।। षष्ठ आवश्यक कर्म: दान ।।

दान-पात्र
दान-पात्र को दीजिये, करके कुछ पहचान।
बिना पात्र का दान जो, ना फल देय महान।।49।।

यहां पात्र, दान देने योग्य कौन हैं और उनके कितने भेद हैं, यह समझना अनिवार्य हैं क्योंकि जिस प्रकार उत्तम खेत में बोया हुआ बीज ही सही रूप से फलदायी हो सकता है, ऊसर जमीन में बोया हुआ बीज फलीभूत नहीं हो सकता है, वह तो मात्र बीज को फेंकना ही है। इसी प्रकार पात्र को दिया दान भी फलदायी, मुक्तिपथ की ओर ले जाने वाला होता है,े अपात्र को दिया हुआ दान निष्फल ही है, अगर फल देगा तो खोटा।

पात्र-भेद

आचार्यों ने दान देने योग्य कुल तीन पात्र बताये हैं। पात्रों के वैसे कई भेद हैं-पात्र, कुपात्र अपात्रादि। यहां पात्रों का ही स्वरूप बताया जा रहा है। पात्रों का स्वरूप बताते हुए आचार्यों ने इस प्रकार लिखा है-

उत्कृष्ट-पात्र-मनगारमणुव्रताढ्यं,
मध्यं व्रतेन रहितं सुदृशं जघन्यम्।
निर्दर्शन-व्रत-निकाययुतं कुपात्रं,
युग्मोज्झितं नरमपात्रमिदं हि विद्धि।।

उत्तम पात्र अनगार अर्थात मुनिराज हैं, मध्यम पात्र पंचमगुण स्थानवती व्रती श्रावक हैं और सम्यग्दर्शन से विभूषित हैं वे जघन्य पात्र हैं तथा जो व्रतों से सहित एवं सम्यग्दर्शन से रहित हैं वे कुपात्र हैं ओर जो दोनों से रहित हैं, देव-शास्त्र-गुरू की मान्यता जिनके नहीं है अैर धर्म के विरोधी हैं, खोटे धर्म का या एकान्तवाद का प्रचार करने वाले हैं, वे समस्त अपात्र हैं।

उत्तम-पात्र

अन्तरंग और बाहृ संग अर्थात चैबीस प्रकार के परिग्रह से रहित 28 मूलमुणों से युक्त, मित्र-शत्रु में,, कांच-कंचन में, महल-मसान में, वन्दक और न्दिक में सरस-नीरस में समान दृष्टि रखने वाले, राग-द्वेष के त्यागी , जो कहीं एकान्त निर्जन वन, मंदिर में निवस करते हैं और कभी-कभी ध्यान की सिद्धि के लिए उटपटी विधि लेकर किसी नगर की ओर निकल पड़ते हैं आहार लेने की इच्छा से ऐसे दिगम्बर महात्यागी साधु ही उत्तम पात्र हैं। इन्हें चार प्रकार के दान देने वाले उत्तम भोग-भूमि के अकथनीय सुखों को भोगते हैं।

मध्यम पात्र
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मध्यम पात्र हैं-पंचम गुणस्थानवर्ती आर्यिकायें, जो मात्र एक वस्त्र अर्थात सोहल हाथ की साड़ी, पीछी कमण्डलु ओर शास्त्रमात्र परिग्रह अपने पास रखती हैं उनको उपचार से महाव्रती माना जाता हैं। ऐलक और क्षुल्लक भी मध्यम पात्र हैं। ऐलक के पा मात्र एक कोपीन अर्थात लंगोटी, पीछी, मकण्डलु और शास्त्र के अलावा परिग्रह नहीं होता। ये केशलोंच करते हैं। भोजन भी हाथ में लेकर करते हैं। आहार खड़े होकर भी लेते हैं और बैठकर भी। क्षुल्लकों के पास एक कोपीन और एक पछेवड़ी अर्थात एक लंगोटी, एक चद्दर होती है तथा एक पीछी-मकण्डलु। इसके अलावा और परिग्रह नहीं रखते, शास्त्रादि ज्ञान के उपकरणों को छोउत्रकर माताजी ऐलक और क्षुल्लक एक-एक वस्त्र और भी रखते हैं, परंतु काम में एक ही जोड़ी को लेते हैं, दूसरी तो इसलिये रखते हैं। कि एक को पहनकर दूसरे को सुखा दें। एक समय में दोनों को काम में नही लेते। अगर लेते हैं तो दोषी हैं।

ऐलक और क्षुल्लक यह आज दो नामों से पुकारे जाते हैं। वास्तव में दोनों का नाम आगम में आचार्यों ने क्षुल्लक ही बताया है। क्षुल्लक का अर्थ होत है कि छोटा अर्थात मुनि से छोटा। इसका नाम आगम में लघुनन्दन और युवराज भी पाया जाता है। मुनिराज आर्यिका, ऐलक तथा क्षुल्लकों की करीब-करीब एक ही चर्या होती है। मुनिराज के सवारी में बैठने का त्याग होता है, वह परिग्रह के त्यागी हैं, जीवदया का पालन करते हैं। इसी प्रकार आर्यिकायें और ऐलक, क्षुल्लक भी परिग्रह के त्यागी हैं और जीवहिंसा से सदा दूर रहते हैं इसलिये सवारी में बैठने का उनका त्याग होता है। त्याग तो उनके स्वाभाविक ही होता है, करना नहीं पड़ता अर्थात ऐलक, क्षुल्लक भी पैदन यात्रा करते हैं सामने चार हाथ जमीन को देखकर गमन करते हैं।

प्रतिमाधारी श्रावक को भी अपेक्षाकृत मध्यम पात्र में ही माना है। इन पात्रों को श्रद्धा और भक्ति के साथ आहार देने से भी भोग-भूमि की प्राप्ति होती हैं। वहां के सुखों का वर्णन करना किसी सामान्य व्यक्ति के हाथ की बात नहीं है।

जघन्य पात्र

अभी तक उत्तम तथा मध्यम पात्र के स्वरूप को बताया गया, अब बताया जा रहा है जघन्य पात्रों का स्वरूप। जो व्रती तो नहीं हैं परंतु सम्यग्दर्शन से विभूषित हैं अर्थात सम्यग्दर्शन के अष्ट अंगों से मण्डित हैं, पच्चीस दोषों से रहित है, संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होने का शश्वत विचार करते रहते है। सप्तत्वों के स्वरूप को अच्दी तरह से जानते हैं। कार्य करते समय भी उसमें रत या आसक्त नहीं होते वह जघन्य पात्र हैं।

सम्यग्दृष्टि के सम्बंध में किसी कवि ने इस प्रकार कहा है कि-

चक्रवर्ति की सम्पदा, इन्द्र सरीखे भोग।
काक बीट सम गिनत हैं, सम्यग्दृष्टि लोग।।40।।

ऐसे जो सम्यग्दृष्टि अव्रती जनह ैं, उनहें जघन्य पात्र कहते हैं। इनके अलावा सब और कुपात्र ही हैं।

दाता
मानी क्रोधी लालची, कपटी और लवार।
इनको दाता नहिं कहा, ले डूबे मंझधार।।91।।

अभी तक बताया स्वरूपप ात्रों का, अब कुछ कथन दाता का किया जाता है, क्योंकि दान देने के लिए जिस प्रकार का सुपात्र उत्तम समझा जाता है और उसका फल भोगभूमि या मोक्षमार्ग की सिद्धिरूप समझा जाता है। उसी प्रकार यदि दाता उत्तम है तो दान का फल भी दाता को उत्तम रूप से प्राप्त होगा। यदि दाता निकृष्ट है, अयोग्य है, हीनाचारी है, मिथ्याधर्म का उपासक है, क्रिया से अनभिज्ञ है, लोभी है, लालची है, पाप क्रियाओं को करने वाला है, सदाचार से शून्य है विवेक रहित है दाता के चिन्ह से रहित है, निन्द्य है, पवित्र क्रियाओं से सर्वथा शून्य है, रोगी है, हीनांग है, विकलांग है,उत्तम है, अतिशय वृद्ध है अन्धा है, अमनस्क है, और देवशास्त्र-गुरू की श्रद्धा से रहित है; ऐसे दाता पात्र को आहार देते हैं तो वह पात्र, पात्र नहीं रहेगा, अपात्र हो जायेगा, क्योंकि कुपात्र और कुदान का असर पात्र के भावों पर पउ़ता है, ऐसे आगम में अनेक उदाहरण आये हैं।

दाता कैसा हो
दाता उसको कहत हैं, जो पाले निज कर्म।
श्रावक गुण से हो सहित, लहे धर्म का मर्म।।92।।

जो भव्यजीव सप्त व्यसनों का त्यागी हो, अर्थात जुआ नहीं खेलता हो, चोरी नहीं करता हो, मांस नहीं खाता हो, शराब नहीं पीता हो, वेश्यागामी नहीं हो, शिकार नहीं खेलता हो, परस्त्रीरमण का त्यागी हो और अष्ट मूलगुणों का धारी हो (अष्ट मूलगुणों का कथन पहले कर आयें हैं।) भोजन दिन में करता हो, देवदर्शन प्रत्येक दिन करता हो, बिना छना पानी नहीं पीता हो, प्रत्येक दिन स्वाध्याय करता हो, अभक्ष्य का त्यागी हो, श्रावकों की और क्रियाओं का पालन करने वाला हो, पवित्र विचार और उच्च कुल वाला हो; वही श्रावक है। ऐसा जो दाता हो वही दान दे सकता है, अन्यथा नहीं।

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