सम्पूर्ण संयोग सूर्योदयकालीन स्वर्णिम छटा के समान क्षणभंगुर हैं। इसीप्रकार पुण्योदय से प्राप्त भोग भी कमल के पत्तों पर पड़े हुए जलबिंदुओं के समान क्षणभंगुर ही हैं। भाग्यशाली ललाट की लालिमा भी सायंकालीन सूर्य की लालिमा के समान अल्पकाल में ही कालिमा में बदल जानेवाली है; क्योंकि सभी संयोगों पर, भोगों पर, पर्यायों पर विकराल काल की विकट मनहूस छाया पड़ी हुई है।
यह उन्मत्त यौवन अंजुली के जल के समान प्रतिपल क्षीण होता जा रहा है और देह को जर्जर कर देनेवाला बुढ़ापा निरंतर नजदीक आता जा रहा है। मृत्यु की काली घटाएं प्रत्येक क्षण शिर पर मँडरा रही है, फिर भी पंचेन्द्रिय विषयों की तृष्णा निरंतर बढ़ती जा रही है, जवान होती जा रही है।
यह दुःखमयी पर्याय क्षणभंगुर है; अतः सदा कैसे रह सकती हैं और धु्रवस्वभावी अमर आत्मा मृत्यु का वरण कैसे कर सकता है? न तो यह दुःखमय पर्याय ही सदा रहनेवाली है और न अमर आत्मा कभी मरनेवाला ही है। ध्रुवधाम आत्मा से विमुख पर्याय ही वस्तुतः संसार है और धु्रवधाम आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
संयोग क्षणभंगुर है और आत्मा त्रिकाली धु्रवधाम है; पर्याय नाशवान है और आत्मा शाश्वत रहनेवाला है। इस सत्य को पहिचान ललेना ही अनित्यभावना का सार है और त्रिकाली धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही वास्तविक आराधना है, आराधना का सार है।
भवताप का अभाव
भवताप का अभाव तो स्वयं के आत्मा के दर्शन से होता है। दूसरों के दर्शन से आज तक कोई भवमुक्त नहीं हुआ और न कभी होगा। भवतापहारी तो पर और पर्याय से भिन्न निज परमातमतत्त्व ही है। उसके दर्शन का नाम ही सम्यग्दर्शन है, उसके परिज्ञान का ना ही सम्यग्ज्ञान है और उसका ध्यान ही सम्यक् चारित्र है। अतः उसका जानना, मानना और ध्यान करना ही भव का अभाव करने वाला है।
अनित्यभावना: एक अनुशीलन
प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ही नित्यानित्यात्मक है। नित्यानित्यात्मक वस्तु का असंयोगी द्रव्यांश नित्य एवं संयोगी पर्यायांश अनित्य होता है। अनित्यभावना में संयोगी पर्यायांश के सम्बंध में ही चिंतन किया जाता है। पर्यायों के सर्वांगस्वरूप पर विवेचनात्मक चिंतन या विश्लेषणात्मक विचार करना अनित्यभावना नहीं है; अपितु पर्यायों की अस्थिरता, क्षणभंगुरता का वैराग्यपरक चिंतन ही अनित्यभावना का मुख्य अभीष्ट है; क्योंकि आत्महित के लिए संयोगी पर्यायों पर दृष्टि केन्द्रित करना उपयोगी नहीं; अपितु उन पर से दृष्टि हटाना आवश्यक है, दृष्टि को पर्यायों पर से हटाकर स्वभावसन्मुख करना आवश्यक है।
पर और पर्यायों से पृथक् द्रव्यस्वभाव का परिज्ञान न होने से अनादिकाल से इस आत्मा ने पर और पर्यायों में ही एकत्व स्थापित कर रखा है, ममत्व कर रखा है, उन्हीं को सर्वस्व मान रखा है, उन्हीं पर दृष्टि केन्द्रित कर रखी है; परिणामस्वरूप अनंतदुःखी है। दुःख दूर करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने पर भी दुःख दूर नहीं होते; क्योंकि इसका पुरुषार्थ ही उल्टी दिशा मे गतिशील रहता है।
जिन संयोगों या पर्यायों में इसने अपनत्व और ममत्व स्थापित कर रखा है, उन्हें यह स्थाई रखाना चाहता है; उसी दिशा में सतत प्रयत्नशील भी रहता है; किन्तु वे तो स्वभाव से ही क्षणभंगुर हैं, विनाशीक हैं; अतः उनका स्थाई रहना तो असंभव ही है। यही कारण है कि उसका यह प्रयत्न बालू में से तेल निकालने जैसा ही निरर्थक सिद्ध होता है; परिणामस्वरूप निरंतर आकुलता-व्याकुलता बढ़ती ही रहती है। अनंत असफलताओं के बावजूद भी यह अज्ञानी आत्मा उसी दिशा मे प्रयत्नशील रहता है; क्यांेकि सुखप्राप्ति का सच्चा मार्ग तो प्राप्त हुआ नहीं और दुःख भी सहा जाता नहीं; अतः जो भी सूझता है, वही करता रहता है।
यह सम्पूर्ण स्थिति संयोगों व पर्यायों के परिणमनशील स्वभाव के सम्यक् ज्ञान-श्रद्धान न होने से ही बन रही है; अतः अनित्यभावना में संयोगों व पर्यायों की अनित्यता-क्षणभंगुरता का चिंतन किया जाता है।
इस संदर्भ में आचार्यकल्प पंडित टोडरमलजी का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
‘‘तथा इस संसारी के एक यह उपाय है कि स्वयं को जैसा श्रद्धान है; उसी प्रकार पदार्थों को परिणमित करना चाहता है। यदि वे परिणमित हों तो इसका श्रद्धान सच्चा हो जाये; परंतु अनादिनिधन वस्तुएँ भिन्न-भिन्न अपनी मर्यादासहित परिणमित होती हंै, कोई किसी के आधीन नहीं है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होतीं। उन्हें परिणमित कराना चाहे, वह कोई उपाय नहीं है, वह तो मिथ्यादर्शन ही है।
तो सच्चा उपाय क्या है? जैसा पदार्थों का स्वरूप है, वैसा श्रद्धान हो जाय तो सर्व दुःख दूर हो जाये। जिसप्रकार कोई मोहित होकर मुर्दे को जीवित माने या जिलाना चाहे तो आप ही दुःखी होता है। तथा उसे मुर्दा मानना और यह जिलाने से जियेगा नहीं - ऐसा मानना सो ही उस दुःख के दूर होने का उपाय है। उसीपकार मिथ्यादृष्टि होकर पदार्थों को अन्यथा माने, अन्यथा परिणमित करना चाहे तो आप ही दुःखी होता है। तथा उन्हें यथार्थ मानना और यह परिणमित कराने से अन्यथा परिणमित नहीं होंगे - ऐसा मानना सो ही उस दुःख के दूर होने का उपाय है। भ्रमजनित दुःख का उपाय भ्रम दूर करना ही है। सो भ्रम दूर होने से सम्यक् श्रद्धान होता है, वही सत्य उपाय जानना।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि अनित्यभावना का चिंतन तो मुख्यरूप से सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों को होता है, मुनिराजों के भी होता है; तो क्या वे भी संयोग और पर्यायों की क्षणभंगुरता से अनजान होते हैं?
नहीं; वे संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होते हैं। अज्ञानजन्य आकुलता-व्याकुलता तो अज्ञानियों को ही होती है, सम्यग्दृष्टि ज्ञानियों को नहीं; स्त्री-पुत्रादि व देहादि संयोगों तथा शुभराग, विशिष्ट क्षयोपशमज्ञानादि पर्यायों में रागात्मक विकल्प यथासंभव भूमिकानुसार सम्यग्ज्ञानियों के भी पाये जाते हैं, इष्ट संयोगों के वियोग में उनका भी चित्त अस्थिर हो जाता है। चित्त की स्थिरता के लिए वे भी संयोगों व पर्यायों की क्षणभंगुरता का बार-बार विचार करते हैं, चिंतन करते हैं। उनका यह चिंतन आम्नायस्वाध्यायरूप ही समझना चाहिए।