।। दशलक्षण पर्व ।।

1. तिष्ठोमों वयमुज्जवलेन मनसा रागादिदोषोज्झिता।
लोकः किंचिदेपि स्वकीय हृदये स्वेच्छाचरो मन्यताम्।
साध्यः शुद्धिरिहात्मनः शमवतामत्रापरेण द्विषा।
मित्रेणापि किमु स्वचेष्टितफल स्वार्थः स्वयं तप्स्यते।।

2. दोषानाघुष्यलोके मम भवतुसुखी दुर्जनश्चेद्धनार्थी।
मत्सर्वस्य गृहीत्वा रिपुरथ सहसा जीवित स्थानमन्यः।
मध्यस्थत्व्वेवमेवा खिलमिह हि जगज्जायता सौख्यराशिः
मत्तो मां भूदसौख्य कथमपिभविनः कस्यचित्पूत्करोमि।।

मनुष्य में अभिमान का बीज होना ही उनके पतन का द्योतक है। अभिमानी मनुष्य मृदु नहीं होता, अपितु पत्थर की तरह कठोर होता है, उसके अंदर दूसरे के लिए प्रति सहानुभूति नहीं होती है मानवता उससे कोसों दूर भागती है। अतः मनुष्य जीवन विनम्रता से ही सफल होता है। संसार में करोडो भवों में हीन, मध्य और उत्तम कुलों में जन्म लिया। किसी भीप्राणी की उत्पत्ति केवल एक ही जाति में होती हो ऐसा नियम नहीं है, अपितु कर्म के वश ही प्रणी भ्रमण करता रहता है, किसी की भी कोई शाश्वत जाति नहीं है। अच्छे कल में उत्पन्न व्यक्ति भी रूप, बल, श्रुति मति, शील तथा वैभव से रहित देखे जाते हैं। अतः कुल के प्रति मान का परित्याग करना चाहिए। जिसका शील (चरित्र) अशुद्ध है, उसे कुल का मद करने से क्या लाभ है? इसी प्रकार जो स्वकीय गुणों से अलंकृत है उसी शीलवान को भी कुलमद से किंचित प्रयोजन नहीं है।

जो शुक्र और शोणित से उत्पन्न हुआ है, जिसमें सतत हानि, वृद्धि होती रहती है, जो रोग और जरा का आश्रय है, जिसे प्रति दिन साफ करना पड़ता है, जो चमडा और मांस से आच्छादित है, कलुषतापूर्ण है तथा निश्चित रूप से विनाश स्वभाव वाला है ऐसे शरीर के रूप में मद का क्या कारण हो सकता है? अर्थात कोई कारण नहीं हो सकता। जो व्यक्ति आज बलवान है, वही क्षण भर में बलहीनता को प्राप्त हो जाता है तथा जो बलहीन है, वही संस्कार के वश पुनः बलवान हो जाता है, इस प्रकार बुद्धि के बलि से बल का अनियतपना जानकर तथा मृत्युबल के सामने अपनी अबलता जानकर अपने बल का भी मद नहीं करना चाहिए। लाभ और अलाभ क्षणिक है, ये कर्म के उदय और उपशम के निमित्त से होते है; ऐसाजानकर न तो अलाभ में दुखी होना चाहिए और न लाभ होने पर विस्मय करना चाहिए। ग्रहण, उदग्रहण (दूसरों को समझाना), नवीन रचना करना, निवारण तथा अर्थ का अवधारण करना इत्यादि बुद्धि के अंगो का आगम में जो विधान है, उसके अनन्पर्यायों की वृद्धि की अनन्ता को सुनकर आजकल के पुरूष अपनी बुद्धि का गर्व कैसे करते है? अर्थात पहले के लोगों के ज्ञान को ध्यान में रखकर हमें अपने तुच्छ ज्ञान का गर्व नहीं करना चाहिए।

उत्तम आर्जव

‘ऋजोर्भावः आर्जवम्’ ऋजुता अर्थात सरलता का नाम आर्जव है आर्जव का विपरित माया है। जो प्राणी मन, वचन, काय से कुटिलता न रखता हो; वही आर्जव धर्म को पाल सकता है। कहां है-


मनस्येकं वचस्येकं वपुष्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यद्वचस्यन्यद् कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्।।

अर्थात महात्माओं का कार्य मन, वचन और काय से एक होता है तथा दुरात्माओं के मन में कुछ और होता है, वचन में कुछ और बोलते हैं तथा कार्य में कुछ अन्य आचरण करते हैं।

दुनिया में जितने भी अनर्थ और पापकर्म होते हैं, वे सब आर्जव धर्म के अभाव में ही होते हैं। जो ऋजु होते हैं, उनके कर्म संस्कार क्षय होते है और जो कुटिल होते हैं, उनके कर्म संस्कार संचित रहते हैं। अत्यधिक छल से उपार्जितही हुई सम्पति अधिक दिन तक स्थिर नहीं रहती है, केवल कर्म बंध होता है। चोर, डाकू आदि में कपट की मात्र अधिक रहती है, लाखों की सम्पत्ति उनके पास आती है, किंतु कभी भी उनका नगर बसा हुआ नहीं देखाा गया है। जो व्यक्ति सरल स्वभावी होता है, उसके घर प्रभूत सम्पत्ति होती है। मायाचारी को दुनिया घृणित दृष्टि से देखती है। हंस और बगुला लगभग एक से लगते हैं, किंतु उन दोनों के स्वभाव में बडा अंतर होता है। यही कारण है कि हंस से लोग प्रेम करते हैं और बगुले से द्वेष करते हैं। आचार्य पद्मनन्दि देव ने कहा है-


मयित्वं कुरूते कृत सकृदपिच्छायाविघांत गुणे-
ष्वाजातेर्यमिनो र्जितेष्विह गुरूक्लेशैः शमादिष्वलम्।
सर्वे तत्र यदासते विनिभृता क्रोधादयस्तत्वत-
स्तत्पापवत येन दुर्गतिपथे जीवश्चिर भ्राम्यति।।90।।

यदि एक बार भी मायाचारी की जाय तो वह बड़ी कठिनाई से संचित किए हुए मुनि के अहिंसादिक गुणों को ढक देती है और उस मायाचार रूपी

1. प्रशमरतिप्रकरण - 84.92मकान में क्रोधादि कषायें भी छिपी रहती हैं, उस मायाचार से उत्पन्न हुआ पाप जीव को अनेक प्रकार की दुर्गतियों में भ्रमण कराता हैं।

पारमार्थिक दृष्टि से विचार करने पर आत्मस्वभाव को विपरित मानना ही सबसे बडी वक्रता है। ज्ञायकस्वभावी आत्मा की श्रद्धा और ज्ञान को स्थिर रखना धर्म है। जो अपने रागादि दोषाों को दोष के रूप में नहीं जानता और उन्हें धर्म मानता है, वह वास्तव में मायाचारी है।

उत्तम शौच

‘‘शुर्चर्भावः पवित्रता का भाव शौच है। पवित्रता लोभ-

कषाय का अभाव होने पर प्रकट होती है। जो परस्त्री और परपदार्थों के प्रति निःस्पृह है, समस्त प्राणियों के प्रति जिसका चित्त अहिंसक है और जिसने दुर्भेद्य अंतरंग मन को धो लिया है ऐसा पवित्र हृदय ही उत्तम शौच है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई शौच धर्म नहीं है।

पवित्रता बाह्य और अभ्यांतर के भेद से दो प्रकार की है। अपने अपने पद के अनुसार लौकिक शुद्धि का विचार रखना बाह्य शुद्धि है और अंतरंग में लोभादि कषायों का कम करना अभ्यांतर शुद्धि है। गंगादि में स्नान करने से शरीर का मन छूट जाने के कारण लौकिक शुद्धि भले ही हो, किंतु वास्तविक शुद्धि तो आत्मा में लोभादि कषायों को नष्ट करने से होती है।

महाभारत में अर्जुन के प्रति कहा गया है-


आत्मानदी संयम पुण्य तीर्था
सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः।
तत्राभिषेकं कुरू पाण्डुपुत्र
न वारिणा शुद्ध्याति चान्तरात्मा।।

अर्थात आत्मा नदी है, संयम उसका पवित्र घाट है, सत्य रूपी उसमें जल भरा हुआ है, शील उसके तट है और उसमें दया रूपी तरंगें उछल रही है। अर्जुन! उसमें अभिषेक करो, जल से अंतरात्मा शुद्धि नहीं होती है।