निर्वपामीति-सम्पूर्ण रूप से समर्पित करना अर्थात मन, वचन, काय से अष्ट द्रव्य चढ़ाना समर्पित करना।
इसका अभिप्राय हैं कि पूजनक अपने दुष्कर्मों का (जिनसे संसार बढ़ता है) समूल क्षय (नष्ट) करने के लिए मन, वचन, काय पूर्वक (सम्पूर्ण रूप से) अष्ट द्रव्य समर्पित करता है।
शब्द व्युत्पत्ति निर्वपामीति = निःशेष्$अमि$इति।
निः = निःशेष, सम्पूर्ण रूप से कि और शेष न रहे। (समाप्त हो जोने तक
वप् = समर्पण करना, चढ़ाना।
आमि = मैं। (वर्तमान का उत्तम पुरूष का एकवचन प्रत्यय)
इति = क्रिया की पूर्णता।
स्वाहा- पापनाशक, मंगलकारक, आत्मा की आंतरिक शांति उद्घाटित करने वाला। इन बीजाक्षरों के माध्यम से अष्ट द्रव्य चढ़ाते समय यह भाव रहे कि जिन कर्मों को नष्ट करने के लिए हम यह द्रव्य समर्पित कर रहे हैं, वह कर्म मेरे जीवन में शेष ही न रहे, समूल नष्ट करने की शक्ति उद्घाटित हो जाए, मैं यह द्रव्य सम्पूर्ण रूप से समर्पित करता हूं।
इस अभिप्राय है हम संकल्प करें कि अपने जीवन से इन अशुभकर्मों को जो संसार परिभ्रमण कराते हैं, नष्ट कर देंगे इनको चढ़ाने वाले कार्य नहीं करेंगे।
जे त्रिजग उदर मंझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे। तिन अहित-हरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे।। तसु भ्रमर-लोभित घ्राण-पावन सरस चन्दन घसि सचूं। अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरू निरग्रन्थ नित पूजा रचूं।।
अर्थ- हे भगवान्! तीनों लोकों के जीव संसार के दुखों से बहुत अधिक दु$खी हैं जैसे बड़े भारी गड्ढे में आग लगी हो और इसमें रहने वाले अथवा आ गिरने वाले जीव दुाी होती हैं। ऐसे संसारियों के दुख दूर करने के लिए हे जिनेन्द्र देव! आपका उपदेश शांति उत्पन्न करने वाला है। इसलिए मेरा संसार का दुख शांत हो जाए। इस प्रकार देव-शास्त्र-गुरू की प्रतिदिन पूजा करता हूं।
दोहा- चन्दन शीतलता करे तपत वस्तु परवीन। जासौं पूजौं परमपद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।
अर्थ- तपी हुई चीज को शीतल (ठण्डा) करने के लिए चन्दन ही समर्थ है। इसलिए देवशास्त्र और गुरू की पूजा करता हूं।
अपने हाथों की अनामिका अंगुली में चन्दन लेकर चढ़ाएं या फिर चन्दन का घोल हो तो चन्दन के कलश में तीन धारा चढ़ाने वाले खाली कलश में छोड़ें।
मन्त्र-ऊँ ह्नीं देवशास्त्र गुरूभ्यः संसारताप विनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा।
अर्थ-पंच परमेष्ठी और तीर्थकर स्वरूपद ेव-शास्त्र को संसार का दुख-दर्द दूर करने के लिए चन्दन चढ़ाता हूं।
यह भव समुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई। अतिदृढ़ परमपावन जयारथ भक्तिवर नौका सही।। उज्ज्वल अखण्डित शालि तन्दुल पुंज धरि त्रयगुण जचूं। अरहन्त श्रुत-सिद्धांत-गुरू-निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।
अर्थ-हे जिनेन्द्र देव! यह संसार रूपी समुद्र अपार है इससे पार होने के लिए आपकी परम पवित्र सच्ची भक्तिरूपी मजबूत नाव हो समर्थ है। यह हमें पूरा विश्वास है। इसलिए ताजे और स्वच्छ शालिधान के तन्दुल के पुंज चढ़ाकर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चरित्र तीन गुणों की याचना करता हूं। इस प्रकार देव-शास्त्र-गुरू की प्रतिदिन पूजा करता हूं।
दोहा- तन्दुल शालि सुगंध अति, परम अखण्डित बीन। जासौं पूजों परम पद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।
अर्थ-शालि धान्य के सुगंधित एवं अखण्डित तन्दुलों को बीनकर देव-शास्त्र-गुरू तीनों की पूजा करता हूं।
अपनी दोनों मुट्ठी में अक्षत (सफेद चावल) भर लें एवं अंगूठा अंदर करके धीरे-धरीे मुट्ठी ढीली करके अक्षत छोड़ते जाएं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीतिस्वाहा।
अर्थ-पंच परमेष्ठी ओर तीर्थंकर स्वरूपद ेव-शास्त्र-गुरू को अक्षय पद प्राप्त करने के लिए अक्षत चढ़ाता हूं।
जे विनयवन्त सुभव्य-उर-अम्बुज-प्रकाशन भान हैं। जे एक मुख चारित्र भाषत, त्रिजग मांहि प्रधान हैं।। लहि कुन्द कमलादिक पहुप, भव भव कुवेदन सों बचूं। अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरू-निग्र्रन्थ नित पूजा रचूं।।
अर्थ- हे जिनेन्द्र देव! आप विनयवान भव्य जीवों के मन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान हैं। जैसे सूर्य उदय होने पर कमल खिलते हैं वैसे ही आप भव्यों को प्रसन्न करने वाले हैं। हे देव! आप तीन लोक में प्रधान हैं। इसलिए, कुन्द, कमल आदि फूलों को लेकर अनेक जन्म के काम विकार के कष्टों से बचने के लिए प्रतिदिन देव-शस्त्र-गुरू की पूजा करता हूं।
दोहा- विविध भांति परिमल सुमन, भ्रमर जास आधीन। जासों पूजौं परम पद, देव-शास्त्र-गुरू तीन।।
अर्थ- विविध रंगों के फूल, जिनके भौरें भी अधीन हैं, ऐसे फूलों से पूज्य देव-शास्त्र-गुरू की पूजा करता हूं।
मन्त्र- ऊँ ह्नीं देवशास्त्रगुरूभ्यों कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।