इस संसार में धन-धान्य, सोना-चांदी और राजसुख आदि तो सबको सुलभ हैं; किंतु यर्थाज्ञान ही एकमात्र दुर्लभ है।
इस जीव को व्यवहारिक क्रियाओं का ज्ञान तो अनन्तबार हुआ है, पर एकमात्र अपनी पहिचान ही अत्यन्त कठिन है। यदि अपनी सच्ची पहिचान हो जावे तो कल्याण होते देर न लगे।’’
उक्त छन्दों में कहीं मात्र अपनी पहिचान को दुर्लभ बताया गया है तो कहीं मात्र सम्यग्ज्ञान या यथार्थज्ञान को; पर गहराई में जाकर देखें तो आशय सर्वत्र एक ही है। सर्वत्र एक ही ध्वनि है कि पुण्यवानों को दुनिया में सभीसंयोग सहज उपलब्ध हो जाते हैं, हमें भी समय-समय पर सभी अनुकूल-प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते रहे हैं; पर एक यथार्थाज्ञान, अपनी पहिचानआत्मोन्मुखी संयोग प्राप्त हाते रहे हैं; पर एक यथार्थज्ञान, अपनी पहिचान आत्मोन्मुखी संयोग प्राप्त होते रहे हैं; परएक यथार्थज्ञान, अपनी पहिचान आत्मोन्मुखी पुरूषार्थ के बिना सहज सुलभ नहीं है। अतः पुण्योदय से प्राप्त भोगों में न उलझकमर सम्पूर्ण शक्ति से अपने को जानो, पहिचानो और अपने में ही जम जावो, रम जावो - सुखी होने का एक मात्र यही उपाय है।
बोधि की दुर्लभता क गहराई से अनुभव हो - इसके लिए निगेद से लेकर उत्तरोत्तर दुर्लभता का बड़े ही मार्मिक ढंग से चिनतन किय जाता रहाहै। कविवर मंगतराय कृत बारह भावना में इसे इसप्रकार व्यक्त किया गया है -
आचार्य पूज्यपाद बोधि की इस दुर्लभता को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं 7
’’एक निगोद शरीर में सिद्धों से अनन्तगुणे जीव हैं। इस प्रकार स्थवर जीवों से यह सम्पूर्ण लोक भरा हुआ है। जिसप्रकार बालू के समुद्र में गिरी हुई वज्रसिकता की कणिका का मिलना दुर्लभ है; उसीप्रकार स्थावर जीवों से भरे हुए इस भवसागर में त्रसपर्याय का मिलना अत्यनत दुर्लभ है।
त्रसपर्याय में विकलत्रयों (द्विन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रियों) की बहुलता है। जिसप्रकारगणों के समूह में कृतज्ञाता का मिलना अतिदुर्लभ है; उसी प्रकार त्रसपया्रय में पंचेन्द्रिय पर्याय का प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। पंचेन्द्रिय पर्याय में भी पशुी, मृग, पक्षी और सर्पादि तिर्यंजो की ही बहुलता है। अतः जिसप्रकार चैराहे पर पडृी हुई रत्नराशि का प्राप्त होना कठिन है; उसी प्रकार मनुष्यपर्याय का प्राप्त होना अति कठिन है।
यदि एक बार मनुष्यपर्याय मिल भी गई तो फिर उसका दुबरा मिलना तो इतना कठिन है कि जितना जले हुए वृक्ष के परमाणुओं का पुनः उस वृक्ष पर्यायरूप होना कठिन होता है। कदाचित् इसकी प्राप्ति पुनः हो भी जावे तो भी उत्तम देश, उत्तम कुल, स्वस्थ इन्द्रियां और स्वस्थ शरीर की प्राप्ति उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ समझना चाहिए। इन सबके मिल जाने पर भी यदि सच्चे धर्म की प्राप्ति न हुई तो जिसप्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ है;उसीप्रकार स;र्म बिना मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है।
इसप्रकार कठिनता से प्राप्त धर्म को पाकर भी विषसुख में रंजायमान होना भस्म के लिए चन्दन जला देने के समान निष्फल है। कदाचित् विषयसुख से विरक्त हुआ तो भी तप की भावना, धर्म की प्रभावना और सहज समाधिका, सुख से मरणरूप समाधि का प्राप्त होन अतिदुर्लभ है। इसके होने पर ही बोध्ािलाभ सुल है - ऐसा विचार करना ही बोधिदुर्लभभावना है।1’’
त्रयपर्याय की दुर्लभता से लेकर रत्नत्रय बोधि की दुर्लभता तक की अनेक दुर्लभताओं में मनुष्यपर्याय की दुर्लभता एक बीच का बिन्दु है। वह एक ऐसा बिंदु है, जहां तक का अतिकठिन रास्ता जैसे भी हो, पर हम सबने पार कर लिया है। उससे भी आगे आर्य देश, उततम कुल, वीतरागी धर्म और उसका श्रवण भी हमें सहज उपलब्ध हो गया हैं
इस महान उपलब्धि की सार्थकता सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि की उपलब्धि में ही है। यदि इस महादुर्लभ मानव जीवन को पाकर भी हमने बोधि की प्राप्ति नहीं की तो इसका पाना, न पाना बराबर ही समझना चाहिए।
यही कारण है कि आचार्य पूज्यपाद के उक्त कथन में मनुष्यभव की दुलर्भता की बात दो बार कही गई है; यह भी चेतावनी दी गई है कि यदि वह मनुष्यभव विषय-कषाय के सेवन में यों ही चला गया तो फिर दुबारा मिलना उससे भी अतिकठिन है।
अतः एक के बाद एक इतनी कठिनाइयों से प्राप्त इस अवसर को यों ही गवां देना कहां की समझदारी है? जबतक विचाररहित असैनी पयार्यों में था, तबतक तो बुद्धिपूर्वक पुरूषार्थ का कोई अवसर ही न था; फिर भी सहज क्रमबद्धपरिणमन के कारण इस अवस्था कोप्राप्त हो गया। पर अब तो सर्वप्रकार अनुकूलता है, विचारशक्ति सहित हैं; अतः सर्वउद्यम से महादुर्लीा बोधि की उपलब्धि में संलग्न हो जना ही श्रेयस्कर है।
निरंतन कया गया इसप्रकार का आत्मोन्मुखी पुरूषार्थप्रेरक चिन्तन ही बोधिदुर्लभभावना है।
बोधिदुर्लभभावना की उक्त चिनतन-प्रक्रिया के अतिरिक्त निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक एक और प्रक्रिया भी पाई जाती है; जिसमें चिनतन का प्रकार ऐसा होता है कि बोधि तो अपना स्वभाव है, वहदुर्लभ कैसा हो सकता है? जब अपना स्वभाव ही दुर्लभ होगा तो फिर सहजसुलभ क्या हेगा? हमने अपने अज्ञान एवं अरूचि से उसे दुर्लभ बना रखा है, वस्तुतः तो वह सहजसुलभ ही है।
इस संदर्भ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा कृत बारह भावना का निम्नांकित छनद द्रष्टव्य है -
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि तो आत्मा का स्वभाव है; अतः निश्चय से दुर्लभ नहीं है। संसार मेंउसकी प्राप्ति कठिन है - यह तो मात्र व्यवहार से कहा जाता है।’’
इसीप्रकार का भाव भैया भगवतीदासजी ने व्यक्त किया है -
परपदार्थों की प्रवृत्ति अपने आधीन न होने से परद्रव्यों के भाव ही वस्तुतः दुर्लभ हैं। हे आत्मन् ! तेरा जो अनन्तज्ञानरूप भाव है, वह किसी भी रूप में दुर्लभ नहीं है।
इस चिन्तन-प्रक्रिया का आशय यह है कि जगत में अपनी वस्तु की प्रािप्त सुलभ और परवस्तु कीप्राप्ति दुर्लभ मानी जाती है। गहराई में जाकर चिर करें तो यह बात सत्य भीप्रतीत होती है; क्योंकि जो अपनी वस्तु है, वह तो सदा उपलब्ध ही है, उसकी प्रािप्त दुर्लभ कैसे हो सकती है? पर यहां बात ज्ञानस्वभाव की नहीं; अपितु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभावपर्याय की है, जो अनादि से उपलब्ध नहीं हैं