।। आस्त्रवभावना ।।
संयोगजा चिद्वृत्तियाँ भ्रमकूप आस्त्रवरूप हैं।
दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं।।
संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है।
भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है।।१।।

संयोग के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली चैतन्य की राग-द्वेषरूप वृत्तियाँ भ्रम का कुआँ है, आस्त्रवभावरूप हैं, दुःखस्वरूप हैं, दुःख की कारण हैं, मलिन हैं, जड़ हैं, अशरण हैं, और संयोगों से रहित भगवान आत्मा परमपवित्र है, परमशरण है, चैतन्यरूप है, भ्रमरोग को हरण करनेवाला, संतोष करनेवाला, सुख करनेवाला और आनंदरूप है।

इस भेद से अनभिज्ञता मद मोह मदिरा पान है।
इस भेद को पहिचानना ही आत्मा का भान है।।
इस भेद की अनभिज्ञता संसार का आधार है।
इस भेद की नित भावना ही भवजलधि का पार है।।२।।

आत्मा और आस्त्रव के इस भेद को नहीं जानना मोहरूपी मदिरा का पान करना है और दोनों के भेद को पहिचान लेना ही आत्मा का सच्चा ज्ञान है। इस भेद को नहीं पहिचानाा ही संसार का मूल कारण है। इस भेद की निरंतर भावना ही संसार समुद्र का किनारा है।

इस भेद से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा।
जो जानते इस भेद को वे ही विवेकी आतमा।।
यह जानकर पहिचानकर निज में जमे जो आतमा।
वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा।।३।।

बहिरात्मा जीव इस भेद से सदा अनभिज्ञ ही रहते हैं और जो इस भेद (रहस्य) को जानते हैं, वे ही विवेकीजीव हैं। इस रहस्य को जानकर, पहिचानकर जो आत्मा अपने में जम जायेंगे, रम जायेंगे; वे भव्यजन पर्याय में भी परमात्मा बन जायेंगे।

हैं हेय आस्त्रवभाव सब श्रद्धेय निज शुद्धात्मा।
प्रिय ध्येय निश्चय ज्ञेय केवल श्रेय निज शुद्धात्मा।।
इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।४।।

शुभाशुभावरूप सम्पूर्ण आस्त्रभाव हेय हैं और अपना शुद्धात्मा श्रद्धेय है, ध्येय है, निश्चय से ज्ञेय भी वही है; परमप्रिय एवं श्रेष्ठ भी वही है।

इस सत्य को पहिचानना ही आस्त्रवभावना का सार है और धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

सर्वज्ञता के निर्णय से, क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से मति व्यवस्थित हो जाती है, कत्र्तत्व का अहंकार गल जाता है, सहज ज्ञानादृष्टापने का पुरुषार्थ जागृत होता है, पर में फेर-फार करने की बुद्धि समाप्त हो जाती है; इसकारण तत्संबंधी आकुलता-व्याकुलता भी चली जाती है, अतीन्द्रिय आनंद प्रगट होने के साथ-साथ अनंत शांति का अनुभव होता है।

सर्वज्ञता के निर्णय और क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से इतने लाभ तो तत्काल प्राप्त होते हैं। इसके पश्चात् जब वही आत्मा, आत्मा के आश्रय से वीतराग-परिणति की वृद्धि करता जाता है, तब एक समय यह भी आता है कि जब वह पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता को स्वयं प्राप्त कर लेता है। आत्मा से परमात्मा बनने का यही मार्ग है।

अस्त्रवभावना: एक अनुशीलन

संयोगजा चिद्वृत्तियाँ भ्रमकूप आस्त्रवरूप हैं।
दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं।।
संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है।
भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है।।
jain temple99

शरीरादि संयोगी पदार्थों में एकत्व‘ममत्व एवं इन्हीं शरीरादि के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली राग-द्वेषरूप विकल्पतरंगें भावास्त्रव हैं, तथा इन्हीं भावास्त्रवों में निमित्त से कर्माण वर्गणाओं का कर्मरूप परिणामित होना द्रव्यस्त्रव है।

भावास्त्रव व द्रव्यास्त्रव - इन दो भेदों के अतिरिक्त मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग्य - इन पाँच भेदों में भी आस्त्रव विभाजित किया जाता है।

ये पाँचों भावों भी भाव और द्रव्य के रूप में दो-दो प्रकार के होते हैं। इनमें भावमिथ्यात्वादि आत्मा के विकारी परिणाम हैं और द्रव्यमिथ्यात्वादि कार्माण वर्गणा के कर्मरूप परिणमन हैं।

शरीरादि संयोगों के समान ये आस्त्रवभाव भी अनत्यि हैं, अशण हैं, अशुचि हैं, आत्मस्वभाव से अन्य हैं, चतुर्गति में संसरण (परिभ्रमण) के हेतु हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के हेतु हैं, जडृ हैं इनसे भिन्न ज्ञानादि अनन्त गुणों का अखण्डपिण्ड भगवान आत्मा नित्य है, परमशरणभूत है, संसारपरिभ्रमण से रहित, परमपवित्र, आनन्द का कन्द है और अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति का हेतु भी है। - इस प्रकार का चिन्तन ही आस्त्रवभावना है।

इस संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -

’’णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च।
दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवों।।
जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य।
दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं।।1

आस्त्रवों की अशुचिता, विपरीतताएवं दुःखकारणता जानकार जीव उनसे निवृत्ति करता है।

जीव से निबद्ध ये आस्त्रव अध्रुव हैं, अनित्य है, अश्ण हैं, दुःखरूप हैं और दुःखरूप ही फलते हैं - यह जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है।’’

उक्त कथन को सोदाहरण स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र ’आत्मख्याति’ में लिखते हैं -

’’जिस प्रकार जल में सेवाल (काई) जल के मैल के रूप में उपलब्ध होता है, उसी प्रकार आस्त्रवभाव भी आत्मा में मैल के रूप में ही उपलब्ध होते हैं; इसलिए ये अशुचित हैं, उपवित्र हैं। तथा भगवान आत्मा सदा ही अत्यन्त निर्मल, चैतन्यमात्र भाव से उपलब्ध होता है, अतः अत्यन्त शुचि है, परमपवित्र है।

जड़स्वभाववाले होने से आस्त्रवभाव दूसरों के द्वारा जाने जाते हैं; अतः वे चैतन्य (आत्मा) से अन्यस्वभाववाले हैं और भगवान आत्मा सदा ही विज्ञानधनस्वभाववाला होने से स्वयं को जाना है; अतः चैतन्य से अनन्य है।

आकुलता उत्पन्न करनेवाले होने से आस्त्रव दुःख् के कारण हैं और भगवान आत्मा निराकुलस्वाभावी होने के कारण न तो किसी का कार्य है अैर न किसी का कारण है; अतः दुःख का अकारण ही है।2

वृक्ष और लख की भाँति वध्य-घातकस्वभाववाले होने से जीव के साथ निबद्ध होने पर भी अविरूद्धस्वभाव का अभाव होने से अस्त्रवभाव जीव नहीं हैं।

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