कभी-कभी साधक पुरूष कुछ समय के लएि अथवा जीवन पर्यन्त के लिए आहार जल का त्याग कर देते हैं। वे साधक नव कोटि से, नवध भक्ति पूर्वक दिया गया आहार ही ग्रहण करते है अन्यथा ग्रहण नही करते हैं। आहार त्याग करने के निम्नांकित कारणहैं-
1. आंतक होने पर
2. उपसर्ग आने पर
3. ब्रह्चर्य व्रत की रक्षा हेतु
4. तप की वृद्धि के लिए
5. सन्यास के लिये।
1 आतंक होने पर - अकास्मिक कोई ऐसा रोग हो जाए जो कि मारणान्तिक पीड़ा देने वाला हो। आधि, व्याधि, महामारी, अकाल, व प्रलय काल आने पर साधक जन नियम पूर्वक निश्चित समय के लिए आहार का त्याग करके नियम सल्लेखना ग्रहण कर लेते है अर्थात जब तक उक्तरोगादि जन्य पीड़ा है तब तक के लिए आहार का त्याग। कषायों को शरीर को कृश करना एवं शरीर से ममत्व का त्याग करते हुए कार्योत्सर्ग मे संलग्न रहना नियम सल्लेखना कहलाता है।
2 उपसर्ग आने पर- पूर्वभव या इसीभव के बैरी देव, विद्याधर तिर्यञ्च या भूमिगोचरी या मनुष्यों द्वारा उपसर्ग किये जाने पर या अचेतन उपसर्ग होने पर जैसे-दीवाल का ऊपर गिर पड़ना, स्वयं जमीन पर पैर फिसलकर गिर पड़ना जिससे बचने की उम्मीद न हो। दाह, उक्लका पात, वज्र पात इत्यादि चेतना चेतन उपसर्गों के आने पर संयमी साधक-जन नियम सल्लेखना ग्रहण करते हुए आहार का त्याग कर देते हैं।
3 ब्रह्चर्य व्रत की रक्षा हेतु- आहार करने पर शरीर में सप्तधतु का निर्माण होता है। कभी-कभी गरिष्ठ या इष्ट आहार ग्रहण करने पर साधना के लिए आवश्यक शक्ति से भी अधिक शक्ति का संचय हो जाता है जिससे व्रतो मे निर्मलता न आकर व शक्ति प्रमाद, अति निद्रा, इन्द्रिय विषयो मे आसक्ति के परिणामों की एवं विकारोत्पादक हो जाती है, जिससे ब्रह्चर्य आदि व्रता का निरतिचार पालन नही हो पाता। अतः साधक पुरूष ब्रह्चर्यआदि व्रतो का निरतिचार परिपालन करने के उद्देश्य से वीर्य उध्र्वारोहण करने हेतु तप संयम व ध्यान सिद्धि के लिए भी आहार का त्याग कर देते हैं।
4 प्राणी दया हेतु- यदि आहार ग्रहण के प्रसंग मे जीव हिंसा का प्रसंग आता है कि मेरे निमित्त से यहां बहु जीवो का घत होगा सोचकर भी साधक महापुरूष आहार का त्याग कर देते है क्योंकि उनके लिए आहार से पहले संयम इष्अ है अतः जहां संयम की रक्षा आहार त्याग से होती है प्राणी दया हेतु भी साधु पुरूष आहार का परित्याग कर देते हैं।
5 तप की वृद्धि के लिए - 12 प्रकार के तपो में ‘अनशन’ नामक प्रथम बहिरंग तप है उसकी सिद्धि के लिए एव अन्य 11 तपों की वृद्धि के लिए भी साधक पुरूष आहार का त्याग कर देते हैं।
6 सन्यास के लिए - सन्यास काल के समय अर्थात् अति वृद्धत्व आने पर, जंघाबल घट जाने से जिससे उठने बैठने की शक्ति क्षीण हो गई हो, दुस्साध्य रोग से पीडि़त होने पर, इन्द्रियों की विकलता हो जाने पर, संयम की हानि का प्रसंग उपस्थित होने पर, षडावश्यक कत्र्तव्यों का पालन करने की सामथ्र्य न रहने पर, साधक पुरूष/मुनिजन-सन्यास/सल्लेखना को अंगीकार कर लेते हैं। उस समय वे मुनि पुंगव आहार का त्याग करके, कषाय व शरीर को कृश करते हुए शरीर का परित्याग करते हैं।
साधक पुरूष आहार शरीर को पुष्ट रखने के लिए, स्वाद के लिए, शरीर मे कांति लाने के लिए, आयु वृद्धि के लिए, दूसरो को सताने के लिए, बल प्राप्त करने हेतु नहीं अपितु सम्यग्ज्ञान की वृद्धि के लिए, संयम की निर्मलता के लिए, ध्यान सिद्धि के लिए, तपों की वृद्धि स्वरूप, इच्छा निरोध के लिए आहार ग्रहण करते हैं।