शुद्धात्मा की रूचि संवर और शुद्धात्मा की साधना निर्जरा है। वास्तव में देखा जाये तो धु्रवधाम निज भगवान की आराधना ही निर्जरा है। ममता रहित निर्मल दशा ही निर्जरा है। इसीप्रकार निज आत्मा की ओर नित्य वृद्धिंगत भावना ही निर्जरा है।
निर्जरा राग का नाश करनेवाली और वैराग्य को उत्पन्न करनेवाली है। यह आनन्द को उत्पन्न करनेवाली माँ और साधक जीवों की जीवन-संगिनी प्रिय पत्नी है। यह निर्जरा तप और त्याग, सुख और शान्ति का विस्तार करनेवाली है, संसाररूप महासागर से पार उतारनेवाली नौका है।
आत्मज्ञान और आत्मध्यान के बिना होनेवाली साविपाक य अकाम निर्जरा किसी भी काम की नहीं है; नाममात्र की निर्जरा है, उसका मात्र नाम ही निर्जरा है; वह निर्जरातत्व या निर्जराभावना नहीं है। आराधकों के काम कमी तो एकमात्र अविपाकनिर्जरा ही है, जो धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना से उत्पपन्न होती है और कर्मबन्ध का विध्वंस करनेवाली है।
जो जीव इस सत्य को जानते हैं, पहिचानते हैं; वे ही विवेकी हैं, वे ही धन्य है; क्योंकि ध्रुवधान निज भगवान के आराधकों की बात ही कुछ और होती है, गजब की होती है। संवरभावना का सार शुद्धात्मा को जानना ही है और धु्रवधाम निज भगवान की आराधना ही आराधाना का सार है।
निर्जराभावना: एक अनुशीलन
शुभाशुभभाव के निरोधरूप संवर और शुद्धपयोगरूप योग से युक्त जो जीवन अनेक प्रकार के तप करता है; वह नियम से अनेक प्रकार के कर्मों की निर्जरा करता है।’’
आचार्य कुन्दकुन्द के उक्त कथन में निम्नकित दो बात अत्यंत स्पष्ट हैं -
1. निर्जरा संवरपूर्वक ही होती है।
2. शुद्धोपयोग से समृद्ध तप ही निर्जरा के मुख हेतु हैं।
इसी गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र निर्जरा के द्रव्यनिर्जरा और भवनिर्जरा रूप भेंदों की चर्चा इस प्रकार करते हैं -
’’तदत्र कर्मवीर्यशातनसमर्थों बहिरंगान्तरंडतपोर्वृहितः शुद्धोपयोगो भावनिर्जरा, तदनुभावीनरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्म-पुद्गलानां द्रव्यनिर्जरेति।
कर्म की शक्ति को क्षीण करने में समर्थ बहिरंग और अंतरंग तपों द्वारा वृद्धि को प्राप्त शुद्धोपयोग ही भावनिर्जरा है; तथा शुद्धोपयोग के प्रभाव से नीरस हुए उपात्त कर्मों का एकदेश क्षय द्रव्यनिर्जरा है।’’
आचार्य अमृतचन्द्र के इस कथन में शुद्धोपयोग को ही भावनिर्जरा कहा गया है तथा तप को उसका हेु बताया गया है एवं द्रव्यनिर्जरा का हेतु शुद्धोपयोगरूप भावनिर्जरा को कहा गया है।
उक्त सम्पूर्ण कथन पर दृष्टि डालने पर यह बात अत्यंत स्पष्ट हो जाती है कि मुक्ति के मार्ग में आनेवाली निर्जराभावना या निर्जरातत्व की चर्चा का सम्बंध स्वसमय में उदय में आकर स्वयं खिर जानेवाले कर्मों से होनेवाली सविपानिर्जरा से कदापि नहीं है; अपितु संवरपूर्वक शुद्धोपयोग से होनेवाली अविपाकनिर्जरा से ही है।
सविपाकनिर्जरा तो ज्ञानी-अज्ञानी सभी के सदाकाल हुआ ही करती है, पर अविपाकनिर्जरा ज्ञानी के ही होती है; क्योंकि निर्जराभावना और निर्जरातत्व ज्ञानी के ही प्रकट होते हैं, अज्ञानी के नहीं।
निर्जराभावना संबंधी उपलब्ध समग्र चिनतन में इस बात का उल्लेख भरपूर हुआ है। जैसा कि निम्नांकित उद्धारणों से स्पष्ट है -
समय आने पर जो कर्म झरते हैं, उनसे आत्महित का कार्य सिद्ध नहीं होता, तपश्चर्या द्वारा कर्मों का जो क्षय किया जाता है, उससे ही मोक्षसुख की प्राप्ति होती है।
तप के द्वारा पुराने कर्मों का खिर जाना और ज्ञान के बल से नये कर्मों का नहीं आना ही निर्जरा है, जो कि सुख देनेवाली है और संसार के कारणों से पार उतारनेवाली, छुड़ानेवाली है - ऐसा जानना चाहिए।