।। प्रतिमाधारियों का प्रतिक्रमण ।।

तीसरी प्रतिमा - 3
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हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। तीसरी सामायिक प्रतिमा पालन करने में यदि मैंने मन की स्थिरता न रखी हो, वचन की स्थिरता नरखी हो, शरीर की स्थिरता न रखी हो, सामायिक रखने में अनादर किया हो, सामायिक का पाठ विस्मरण किया हो अथवा उपयोग की असावधानी की हो इत्यादि अनेक प्रकार के दोष मैंने मन, वचन, काय से स्वयं किए हों अन्य से कराए हों, किसी अन्य के करने में अनुमति प्रदान की हो तो मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

चौथी प्रतिमा - 4

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापर्वूक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। चौथी प्रोषधप्रतिमा के व्रत पालन में दृष्टि के जीव जंतुओं को न देखकर और प्रमाद से जीव जंतुओं का शोधन किए बिना मन मूत्र का क्षेपण किया हो, पूजोपकरण आदि वस्तुओं को बिना देखे और बिना शोधे ऐसे ही सजीव जमीन में रखा हो, बिना देखे और तबिना शोधे उपकरण पुस्तक आदि संयमोपयोगी वस्तुओं का ग्रहण किया हो, बिना शोधे बिस्तर आदि बिछाये हों, षट्आवश्यक पालन में अनादर किया हो अथवा सामायिक पूजन, स्तवन आदि का पाठ विस्मरण किया हो इत्यादि अनेक दोष मैंने, मन वचन, काय से स्वयं किए हों, अन्य से कराए हों, व अन्य किसी के करने में अनुमति प्रदान की हो तो मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

पांचवी प्रतिमा - 5

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापर्वूक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। पांचवी सचित्तत्यागप्रतिमा के पालन में जल काय के संख्यात जीव, वायु काय के संख्यात, असंख्यात जीव, पृथ्वी काय के संख्यात असंख्यात जीव और वनस्पति काय के अनन्तानन्त जीव, हरित अंकुर, पुष्प, बीज, कंद, मूल आदि के जीव और साधारण वनस्पति के जीवों का मैंने छेदन किया हो, भेदन किया हो, प्राणों का धात किया हो, पांव आदि से कुचला हो, त्रास दिया हो, पीड़ा दी हो और उनकी विराधना की हो तथा सचिता का भक्षण इत्यादि अनेक दोष मैंने मन, वचन, काय से स्वयं किए हों, अन्य से कराए हों य किसी अनरू के करने में सहमति दी हो तो मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

छठवीं प्रतिमा -6

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। षष्ठी मैथुनत्यागनामक प्रतिमा के पालन में नव प्रकार स्त्रियों के विषय की अभिलाषा, लिंगविकार, घृत दुग्धादिपुष्ट रस का सेवन, स्त्री, पशु, नपुंशक बिट और सप्त व्यसनन के लोलुप मनुष्य के आश्रित वसतिका (घर) का उपयोग स्त्रियों के मनोहर अंगों का निरीक्षण, स्त्रियों की बुरी वासना, आद सत्कार, अपनी पूजा प्रतिष्ठा का श्रवण, अंगश्रंगार, नृत्य संगीत वादित्र आदि का दर्शन या श्रवण इत्यादि अनेक सदोष कार्य मैंने मन, वचन काय से स्वयं किए हों, अन्य से कराए हों, किसी अन्य के करने में भला माना हो, तो मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

सातवीं प्रतिमा - 7

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का अलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा के पालन में स्त्रियों की मनोहर कालोत्पादक कथा कही हो, कामदृष्टि से स्त्रियों के गुह्य मनोहर अंगो का निरीक्षण किया हो, पूर्वकाल में भोगे हुए विषयों का स्मरण कर मन को विकारित किया हो, कामोत्पादक पुष्ट रसों का सवेन किया हो, स्त्रियों को आसक्त करने वाला शरीर का श्रृंगार किया हो इत्यादि अनेक प्रकार के दोषआदि मैंने मन, वचन काय से स्वयं किए हों, अन्य से कारए हों, किसी अन्य के करने में सहमति प्रदान की हो, तो मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

आठवीं प्रतिमा - 8

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। आठवीं आरंभत्याग प्रतिमा के पालन में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह आदि कषायों के वश पापकर्मों का व्यापार, पानी भरना, रसोई बनाना, धुलाई इत्यादि आरंभ कार्य मैंने मन, वचन काय से स्वयं किया हों, अन्य से कराए हों, किसी अन्य के करने में अनुमति प्रदान की हो, तो मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

नवमीं प्रतिमा - 9

हे भगवन! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। यदि नवमीं परिग्रहत्यागप्रतिमा के पालन में कुछ वस्त्र मात्र परिग्रह के सिवाय अन्य धनादिपरिग्रह में मूच्र्छा की हो तोउस संबंधी मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से हुए मेरे वे सब दोष मिथ्या हों।

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दसवीं प्रतिमा - 10

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। दसवीं अनुमतिविरतिप्रतिमा के पालन में सांसारिक कार्यों में अन्य के पूछने पर अथवा बिना पूछे भी मैंने जो कुछ अनुमति दी हो तत्संबंधी मन, वचन काय और कृत, कारित अनुमोदना से हुए मेरे समस्त दोष मिथ्या हों।

ग्यारहवीं प्रतिमा - 11

हे भगवन्! मैं अपने व्रत में लगे हुए दोषों का आलोचनापूर्वक पश्चाताप ( प्रतिक्रमण ) करता हूं। ग्यारहवीं उद्दिष्टित्यागप्रतिमा के पालन में उद्दिष्टदोषदूषित आहारस्वयं सेवन किया हो, उद्दिष्टदोषदूषित आहर अन्य को कराया हो, अद्दिष्टिदोषदूषि आहार के करने में सम्मति प्रदान की हो, मुझसे तत्संबंधी जो दोष मन, वचन काय द्वारा हुए हों, मेरे वे समस्त दोष मिथ्या हों।

(नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)

क्षमा याचना
किया अपराध जो मैंनंे, तुम्हारे जान अन जाने।
क्षमा करना सभी मुझको, क्षमा करना सभी जन को।।
सभी संग मित्रता मेरे, किसी से बैर ना क्षण को।
यही हे भावना मेरी, जिनेश्वर हो कृपा तेरी।।
किया त्रियोग से छेदन, रहा हो भाव में वेदन।
उन्हीं को त्यागता हूं मैं, रहे जो भाव वह मुझ में।।
नैकभव वैर जो तुमसे रहा हो भाव दूषित से।
उदय बिना नाश हो जावे, दयामय भाव मम होवे।।
क्षमा करना, क्षमा करना न दिन में रोष को धरना।।
शुद्ध दिल से क्षमाता हूं, क्षमाभावों से झुकता हूं।।
क्षमा का सत्रोत बरसाओं, वीर का धर्म दरशाओं।
क्षमा भूक्षण गुणीजन का, कहे चुन्नी धरम जिनका।। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करना)
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