यहां प्रश्न यह उठता है कि साधु शुद्धि क्यों बुलावाते हैं? साधु शुद्धि इसलिए बुलवाते हैं कि वह भोजन कहीं उनके निमित से तो नहीं बनाया गया, अशुद्ध द्रव्यों के द्वारा तो नहीं बनाया गया है, कहीं बिना स्नान किये, बिना शुद्ध वस्त्र पहले तोनहीं बना लिया है? शुद्धियों के अलग-अलगक अर्थ इस प्रकार से हैं। मन-शुद्धि-मन-शुद्धि बोलकर श्रावक मुनि महाराज को यह बताता है कि मेरा मन बिल्कुल मलिन नहीं है, शुद्ध है। वचनशुद्धि-वचन-शुद्धि बोल के श्रावक महाराज को यह बताता है कि मैं जो कुछ बोल रहा हूं, वह मिथ्या नहीं सत्य है। कायशुद्धि-कायशुद्धि बोलकर श्रावक साधु महाराज को यह बताता है कि मैं उच्च कुल का हूं, मेरा पिण्ड बिलकुल शुद्ध है, स्नान करके ही अ ाया हूं, वस्त्र भी शुद्ध हैं। आहार-जलशु-िआहार-जलशुद्धि बोलकर श्रावक साधु को यह बतलाता है कि जल शुद्ध-कुएं से छानकर जिवाणी कुएं में पहुंचाकर लाया गया है।उसी से यह भोजन बनाया है। इस भोजन में जितना द्रव्य लगा हुआ है वह सब शुद्धि अर्थात न्यायपूर्वक कमाई का है। सभी पदार्थ मर्यादित हैं और हमने यह भोजन आपके लिए नहीं बनाया है, अपने लिए बनाया है।
साधुओं को आहार लेते समय यह पूर्ण ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि जो कोई वस्तु चैके के अन्दर बनी हुई हो उसमें से आधी आहार में लें, अगर सबाके लेते हैं, तो दोषी हे। यदि श्रावक सब वस्तु को देता है, अपने लिये नहीं रखता तो उसे कैसे ज्ञान हो सकेगा कि मैंने जो मुनिराज को आहार कराया है वह खट्टा य म3ीठा या कड़वा हैं अगर चैके में कोई विशेष स्वादिष्ट वस्तु श्रावक ने बनायी हो और उस सबको साधु ल ेले, तो घोर दोष लगता है अगर साधु को यह मालूम हो जाये कि चैके में यह चीज कम है और फिर ीाी उस सबको ले, तो दोषी है। साधु को तो सब देख-भालकर आगे-पीछे का ध्यान करके आहार करना चाहिए।
आजकल जहां जायें वही यह देखने में आता है कि आहार आगम से वि बनता है। शास्त्रों में अनेक जगह लिखा हुआ है कि श्रावक जैसा भोजन प्रत्येक दिन स्वयं करता है वैसा ही त्यगी, व्रती आ जावें तो उसे करा देता है। आजकल क्या होता है कि अगर साधु नगर में हैं और उसके लिए चैका लगाना है तो किलो-दो किलो फल चाहिये, कई तकरह का मेवा चाहिये, कई प्रकार के मिष्ठान भी बनाते हैं। क्या ऐसा आहार बनाना आगम अनुकूल है? आगम अनुकूल भी नहीं है और उन गरीबों के ऊपर यहा बहुत बड़ा अन्याय है, जिनके पास पैसे का अभाव है। आज अगर साधुओं के लिए चैका अलगाय जाए तो स्वाभाविक सो-दौ सौ रूपये का ख्र्चा होता है। पुष्ट आहार देकर श्रावक यह समझते हैं कि साधुओं का धर्मध्यान अच्छा होगा। पुष्ट आहार लेने से धर्मध्यान नहीं होता है, प्रमाद आता है। जब सामायिक करने के लिए बैठते हैं तो नींद आती है, पूरी रात भी सोते रहते हैं। साधुओं को सही रूप से धर्मध्यान तभी हो सकता है जब श्रावक अपने लिए जो शुद्ध रोटी दाल बनाये उसमें से ही साधुओं को दे दे। आजकल यह भी देखा जा रहा है कि किसी के चैके में एक दिन साधु नहीं पहुंचे; तो उसका पूरे दिन आत्र्त-रौद्र-ध्यान होता रहता है कारण कि लोग अपने शक्ति से बाहर होकर चैका लगाते हैं। अतः श्रावक को चाहिये िकवे अपनी शक्ति से अधिक द्रव्य दान में न दें। दान देने से मन में अपार हर्ष होना चाहिये; परंतु होता नहीं है। इन सबका कारण है देख-देखी। अगर साधुओं को धर्मध्यान कराना है और दाता को दान का वास्तविक फल प्राप्त करना है तो शक्ति अनुसार सादा आहार दें।
सम्यग्दृष्टि अव्रती श्रावक को भोजन कराना ही कहा जाता है जघन्य-पात्र-दान। अगर कभी हमारे घर कोई साधर्मी भाई आवें तोउनके आते ही आहार-पानी की पूछना चाहिये। हमारे नगर के मन्दिरजी में कोई बाहर का श्रावक दर्शनार्थ आवे तो पहले उसके गांव का नाम पूछें, जाति आदि से परिचय करें फिर उनसे सविनय प्रार्थना करें कि आज तो भोजन हमारे यहां ही करना होगा आपको। भोजन बन जाने पर उसे अपने घर पर ले जायें और बड़ी श्रद्धा व भक्ति के साथ आनन्द मनाते हुए उसे आहार करावें तथा उसका यथायोग्य सत्कार करें। यही है आहारदान जघन्यपात्र के लिए।
आजकल सुनने में आता है कि साधुओं को आहार कराना कठिन हो गया है, क्योंकि सामने अनेक कठिनाईयां दिखाई देती हैं। यह श्रावकों का कहना बिल्कुल गलत है आज हैं कमी भावों की। अगर मुनि को आहार नहीं दे सकते तो श्रावक को तो समय पर भोजन के लिए पूछ सकते हैं। परंतु आज यह बिल्कुल देखने में नहीं आता कि कोई अपने घर साधर्मी श्रावक को भोजन कराता हो। आज से कुछ ही वर्ष पूर्व ऐसा था कि नगर के मन्दिरजी में भी कोई बाहर का श्रावक दर्शनार्थ आ गया तो बड़े उत्साह के साथ उससे सविनय प्रार्थना करते थे भोजन के लिए। मगर आज देखा जाता है कि यह पद्धति समाप्त जैसी हो गई है हम आज अपने साधर्मी भाई को पानी तक कको नहीं पूछते हैं, और बात करते हैं जैन सिद्धांत की, आत्म-स्वभाव की? आत्म-स्वभाव की प्राप्ति होना तो असम्भव ही है, क्येंकि हमारा जो श्रावक धर्म है उसका ही पालन हम नहीं कर सकते। अतः हम चाहते हैं ‘समाज में सुधार’ तो वात्सल्य गुण को अपनाये और पात्रों को यथाशक्ति दान देते रहें।
दान की प्रशंसा आचार्यों ने अनेक शास्त्रों में की है। वह दान चार प्रकार का है, जैसा कि पूर्व में बता आये हैं। आहारदान का कथन भी ऊपर आ गया है। दूसरा दान है शस्त्रदान या ज्ञानदान। उपरोक्त पात्रों की आवश्यकता के अनुसार शास्त्र भेंट करना, मन्दिरजी में शास्त्र भेंट करना, अगर कोई पढ़ना चाहता है तो उसे यथाशक्ति सहयोग देना; यही है ज्ञानदान अर्थात शास्त्रदान।
इन उपरोक्त पात्रों की किसीप्रकार रूग्ण अवस्था हो जाने पर किसी वैद्य की सलाह लेकर शुद्ध औषधि देना, उनका रोग से छुटकारा कराने के लिए उपाय करना ही कहा जाता है औषधिदान।
किसी पात्र को किसी प्रकर का भय हो रहा हो किसी कारणवश; तो उसके भय को दूर करें उसे साहस बंधाये; यही है अभयदान। अभय दान का भी महत्व कुछ कम नहीं, क्योंकि कभी-कभी भय के कारण देखा जाता है भोले प्राणी प्राण खो बैठते हैं अतः अभयदान देकर प्राणदान देना ही है।
दान से बढ़कर संसार में पुण्य नहीं है, क्योंकि पात्रों के यथायोग्य दान देने से वे अपना धर्मसाधना करते हैं। अगर साधुओं को आहार नहीं दिया जाय, तो क्या वह तपक र सकते हैं? क्या वह स्वाध्याय कर सकते हैं? क्या वह उपदेश दे सकते हैं? कभी नहीं। इसलिए समस्त दानों में एक आहारदान ही श्रेष्ठ है। आहार मिलेगा, तभी वह शास्त्रों का पठन-पाठन कर ज्ञानी बन सकते हैं अैर ज बवह ज्ञानी होंगे तभी धर्म का उपदेश दे सकते हैं। यह सब काम न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए धन का दान दाता दे, तभी हो सकते हैं। भावों के साथ दान दिया जाये तभी हो सकते हैं।