।। आओ पूजन करें ।।

कोष्ठस्थ-धान्यापममेकबीजं, संभिन्न-संश्रोतृपदानुसारि।
चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः स्वस्ति श्रियासुः परमर्षयो नः।।

अर्थ- कोष्ठस्थधान्योपम, एक बीज, संभिन्न संज्ञोतृ अैर पदानुसारित्व इन चार प्रकार की ब द्धि ऋद्धि को धारण करने वाले ऋषिराज हमारा मंगल करें।

संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन-घ्राण-विलोकनानि।
दिव्यान्मतिज्ञान-बलाद्वहन्तः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः।।

अर्थ-प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येक बुद्ध, अभिनन्नदशपूर्वी, प्रकृष्टवादी और अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता मुनिवर हमारा कल्याण करें।

जंघावलि-श्रेणिफलांबुतन्तु-प्रसून-बीजांकुर-चरणाह्ना।
नभोऽडगण-स्वैर-विहारिणश्च, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः।।

अर्थ-जंघा अग्निशिखा, श्रेणी, फल, जल, तुन्तु पुष्प बीज और अंकुर पर चलने वाले चारण ऋद्धि के धारक तथा आकाश में स्वच्छन्द विहार करने वाले मुनिवर हमारा कल्याण करें।

अणिम्नि दक्षाः कुशला महिन्मि, लघिन्मि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि।
मनो वपुर्वाग्बालिनश्च नित्यं, स्वास्ति क्रियासुः परमर्षयो नः।।

अर्थ-अणिमा, महिमा, लघिमा और गरिरमा ऋद्धि में कुशल मन, वचन और कायबल के धारक योगीश्वर हमारा कल्याण करें।

सकामरूपित्व-वशित्वमैश्यं,प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः।
तथाऽप्रतिघात-गुण-प्रधानाः,स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः।।

अर्थ-अणिमा, महिमा, लघिमा और गरिरमा ऋद्धि में कुशल मन, वचन और कायबल के धारक योगीश्वर हमारा कल्याण करें।

देव-शास्त्र-गुरू-पूजन

अब स्थापना करेंगे।

प्रथम देव अरहन्त सुश्रुत सिद्धांत जू।
गुरू निग्र्रंथ महन्त मुक्तिपुर जन्थ जू।।
तीन रतन जग मांहि सो ये भवि ध्याइए।
तिलनकी भक्तिप्रसाद परम पद पाइए।।

अर्थ-अरिहन्त देव, सिद्धांत शास्त्र और परिग्रह रहित गुरू पूजनीय और ये ही मोक्ष मार्ग हैं। संसार में जो भव्य पुरूष इन तीन रत्नों का ध्यान करते हैं, ेव देव-शास्त्र और गुरू की भक्ति के प्रसाद से उत्तम पद पा जाते हैं।

दोहा- पूजों पद अरहन्त के, पूजों गुरूपद सार।
पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार।।

अर्थ- मैं प्रतिदिन अष्ट विधि से अरिहन्त भगवान के चरणों की पूजा करता हूं, फिर सार भूत गुरूचरणों की पूजा करता हूं, फिर देवी सरस्वती अर्थात मां जिनवाणी की पूजा-अर्चना करता हूं।

दोहा- पूजों पद अरहन्त के, पूजों गुरूपद सार।
पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति अष्टप्रकार।।

मन्त्र-

(1) ऊँ ह्नीं देवशास्त्र-गुरू-समूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नननम्।

(2) ऊँ ह्नीं देवशास्त्र-गुरू-समूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठः ठः स्थापनम्।

(3) ऊँ ह्नीं देवशास्त्र-गुरू-समूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।

अर्थ-

(1) ऊँ ह्नीं श्री देव-शास्त्र-गुरू यहां आइए, आइए, (यह आह्नान है)।

(2) ऊँ ह्नीं श्री देव-शास्त्र-गुरू यहां विराजिए (यह स्थापना है)।

(3) ऊँ ह्नीं श्री देव-शास्त्र-गुरू यहां मेरे पास विराजिए, विराजिए (यह सन्निधिकरणम्)।

जल

सुरपति उरग नर नाथ तिनकर वन्द नीक सुप्रदप्रभा।
अति शोभनीय सुवरण उज्ज्वल देख छवि मोहित सभा।।
वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं।
अरहन्त श्रुत-सिद्धांत-गुरू-निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।

अर्थ-हे भगवान्! इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आपके चरणों में मस्तक नमाते हैं। इसलिए आपके चरण निर्मल सुवर्ण के समान शोभायमान मालूम पड़ते है। इनकी कांति को देखकर समवसरण की सभाएं मोहित हो जाती हैं। मैं क्षीर समुद्र के पवित्र जल का घड़ा भरकर आपके सामने नाचता हूं तथा जल चढ़ात हूं। इस प्रकार देव-शास़्-गुरू की प्रतिदिन पूजा करता हूं।

दोहा- मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मलछीन।
जासों पूजौं परमपद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।

अर्थ-जल पदार्थों के मैल को दूर करता है क्योंकि मैल दूर करना जल का स्वभाव है। इसलिए भगवान पूजनीय देव-शास्त्र-गुरू तीनों की जल से पूजा करता हूं।

जल कैसे चढ़ाएं ?

जल के कलश से तीन धाराएं चढ़ाने वाले खाली कलश में निम्न मन्त्र पढ़कर छोडें-

मन्त्र-ऊँ ह्नीं श्री देवशास्त्रगुरूभ्यो जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थ-ऊँ ह्नीं श्री देव-शास्त्र-गुरू को जन्म, बुढापा और मरण का नाश करने के लिए जल चढ़ाता हूं।

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