।। आष्टाहिृका पर्व ।।

अष्टमी तिथि को दिन में नन्दीश्वर द्वीप का मण्डल मांडकर अष्टद्रव्यों से पूजा की जाती है। पूजा पाठ के अनन्तर नन्दीश्वर व्रत की कथा पढ़नी चाहिए।

‘ऊँ हृीं नन्दीश्वर द्वीपजिनालयस्थ जिनबिम्बेभ्यों नमः’ इस मंत्र का 108 बार जाप करना चाहिए। नवमी को ऊँ हृीं अष्टमहाविभूति संज्ञायै नमः’ इस महामंत्र का जाप, दशमी को ‘ऊँ हृीं त्रिलोक सागर संज्ञायै नमः’ इस महामंत्र का जाप, दशमी को ‘ ऊँ हृीं चतुर्मुख संज्ञायै नमः’ मंत्र का जाप, एकादशी को ‘ओ हृीं चतुर्मुख संज्ञायै नमः’ मंत्र का जाप, त्रयोदशी को ‘ऊँ हृ स्वर्गसोपान संज्ञायै नमः’ मंत्र का जाप, चतुर्दशी को ‘ ऊँ हृीं सिद्धचक्राय नमः ’ मंत्र का जाप एवं पूर्णमासी को ‘ ऊँ हृीं इन्द्रध्वज संज्ञायै नमः ’मंत्र का जाप करना चाहिए।

व्रत की प्रारणा और समाप्ति के दिन णमोकार मंत्र का जाप करना चाहिए। ब्रत समाप्ति के दिन निम्नलिखित संकल्प पढ़कर सुपाड़ी, पैसा या नारियल चढाकर भगवान को नमस्कार कर घर आना चाहिए-

‘ओं आद्यानाम् आद्ये जम्बूद्वीप भरतक्षेत्रे शुभे श्रावणमासे कृष्ण पक्षे अद्य प्रतिपदायां श्री
मदर्हत्प्रतिमासन्निधौ पूर्व यद्व्रतं गृहीतं तस्य परिसमाप्ति करिष्ये - अहम्। प्रमादाज्ञानवशात् व्रते
जायमानदोषाः शांतिमुपयातु - ओं हृी क्ष्वी स्वाहा। श्री मज्जिनेन्द्रचरणेषु आनन्दभक्तिः सदास्तु, समाधिमरण भवतु,
पापविनाशनं भवतु - ओं हृीं असि आ उ सा य नमः। सर्वशान्तिर्भवतु स्वाहा।

अष्टाह्लिका पर्व की कथा

अष्टाह्लिका व्रत का अत्यधिक महत्व है। इस व्रत का आचरण कर मैनासुन्दरी ने अपने पति राजा श्रीपाल का कोढ दूर किया था। अनन्तवीर्य और अपराजित इस व्रत को कर क्रमशः चक्रवर्ती के सेनापति हुए। जयकुमर इस व्रत के प्रभाव से मनः पर्ययज्ञानी होकर तीर्थकर ऋषभदेव का गणधर हुआ तथा सुलोचना भी इस व्रत के प्रभाव से आर्यिता व्रत धारणकर स्त्रीलिंग छेदकर स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुई। इसकी सुप्रसिद्ध कथा यह है -

जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड में अयोध्या नगरी में हरिषेण चक्रवर्ती राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम गन्धर्वसेना था। एक बार वह वसंत ऋतु में नागरिकों तथा अपनी 96 हजार रानियों सहित वनक्रीडा के लिए गया। वहां उसने एक सान पर महान तपस्वी अरिंजय और अमितंजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों को देखा। भक्तिसहित उसने उनकी वंदना की और धर्म का स्वरूप पूछा। धर्म का स्वरूप सुनकर राजा अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने पूछा- मैंने कौन सा ऐसा पुण्य किया है, जिससे इतनी बड़ी विभूति मुझे प्राप्त हुई है?

मुनिराज ने कहा- इसी अयोध्या नगरी में कुबेरदत्त नामक वैश्य और उसकी पत्नी सुन्दरी के श्रीवर्मा, जयकीर्ति और जयवर्मा, ये तीन पुत्र थे। एक बार श्रीवर्मा ने एक दिगम्बर मुनिराज से नन्दीश्वर व्रत लिया तथा उसका यथाविधि पालन किया। आयु के अंत में सन्यासपूर्वक मरण कर वह स्वर्ग में महान ऋद्धिवाला देव हुआ। स्वर्ग की आयु पूर्णकर तू हरिषेण नामक चक्रवर्ती हुआ है। उसी व्रत के प्रभाव से तुम्हारे यह चक्रवर्ती की सम्पदा है। तुम्हारे पूर्वजन्म के भाई जयकीर्ति और जयवर्मा भी उसी व्रत के प्रभाव से स्वर्ग में द्धद्धिधारी देव हुए । वहां आयु पूर्ण कर वे जय नामक पुत्र हुए। ये दोनों अरिंजय और अमितंजय हम ही हैं। मुनिराज के उपदेश से हरिषेण ने पुनः उसी व्रत का विधिपूर्वक आचरण किया तथा अंत में संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होकर जिनदीक्षा ले ली। अंत में घाति, अघाति कर्मों का विनाश कर निर्वाण प्राप्त किया।