।। बोधिदुर्लभभावना ।।
इन्द्रियों के भोग एवं भोगने की भावना।
हैं सुलभ सब दुर्लभ नहीं है इन सभी का पावना।।
है महादुर्लभ आत्मा को जानना पहिचानना।
है महादुर्लभ आत्मा की साधना आराधना।।1।।

पंचेन्द्रियों के भोग एवं उन्हें भोगने की भावना का प्राप्त होना दुर्लभ नहीं, सुलभ ही है; पर आत्मा को जानना, पहिचानना एवं आत्मा की साधना और आराधना महादुर्लभ है।

नर देह उत्तम देश पूरण आयु शुभ आजीविका।
दुर्वासना की मंदता परिवार की अनुकूलता।।
सत् सज्जनों की संगती सद्धर्म की आराधना।
है उत्तरोत्तर महादुर्लभ आत्मा की साधना।।2।।

मनुष्यभव की प्राप्ति होना, उत्तम आर्य देश में जन्म होना, परिपूर्ण आयु की प्राप्ति होना, न्यायोपात्त अहिंसक आजीविका के साधन उपलब्ध होना, दुर्वासनाओं का मन्द होना, धर्मानुकूल परिजनों की प्राप्ति होना, सत्य पदार्थ और सज्जनों की संगति प्राप्त होना, सद्धर्म की आराधना के भाव होना एवं आत्मा की साधना करने की वृत्ति होना क्रमशः एक से एक महादुर्लभ हैं।

जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ जब मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ।
जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ जब मैं स्वयं ही ध्यान हूँ।।
जब मैं स्वयं ही आराध्य हूँ जब मैं स्वयं ही आराधना हूँ।
जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ जब मैं स्वयं ही साधना हूँ।।

पर एक बात यह भी तो है कि जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ और मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ; जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ और मैं स्वयं ही ध्यान भी हूँ; इसीप्रकार जब मैं स्वयं ही आराध्य हूँ और मैं स्वयं ही आराधना भी हूँ जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ और साधना भी मैं स्वयं ही हूँ।

जब जानना पहिचानना निज साधना आराधना।
ही बोधि है तो सुलभ ही है बोधि की आराधना।।
निज तत्व को पहिचानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।4।।

जब निज को जानना, पहिचानना एवं निज की साधना, आराधना ही बोधि है; तो फिर बोधि की आराधना दुर्लभ कैसे हो सकती है? सुलभ ही समझना चाहिए। अतः बोधिदुर्लभभावना का सार निजतत्व को पहिचानना ही है और धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

बोधिदुर्लभभावना: एक अनुशीलन

नर देह उत्तम देश पूरण आयु शुभ अजीविका।
दुर्वासना की मंदता परिवार की अनुकूलता।।
सत् सज्जनों की संगती सद्र्ध की आराधना।
है उत्तरोत्तर महादुर्लभ आत्मा की साधना।।

षट्द्रव्यमयी इस लोक में न तो ज्ञेयरूप संयोग ही दुर्लभ हैं और न संयोगीभावरूप आस्त्रवभाव; क्योंकि हम सभी को ये तो अनन्तों बार प्राप्त हो चुके हैं और यदि अब भी अपने को नहीं जाना, नहीं पहिचाना तो भविष्य में भी मिले रहेंगे। दुर्लभ तो एकमात्र अपने को जानना है, पहिचानना है, अपने में ही जमना है, रमना है;क्योंकि अनादिकाल से अबतक और सब-कुछ मिला, पर सहीरूप में हम अपने को पहिचान नहीं कसे हैं, जान नहीं सके हैं यदि हमने अपने को सहीरूप में जान लिया होता, पहिचान लिया होता तो अबतक इस लोक भटकते ही न रहते, अपितु लोकाग्र में विद्यमान सिद्धशिला में विराजमान होते; मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम का अभाव कर अनंत सुखी हो गये होते; अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य के धनी हो गये होते; अतीन्द्रियानन्दस्वरूप सिद्धशिला को प्राप्त हो गये होते।

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हमारी यह वर्तमान दुर्दश, दुःखरूप दशा एकमात्र अपने को नहीं पहिचान पाने के कारण ही हो रही है, नहीं जान पाने के कारण हो रही है; अतः इस दुर्लभ अवसरका उपयोग, नरभव का एकमात्र सदुपयोग, अपने को जानने-पहिचानने का महादुर्लभ कार्य कर लने में ही है।

अपने को जानना, पहिचानना एवं अपने में लीन हो जाना ही बोधि है - दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। यह दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बाधि ही इस जगत में दुर्लभ है, महादुर्लभ है और इस बोधि की दुर्लभता का विचार, चिन्तन, बार-बार चिनतन ही बोधिदुर्लभभावना है।

इस दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि का अत्यन्त आदर करने का आदार करने का आदेश देते हुए स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं -

’’इय सव्व दुलह-दुलहं दंसणणाणं तहाचरित्तं च।
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हंप।।1

इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को संसार की सर्मसत दुर्लभ वस्तुओं से भी दुर्लभ जानकर इनका अत्यन्त आदर करो।’’

बेधि और समाधि का अन्तर वृहद्द्रव्यसंग्रह की संस्कृत टीका में इस प्रकारस्पष्ट किया गया है -

’’सम्यग्दर्शनचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति।2

अप्राप्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का प्राप्त होना बोधि है और उन्हीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना समाधि है।’’

यद्यपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों को या तीनों की एकता को बोधि कहते हैं; तथापि बोधिदुर्लभभावना की चर्चा करते हुए अनेक स्थानों पर अकेले ’सम्यग्ज्ञान’ या ’पहिचान’ शब्द का प्रयोग भी किया गया है; परंतु आशय सर्वत्र एक ही है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चाहिरत्र से ही है; क्योंकि इन तीनों की उत्पत्ति एक साथ ही होती है।

आचार्य कुन्दकुन्द ’सण्णाणं’ शब्द का प्रयोग करते हैं -

’’उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवायेण तस्सुवायस्स।
चिन्ता हवेई बोही अच्चन्तं दुल्लहं होदि।।3

जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय का उत्यन्त चिनतन अर्थात् बार-बार चिन्तन-मनन ही बोधिदुर्लभभावना है।’’

हिन्दी कवियों ने भी इस्रकार के प्रयोग बहुत किये है, जिनमें कुछ इसप्रकार हैं -

’’अंतिम ग्रीवक लों की हद, पायो अनंत विरियां पद।
पर सम्यग्ज्ञानल न लाधो, दुर्लभ जिन में मुनि साधो।।1

जय जीव, व्यवहाररत्नत्रय धारण करके नौवें ग्रैवेयक तक तो अनन्तबार पहुंचा, पर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति न कर पाने के कारण संसार में ही भटकता रहा। निश्चयरत्नत्रय धारण करनेवाले मुनिराज निज में उस सम्यग्ज्ञान की साधना करते हैं।

धन-कन-कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञन।।2
3
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