निज भगवान आत्मा आनंद का रसकंद, ज्ञान का घनपिंड एवं शांति का सागर है। एक आत्मा को छोड़कर शेष सभी द्रव्य जड़ हैं। इस संसार में यह आत्मा जीवन-मरण और सुख-दुःख को अकेले ही भोगता है और नरक, निगोद, स्वर्ग या मोक्ष में भी अकेला ही जाता है।
बहिरात्मा अज्ञानीजीव उक्त तथ्य से अपरिचित ही रहते हैं। जो आत्मा उक्त सत्य या निजात्मतत्त्व को पहिचानते हैं, वे ही विवेकी ज्ञानी हैं। जो जीव निजात्मतत्त्व को पहिचानकर, जानकर निज में ही जम जाते हैं, रम जाते हैं; वे भव्यजीव पर्याय में भी परमात्मा बन जाते हैं।
व्यवहार में कुछ भी क्यों न कहा जाय, पर सत्यार्थ बात तो यही है। संसार में संयोग तो सर्वत्र पाये जाते हैं, पर सगा साथी कोई नहीं मिलता। संयोगों की आराधना-चाह, महिमा ही संसार का कारण है, आधार है; और निज एकत्व की आराधना ही आराधना का सार है।
एकत्व ही सत्य है, एकत्व ही सुंदर है और एकत्व ही कल्याणकारी है; सुख,शांति और स्वाधीनता एकत्व के आश्रय से ही प्रकट होती है; क्योंकि इनका आवास एकत्व में ही है। एकत्वभावना का सार तो एकत्व को पहिचानने में ही है; और एकत्व की आराधना ही आराधना का सार है।
प्रशंसा और निंदा
प्रशंसा मानवस्वभाव की एक ऐसी कमजोरी है कि जिससे बड़े-बड़े ज्ञानी भी नहीं बच पाते हैं। निंदा की आँच भी जिसे पिघला नहीं पाती, प्रशंसा का ठंडक उसे छार-छार कर देती है।
एकत्वभावना: एक अनुशीलन
अनित्य, अशरण व संसारभावना के चिंतन में संयोगों की क्षणभंगुरता, अशरता व निरर्थकता तथा निजस्वभाव की नित्यता, शरणभूतता एवं सार्थकता अत्यंत स्पष्ट हो जाने पर भी ज्ञानी-अज्ञानी सभी को अपनी-अपनी भूमिकानुसार सुख-दुःख मिलजुलकर भोग लेने का विकल्प थोड़ा-बहुत बना ही रहता है, जड़मूल से साफ नहीं होता।
उक्त विकल्प को जड़-मूल से उखाड़ फेंकने के लिए ही एकत्व और अन्यत्वभावना का चिंतन किया जाता है।
एकत्व और अन्यत्वभावना में अस्ति-नास्ति का ही अंतर है। जिस बात का एकत्वभावना में अस्तिपरक (च्वेपजपअम) चिंतन किया जाता है; उसी बात का अन्यत्वभावना में नास्तिपरक (छमहंजपअम) चिंतन होता है।
वृहद्द्रव्यसंग्रह की ३५वीं गाथा की टीका में इन दोनों भावनाओं का अंतर स्पष्ट करते हुए लिखा है -
‘‘एकत्वानुप्रेक्षायामेकोऽहमत्यिादिविधिरूपेण व्याख्यानं, अन्यत्वानु-पे्रक्षायां तु देहादयो मत्सकाशादन्ये, मदीया न भवन्तीति निषेधरूपेण। इत्येकत्वान्यत्वानुप्रेक्षायां विधिनिषेधरूप एव विशेषस्तात्पर्यं तदेव।
एकत्व अनुप्रेक्षा में ‘मैं एक हूँ‘- इत्यादि प्रकार से विधिरूप व्याख्यान है और अन्यत्व-अनुप्रेक्षा में ‘देहादि पदार्थ मेरे से भिन्न हैं, मेरे नहीं है‘ - इसप्रकार निषेधरूप से व्याख्यान है। इस रीति से एकत्व और अन्यत्व इन दोनों अनुप्रेक्षाओं में विधि और निषेधरूप ही अंतर है, दोनों का तात्पर्य एक ही है।‘
जीवन-मरण, सुख-दुःख आदि प्रत्येक स्थिति को जीव अकेला ही भोगता है, किसी भी स्थिति में किसी का साथ संभव नहीं है। - वस्तु की इसी स्थिति का चिंतन एकत्वभावना में गहराई से किया जाता है, अनेक युक्तियों और उदाहरणों से उक्त तथ्य की ही पुष्टि की जाती है।
एकत्वभावना का स्वरूप स्पष्ट करनेवाला निम्नांकित छंद द्रष्टव्य हैं -
उक्त छंद में यह बात स्पष्टरूप से कही गई है कि सम्पूर्ण संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव प्रत्येक परिस्थिति में सदा अकेला ही रहता है, कोई दूसरा साथ नहीं देता। - यह विचार करना ही एकत्वभावना है।
इस छंद में जन्म और मरण में अकेलापन बताकर मात्र जन्म और मरण में ही अकेलापन नहीं बताया है, अपितु जन्म से लेकर मरण तक की प्रत्येक परिस्थिति में अकेलापन दर्शाया हैै।
एक बात और भी कही है कि इस दुखमय संसार में कहने के साथी तो बहुत मिल जायेंगे, पर सगा साथी-वास्तविक साथी कोई नहीं होता; क्योंकि वस्तुस्थिति के अनुसार कोई किसी का साथ दे ही नहीं सकता।
इसी तथ्य को निम्नांकित छंद में और भी अधिक मार्मिक ढंग से उभारा गया है-