।। बोधिदुर्लभभावना ।।
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यद्यपि यह बात सत्य है कि सम्यग्दर्शन‘-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभव-पर्याय अनादि से नहीरं; तआिापि अनादि-अनन्त सदा उपलब्ध ज्ञानस्वभाव के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन, जानने का नाम सम्यग्ज्ञन और उसी में जनमे-रमने का नाम सम्यकचारित्र है; अतः सदा उपलब्ध त्रिकाली धु्रव आत्मा के दर्शन भी स्वाधीन होने से सुलभ ही है। जबकि लौकिक संयोग पराधीन होने से सहज सुलभ नहीं, दुर्लभ है।

यहां एक प्रश्न सम्भव है कि एक ओर तो रत्नत्रयरूप बोधि को महादुर्लीा बताया जा रहा है और दूसरी ओर सुलभा। दोनों में सत्य क्या है?

भाई! उक्त दोनोंप्रकार के कथन परस्पर विरोधी नहीं, अपितु एक-दूसरे केपूरक ही हैं। इस बात को समझने के लिए हमें बारह भावनाओं की चिनत-प्रक्रिया के मूल में जाना होगा, उसका उद्देश्य समझना होगा।

लोकभावना और धर्मभावना के बीच में समागत बोधिदुर्लीाभावना का मूल अभिप्रेत यह है कि यह आत्मा इस षट्द्रव्यमयी विस्तृत लोक से दृष्टि हटाकर ज्ञानानन्दस्वभावी निजलोक को जानकर-पहिचानकर, उसी में जम जाने, रम जानेरूप रत्नत्रयस्वरूप धर्मदशा को शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त कर अनन्त सुखी हो।

अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम उपलब्ध मनुष्यपर्याय की दुर्लभता का भान कराया जाता है और फिरउसकी सार्थकता के लिए रत्नत्रय प्राप्त करने की प्रेरणा देने ेक लिए रत्नत्रय की दुर्लभता का भान कराया जाता है। तदर्थ भरपूर प्रेरणा भी दी जाती है। साथ ही संयोग अनेक बार उपलब्ध हो गये हैं - ह बताकर उनके प्रति विद्यमान आकर्षण को कम किया जाता है।

किन्तु जब यह जीव बोधिलाभ को अत्यनत कठिन मानकर अनुत्साहित होकर पुरूषार्थहीन होने लगता है, तो उसके उत्साह को जाग्रत रखने के लिए उसकी सुलभता का ज्ञान भी कराया जाता है।

अतः बोधि की दुर्लभता और सुलभता - दोनों ही एक ही उद्देश्य की पूरक हैं और काल्पनिक भी नहीं, अपितु सत्य के आधार पर प्रतिष्ठित हैं। बोधिलाभ स्वाधीन होने से सुलभभी है और अनादिकालीन अनुपलब्ध एवं अनभ्यास के कारण दुर्लभ भी।

प्रश्न: बोधिदुर्लभ नाम से तो यही प्रतीत होता है कि जिनागम को बोधि की दुर्लभता बताना ही इष्ट है?

उत्तर: ऊपर से देखने पर तो ऐसा ही प्रतीत होगा कि अधिकतर चिन्तन भी इसीप्रकार का उपलब्ध होता है, पर गहराई से चिार करें तो बोधि की दुर्लभता के सम्यक् स्वरूप के चिन्तन के साथ-साथ बोधि की सुलभता का चिन्तन भी जिनागम को अभीष्ट है। बोधि की दुर्लभता ओर सुलभता का सम्यक् स्वरूप यह है कि जबतक सैनी पंचेन्द्रिय दशा की उपलब्धि न हो, तबतक तो बोधिलाभ महादुर्लभ है ही, किन्तु मनुष्यपर्याय में भी अनभ्यास के कारण दुर्लभ ही है; तथापि जो ठान ले, उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं, सब सुलभ है; पुरूषार्थी के लिए क्या सुलीा और क्या दुर्लभ? सब सुलभ ही है; क्योंकि प्रत्येक भावना े चिनतन का स्वरूप पुरूषार्थ प्रेरक ही होता है।

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बोधिदुर्लभभावना के चिनतन का वास्तविक स्वरूप यही है कि जबतक हम जाग्रत नहीं हुए, तबतक महादुर्लभ और आत्मोन्मुखी पुरूषार्थ के लिए कमर कसकर सन्नद्ध लोगों के लिए महासुलभ है।

यदि हम ’बोधिदुर्लभ’ नाम से मात्र दुर्लभता ही लेंगे तो फिर ’आस्त्रव’ नाम से मात्र आस्त्रवों के लिए विचार तक और अशुचि नाम से मात्र अशुचिता की बात तक ही सीमित रहना होगा; जबकि आस्त्रवभावना में आस्त्रवों के स्वरूप की अपेक्षा उनकी हेयता परएवं अशुचिभावना में हदेह की अशुचिता की अपेक्षा उससे विरक्ति पर अधिक बल दिया जाता है; आत्मा की उपादेयता ओर परमपवित्रता परभी भरपूर चिन्तन किया जाता है।

बोधिदुर्लभभभावना में बोधि की दुर्लभता बताकर उनकी प्राप्ति के लिए सतर्क किया जाता है अैर सुलभता बताकर उसके प्रति अनुत्साह को निरूत्साहित किया जाता है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि बोधिदुर्लभभावना में कहीं-कहीं संयोगों की सुलभ भी तो बताया गया है; क्योंकि वे अनन्तबारप्राप्त हो चुके हैं, जैसा कि निम्नांकित छनद से स्पष्ट है -

’अन्तिम ग्रीवक लों की हद, पाया अनन्त बिरियां पद।1

- और कहीं - कहीं उन्हें महादुर्लभ भी बताया गा है। जैसा कि सर्वार्थसिद्धि के उद्धरण से स्पष्ट है; जिसमें बताया गा है कि त्रसपर्याय, पंचेन्द्रियपना, मानवजीवन, आर्यदेश और वीतरागधर्म की प्राप्ति उत्तरोत्तर महादुर्लभ है। वास्तविक स्थिति क् है - संयोग सुलभ हैं या दुर्लभ?

उत्तर - भाई ! जिसप्रकार वभिन्न अपेक्षाओं से बोधिलाभ सुलभ भी है, दुर्लभ भी; उसी प्रकार संयोग भी किसी अपेक्षा सुलभ है और किसी अपेक्षा दुर्लभ। अनन्तबार प्रापत हो चुके हैं, इसलिए सुलभ ही हैं, सुलभ कहना अनुचित नहीं है; पर अपनी इच्छानुसार मिलना संभव न होने से महादुर्लभ भी हैं, दुर्लभ कहना भी असंगत नहीं हैं।

चित्त में जीम संयोगों की अनन्त महिमा कम करने के लिए ’उन्हें अनन्तबार भोग लिये’ - कहकर सुलभ कहा जाता है, उनसे विरक्ति उत्पन्न की जाती है अैर आत्माराधना की प्रेरणा देने के लिए आत्माराधना के अनुकूल संयोगों की दुर्लभता का ज्ञान भी कराया जाता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि बोधिदुर्लभभावना में संयोगों की सुलभता व दुर्लभता एवं बोधिलाभ की सुलभता वदुर्लभता - चारों ही चिन्तन किया जाता है; क्योंकि बोधि की दुर्लभता के चिन्तन का यही वास्तविक स्वरूप हें इसमें उकत चारों बिन्दुओं का गंभीर चिनत समाहित हो जाता है।

यह चित्त अनादिकाल से संयोगों में ही अनुरक्त है; अतः सर्वप्रथम अनेकों बार प्राप्त कर लेने के पक्ष को उजागर कर, उन्हें सुलभ बताकर, उच्छिष्ट बताकर; उनसे विरक्ति उत्पन्न की जाती है अैर अजतक प्रापत न होने के आधार पर बोधिलाीा को दुर्लीा बताकर उसके प्रति अनुरक्ति उत्पन्न की जाती है। तत्पश्चात् बोधिलाभ की अतिदुर्लीाता का भान कराने के लिए उन संयोगों को भी दुर्लीा बताया जाता है, जिन संयोगों में बोधिलाीा की प्राप्ति संभव होती है; किंतु जब चित्त बोधिलाभ की दुर्लभता से आक्रान्त होकर शिथिल होने लगता है तो स्वाधीनता आधार पर बोधिलाभ की सुलभता बताकर उसे प्राप्त कर लने के लिए पुरूषार्थ को जाग्रत किया जाता है, उत्साह को बढाया जाता है।

इसप्रकार हम देखते हैं कि बोधिदुर्लीाभावना में चहो संयोगों की सुलभता बताई जा रही हो, चाहे दुर्लभता; चाहे बोधिलाभ की सुलभता बताई जा रही हो, चाहे दुर्लीाता; पर उसकी चिन्तन-प्रक्रिया की दिशा रत्नत्रयधर्म की उत्पत्ति, वृ;एवं पूर्णता को बल प्रदान करने की ओर ही रहती है।

इस बोधिदुर्लीाभावना की महिमा अपार है, अपरम्पार है। इसके गीत जितने भी गाये जायें, कम हैं; क्योंकि यह आत्महित की ओर अग्रसर करनेवाली परमपावन भावना है। पुरूषार्थ को जागृत करनेवाली यह बोधिदुर्लीाभावना रत्नत्रयरूप धर्म धारण करने की पावन प्रेरणा है; उपलब्ध धर्मपरिणति को नित्य वृद्धिंगत करनेवाली, पूर्णता की ओर ले जानेवाली समर्थ साध्ना है; शुीाशुभभावविध्वंसनी आनन्दजननी यह भावना ध्रुवधाम निज परमात्मा की परमाराधना ह।

- ऐसी इस बोधिदुर्लभभावना का स्वरूप भली-भांति समझकर सभी आत्मार्थीजन दुर्लभ बोधि को अपने प्रबल पुरूषार्थ से सहज सुलभ बनाकर इसी भव में उपलब्ध कर लें - इसी पावन भावना ओर प्रेरणा के साथ विरा लेता हूँ।

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