।। महावीर जयन्ती ।।

आचार्य समन्तभद्र ने भगवान् के तीर्थ को सर्वोदयतीर्थ कहा है। व्यष्टि के हित के साथ-साथ महावरी के उपदेश में समष्टि के हित की बात निहित थी। उनका उपदेश मानवमात्र के लिए ही सीमित नहीं था, बल्कि प्राणिमात्र के हित की भवना उसमें निहित थी। महावीर श्रमण परम्परा के उन व्यक्तियों में से एक थे, जिन्होंने वह उद्घोष किया था कि प्राणीमात्र एक समान है? स्वर्ग के अधिपति इन्द्र और क्षुद्र कीट पतंग में आत्मा के अस्तित्व की अपेक्षा कोई अंतर नहीं। उस समय जब कि मनुष्य-मनुष्य के बीच में दीवालें खडी ही रहीं थीं, किसी वर्ण के व्यक्ति को ऊंचा और किसी को नीचा बतलाकर एक वर्गविशेष का स्वत्वाधिकार कायम किया जा रहा था उस समय मानवमात्र क्या प्राणिमात्र के प्रति समत्वभाव का उद्घोष करना बहुत बडे साहस की बात थी। तत्कालीन अन्य परम्परा के लोगों द्वारा इसका घोर विरोध हुआ। अंत में सत्य की विजय हुई करोडों-करोडों पशुओं और दीनदुःखियों ने चैन की सांस ली। धर्म ने अहिंसात्मक रूप लेना शुरू किया। लोगों के बीच यह ध्वनि सुनाई पड़ने लगी-


धम्मो मंगलमुक्किट्ठं अहिंसा संजमो तवो।
देवा वितं नमस्सन्ति जस्स धम्मे सया गणो।।-दशवैकालिक 1/1

धर्म सर्वश्रेष्ठ मंगल है। धर्म का अर्थ है- अहिंसा, संयम और तप जिसका मन सदा धर्म में लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।


सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला।
अपियवहा पियजी विणो जीविउ कामा।।
सव्वेसि जीवियं पियं।।-आचारांग 2/3/81

सभी प्राणियों को आयु प्रिय है। सभी सुख पसंद करते हैं, दुःख से घबड़ाते हैं, बध नहीं चाहते हैं, जीने की इच्छा करते हैं, सबको अपना जीवन प्यारा है।

महावीर ने सृष्टिकर्ता ईश्वर का विरोध कर नारा बुलंद किया कि प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकता है। कर्मों के कारण आत्मा का असली स्वरूप अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। कर्मों को नाशकर शुद्ध, बुद्ध, निरंजन और सुखरूप स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है। लोक छहद्रव्यों से बना है। ये छह द्रव्य शाश्वत है। इन द्रव्यों में यद्यपि उत्पाद (उत्पत्ति) और व्यय (विनाश) होता रहता है, तथापि ये अपनी मौलिकता को सुरक्षित रखते हैं। प्रत्येक आत्मा अपने में पूर्ण स्वतंत्र है, यह किसी ईश्वर का अंश नहीं हैं। अपने पुरूषार्थ के बल पर यह कर्मों के बंधन से मुक्त हो सकती है।

तेईसवें तीर्थकर पाश्र्वनाथ ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार धर्मों का उपदेश दिया था, जिसे चातुर्याम धर्म कहते है। स्त्री को परिग्रह के अंतर्गत ब्रह्मचार्य धर्म को माना था। बाद में भगवान पाश्र्वनाथ के मूल मन्तव्य पर ध्यान न देकर लोग शिथिलाचारी हो गये। कुछ लोग कहने लगे कि पाश्र्वनाथ ने ब्रह्मचर्य का उपदेश नहीं दिया। इस प्रकार के शिथिलाचार से बचने के लिए महावीर ने पांच व्रतों अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का उपदेश दिया। भगवान का अहिंसा धर्म जितना सूक्ष्म था, उतने ही अन्य धर्म भी सूक्ष्म थे। उदाहरणतः उन्होंने पदार्थों को परिग्रह न बतनालकर मूच्र्छा (आसक्ति) की परिग्रह बतलाया। जितने अंश तक रोग है, उतने अंश तक बंधन है और जितने अंश तक राग का अभाव है, उतने अंश तक मुक्ति है। ‘सव्वे कामा दुहावहा’ समस्त काभोग दुःखदायी है, जो काम (विषयभोग) से मुक्त है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है-


‘‘कामनियत्तमई खलु संसारा मुच्चई खिप्पं।’’महावरी ने अंतर्मुखी होने पर बल दिया। उनके अनुसार-
‘‘जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स’’जो अपनी आत्मा का ध्यान करता है, उसे परमसमाधि (मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
छिंदंति भावसमणा झाणकुठारेहिं भयक्खं। जो भाव से श्रमण हैं, वे ध्यान रूप कुठार से संसार रूपी वृक्ष को काट डालते है।
जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जाए जिणे।
एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ।।

जो वीर दुर्जय संग्राम में लाखों योद्धाओं को जीतता है, यदि वह एक अपनी आत्मा को जीत ले तो यह उसकी परमविजय है।


अप्पत कत्ता विकता य दुहाण य सुहाण य।
अप्प मित्तममित्तं च दुप्पट्ठिअ सुप्पट्ठिओ।।

आत्मा ही अपने सुख दुःख का कत्र्ता तथा भोक्ता है। अच्छे मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और बुरे मार्ग पर चलने वाला शत्रु है।

आचार के क्षेत्र में अहिंसा सर्वोपरि है, उसी प्रकार विचार के क्षेत्र में अनेकांत। वस्तु का जिस प्रकार मैं वर्णन कर रहा हूं, वहीं सही नहीं है। इसका दूसरा पहलू भी सही हो सकता है। मिन्न मिन्न अपेक्षाओं से वस्तु का निरूपण भिन्न-भिन्न प्रकार का हो सकता है। राम यदि अपने पिता की अपेक्षा पुत्र है तो अपने पुत्र की अपेक्षा पिता तथा भाई की अपेक्षा भाई है। इस प्रकार अपेक्षा भेद से वस्तु का वर्ण अपने प्रकार से किया जा सकता है। इस प्रकार ‘ही’ के हठाग्रह से हटाकर ‘भी’ के उदार दृष्टिकोण की ओर ले जाने वाली अनेकांत दृष्टि ने वेचारिक क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तनावों को दूर कर समन्वय का पाठ पढाया। इस प्रकार तीस वर्ष तक तत्व का भली भांति प्रचार करते हुए भगवान महावीर अंतिम समय भल्लों की राजधानी पावा पहुंचे। वहां के उपवन में 72 वर्ष की आयु में कार्तिक कृष्णा अमावस्या मंगलवार, 15 अक्टूबर, 527 ई.पू. को उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। हस्तिपाल आदि 18 गणराज्यों के प्रमुख गणनायकों ने सम्मिलित होकर दीपकों के प्रकाश से आकाश को जगमगाकर निर्वाणोत्सव मनाया। उस दिन की स्मृति में हमारे देश में आज भी दीपावली का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।