षट्द्रव्यमय और तीन लोक वाले इस लोक में यह आत्मा आत्मा के ज्ञान बिना भ्रमरूपी रोग के वश होकर भव-भव में भ्रमण करता रहा; जगत के जंजाल में उलझानेवाले चार गतियों में निरंन्तर घूमता ही रहा; जगमत के जंजाल में उलझानेवाली चार गतियों में निरंतर घूमता ही रहा। समताभाव के अभाव में इस संसार में इसे रंचमात्र भी सुख प्राप्त नहीं हुआ।
नरक, तिर्यंज, देव एवं मनुष्य गतियों में परिभ्रमण करते रहना ही संसार है। छह द्रव्यों वाले इस लोक में एक आत्मा ही सार है, स्वाधीन है, सम्पूर्ण है, आराध्य है, सत्यार्थ है, परमार्थ है और परिपूर्ण है।
अपना आत्मा ही काम, क्रोध, मान और मोह से रहित है। एक आत्मा ही निद्र्वन्द्व है, निर्दण्ड है, निग्र्रन्थ और निर्दोष है। मिथ्यात्व और राग रहित भी वही है, प्रकाशस्वरूप चैतन्यलोक भी वही है, यदि गहराई से विचार किया जाये तो जिसमें सम्पूर्ण लोक झलकते हैं, वह ज्ञान-स्वभावी आत्मा ही वास्तविक लोक है।
अपना आत्मा ही लोक है और अपना आत्मा ही सारभूत पदार्थ है। आनन्द को उत्पन्न करनेवाली इस लोकभावना के चिन्तन का एकमात्र आधार निज भगवान आत्मा ही है। यह जानना-पहिचानना ही लोकभावना के चिन्तन का सम्पूर्ण सार है और धु्रवधान निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
लोकभावना: एक अनुशीलन
’संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार है, अशुचि है, सुख-दुःख में साथ देनेवाले नहीं हैं; क्योंकि वे अपने आत्मा से अत्यंत भिन्न हैं।’
आरंभिक छह भावनाओं में संयोगों के संदर्भ में इस प्रकार का चिन्तन करने के उपरान्त सातवीं आस्त्रवभावना में ’संयोग के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले संयोगभाव - चिद्विकार - मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभाव भी अनित्य हैं अशरण हैं, अशुचि हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के कारण भी हैं; अंतः हेय हैं और भगवान आत्मा नित्य है, परमपवित्र हैं, परमानन्दरूप है एवं परमानन्द का कारण भी है; अतः ध्येय है, श्रद्धेय है, आराध्य है, साध्य है एवं परम-उपादेय भी है’ - इस प्रकार का चिन्तन किया गया है।
इसप्रकार संयोग और संयोगी भावों से विरक्ति उत्पन्न कर संवर और निर्जरा भावना में पर और पर्यायों से भिन्न भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली निर्मलपर्यायरूप शुद्धि और शुद्धि की वृद्धि की उपादेयता का चिन्तन किया गया; क्योंकि शुद्धि की उत्पत्ति व स्थितिरूप संवर तथा वृद्धिरूप निर्जरा ही अनन्तसुखरूप मोक्ष प्रगट होने के साक्षात् कारण है।
इसप्रकार ज्ञेयरूप संयोग, हेयरूप आस्त्रवभाव एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा के सम्यक् चिन्तन के उपरान्त अब लोकभावना में षट्द्रव्यमयी लोक के स्वरूप पर विचार करते हैं।
लोकभावना का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। कांर्तिकेयानुप्रक्षा की चार सौ नवासी गाथाओं में सर्वाधिक स्थान घेरनेवाली लोकभावना और धर्मभावना ही है। अनित्यभावना से निर्जराभावना तक नौ भावनाओं में कुल 114 गाथाएं हैं, जबकि अकेली लोकभावना 169 गाथाओं को अपने में समेटे हुए हैं।
लोकभावना में भेद-प्रभेद सहित छह द्रव्यों के स्वरूप के साथ-साथ लोक का भौगोलिक निरूपण भी समाहित हो जाता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि इस भावना में जिनागम में वर्णित वस्तु-व्यवस्था संबंधी समस्त विषय-वस्तु आ जाती है। इस प्रकार से इसमें द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकायसंग्रह एवं त्रिलोकसार का सम्पूर्ण विषय आ जाता है।
य़द्यपि इस लघु निबंध में उक्त सम्पूर्ण विषय-वस्तु का विस्तृत प्रतिपादन संभव नहीं है; तथापि लोकभावना की चिन्तन-प्रक्रिया एवं उसकी उपयोगिता पर सम्यक् अनुशीलन तो अपेक्षित है ही।
यद्यपि लोकभावना की विषय-वस्तु अत्यन्त विस्तृत है, तथापि अनेक ज्ञानियों ने उसका प्रतिपादन एक-एक छनद में भी किया है, फिर भी लोक-भावना की सम्पूर्ण भावना को अपने में समाहित कर लिया है।
इस दृष्टि से हिन्दी कवियों के निम्नांकित कथन द्रष्टव्य हैं -
छह द्रव्यों के समुदायरूप इस लोक को न तो किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किए है और न कोई इसका विनाश ही कर सकता है। इस लोक में यह आत्मा अनादिकाल से समताभाव बिना भ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख सह रहा है।
इस पुरूषाकार चैदह राजू ऊँचे लोक में यह जीव आत्मज्ञान बिना अनादिकाल से ही भ्रमण कर रहा है।’’
उक्त दोनों भावनाओं में नीचे की पंक्ति का भाव तो लगभग समान ही है; क्योंकि दोनों में ही यह बताया गया है कि जीव अनादि से ही लोक में भ्रमण करना हुआ दुःख भोग रहा है। अन्तर मात्र इतना है कि एक में दुःख का कारण समताभाव का अभाव बताया गया है और दूसरी में सम्यग्ज्ञान का अभाव, पर इसमें कोई विशेष बात नहीं है; किंतु ऊपर की पंक्ति में जो लोक के स्वरूप का प्रतिपादन है, वह भिन्न-भिन्न है। एक में लोक को स्वनिर्मित, स्वाधीन, अविनाशी और षट्द्रव्यमयी बताया गा है; तो दूसरी में चैदह राजू ऊँचा पुरूषाकार निरूपित किया गया है।