।। आओ पूजन करें ।।
अघ्र्य

जल परम उज्ज्वल गन्ध अक्षत पुष्प चरू दीपक धरूं।
वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरूं।
इति भांति अर्घ चढ़ाय नित भव करत शिव पंकति मचूं।
अरहन्त श्रुत-सिद्धांत-गुरू निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।

अर्थ- हे परमात्मन्! स्वच्छ जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप ओर अनेक प्रकार के उत्तम फल चढ़ाकर अनेक जन्मों के कर्मों को दूर करूं। इस प्रकार अघ्र्य चढ़ाकर मोक्ष प्राप्त करूं। इसलिए प्रतिदिन देव-शास्त्र-गुरू की पूजा करता हूं।

दोहा- वसुविधि अर्घ संजोय के अति उछाह मन कीन।
जासों पूजौं परम पद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।

अर्थ-जल-फलादि आठों द्रव्यों से अघ्र्य को संजोकर और हृदय में प्रसन्नता रखकर देव-शास्त्र और गुरू की पूजा करता हूं।

अघ्र्य कैसे चढ़ाएं?

फल की तरह ही प्लेट में आठों द्रव्यों के मिश्रण अघ्ज्र्ञ को रखकर चढ़ाएं।

मन्त्र- ऊँ ह्नीं देवशास्त्र गुरूभ्यऽर्नघ्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थ- देव-शास्त्र-गुरू को अमूल्यपद (मोक्ष पद) प्राप्त करने के लिए अघ्र्य चढ़ाता हूं।

जयमाला

देव, शास्त्र और गुरू तीनों आदर करने योग्य तीन रत्न हैं। इनसे आत्मा का कल्याण करने वाले सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीन रत्न उत्पन्न होते हैं इसलिए संक्षेप से इनके अलग-अलग गुणों का वर्णन करता हूं। कहने में शब्द थोडे हैं लेकिन उनमें अलग-अलग गुण भरे हुए हैं।

मन्त्र- कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोष राशि।
जे परम सुगुण हैं अनन्त धीर, कहवल के छयालिस गुणगम्भीर।।

हे देव! घातिया कर्म की 47 और अघातिया कर्मों की 16 प्रकृतियां मिलाकर 63 प्रकृतियों का नाश कर आपने जन्म, जरा आदि अठारह दोषों को जीत लिया है। कहने के लिए आपके 46 गुण हैं। लेकिन आप में अनन्त गुण विद्यमान हैं।

प्रश्न- कर्मों की 63 प्रकृति कौन-सी हैं?

(ज्ञानावरण 5$दर्शनावरण 9$मोहनीय 28$अन्तराय 5) 47 घातिया कर्म की प्रकृतियां $16 अघातिया कर्म की प्रकृति नरकगति, तिर्यंचगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियार्टि 4 जातियां, अद्योत, आतप, साधारण, सूक्ष्म, स्थावर, नरकायु, तिर्थंचायु य देवायु = 63

शुभसमवसरण शोभा अपार, शत इन्द्र नमत कर शीश धार।
देवाधि देव अरहन्त देव, वन्दौ मन-वच-तन करि सुसेव।।
जिनकी ध्वनि है औंकार रूप, निअक्षरमय महिमा अनूप।
दस अष्ट महा भाषा समेत, लघु भाषा सात शतक सुचेत।।

अर्थ-आपका समवसरण बहुत शोभायमान है। आपको सौ इन्द्र नमस्कार करते हैं। इसलिए हे देवों के देव! अरिहंत देव! मन, वचन और काय से सेवा करके मैं आपको नमस्कार करता हूं।

अरिहनत भगवान की दिव्य ध्वनि ऊँकार स्वरूप है। इसमें अक्षर नहीं होते हैं फिर भी इनका अनुपम महत्व होता है। दिव्यध्वनि में 18 महाभाषाएं और 700 लघु भाषाएं गर्भित समझनी चाहिए। अर्थात उस दिव्य ध्वनि का परिणमन इन भाषाओं में होता है।

सो स्याद्वादमय सप्त भंग, गणधर, गूंथे बारह सुअंग।
रवि शशि न हरे सो म हराय, सो शास्त्र नमों बहु प्रीतिल्याय।।

अर्थ-हे भगवान! वह आपकी ओंकार रूपी दिव्यध्वनि स्याद्वाद स्वरूप (सात भंग वाली) है। इसे गणधरों ने आचारांग आदि 12 अंगों में रचा है। जो अंधकार (अज्ञानान्धकार) शास्त्र को बहुत प्रसन्नतापूर्वक प्रीतिपूर्वक नमस्कार करता हूं।

गुरू आचारज उवझाय साध, तन नगन रतनत्रय-निधि आगाध।
संसार देह वैराग्यधार निरवांछि तपैं शिवपद निहार।।

अर्थ-आचार्य,उपाध्याय, साधु ये तीन गुरू हैं इनका शरीर नग्न रहता है। किंतु ये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप रत्नों के अथाह समुद्र के समान हैं, अर्थात तीनों गुरू रत्नत्रय धारण करते हैं। इसलिए संसार और शरीर से वैराग्य धारण कर संसार के विषय-भोगों की इच्छा नहीं रखते हुए मोक्ष का लक्ष्य कर तपस्या करते हैं (यहां तन नग्न से बाहृ परिग्रह और वैराग्य से अंतरंग परिग्रह बताया गया है)। आचार्य, उपाध्याय व साधु दोनों प्रकार के परिग्रहों को छोड़कर मोक्ष का ध्यान रखकर तप करते हैं।

गुण छत्तीस पच्चिस आठ बीस, भव-तारण-तरण जहाज ईश।
गुरू की महिमा वरणी न जाय, गुरूनाम जपों मन-वचन-काय।।

अर्थ-आचार्य के 36, उपाध्याय के 25 और साधु के 28 मूल गुण होते हैं। हे गुरूदेव! आप संसार से तरने और तारने के लिए जहाज के समान हैं। गुरू की महिमा का वर्णन नहीं हो सकता इसलिए मन, वचन, काय से सदा गुरूओं का नाम जपता हूं, उन्हीं का ध्यान करता हूं।

सोरठा- कीजै शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै।
द्यानत सरधावान, अजर अमर पद भोगवै।।

अर्थ-अपनी शक्ति के अनुसार देव-शास्त्र-गुरू की पूजन, भक्ति, ध्यान और जाप करनी चाहिए। यदि शक्ति न हो तो श्रद्धा रखने वाला भी जरा (बुढ़ापा) और मरण आदि दोष रहित मोक्ष को प्राप्त करता है।

मन्त्र- ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यः महाघ्र्यम् निर्वपामीति स्वाहा।

अर्थ-देव, शास्त्र और गुरू को महाघ्र्य चढ़ाता हूं।

अघ्यविली

बीस तीर्थंकर का अघ्र्य

जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी हैं,

गणधर इन्द्रनहूतें थुति पूरी न करी है।

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