक जिनके लिए पंच परमेष्ठी ही शरणभूत हैं, वे सुधी श्रावक जघन्य मध्यम पात्र हैं।

3 जघन्य जघन्य पात्र - सच्चे देव-शास्त्र-जिनधर्म के दृढ़ श्रद्धानी, यथाशक्य जिनागमानुसार जैनत्व के आचारण से सहित, पंचपरमेष्ठी के उपासक, अभक्ष्य-अनीति, अन्याय के त्यागी, संतोषी भेद विज्ञानी सुधी श्रावक जघन्य जघन्य पात्र है। किन्हीं आचार्यों से सम्यक्त्व से रहित किन्तु व्रतों का पालन करने वाले पापों से विरक्त श्रावकों को भी जघन्य पात्रों में शामिल किया है।