।। दशलक्षण पर्व ।।

उत्तम ब्रह्मचर्य

‘ब्रह्मणि चरणं ब्रह्मचर्यः- अर्थात् आत्मा में विचरण करना, लीन होना ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा धर्म है। इसकी पूर्णता चैदहवें गुणस्थान में होता है। शील के उठारह हजार भेदों की पूर्णता चैदहवें गुणस्थान में होता है, तथापित व्यवहार से स्त्री त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके दो भेद हैं (1) एकदेश ब्रह्मचर्य (2) पूर्ण ब्रह्मचर्य। अपनी स्त्री अथवा पुरूष मात्र में ही संतोष रखना एकदेश ब्रह्मचर्य है और स्वस्त्री तथा परस्त्री दोनों का त्यागर कर देना पूर्ण ब्रह्मचर्य है। कामी व्यक्ति को शास्त्रकारों ने अंधे की उपमा दी है। किसी ने कहा है-


दिवा पश्यति नो धूकः काको नक्तं न पश्यति ।
अपूर्वः को पि कामान्धः दिवा नक्तं न पश्यति।।

उल्लू दिन में नहीं देखता है, कौआ रात्रि में नहीं देखता है, किंतु कामान्ध व्यक्ति अपूर्व है जो कि न रात को देखता है, न दिन में देखता है। तात्पर्य यह कि कामी व्यक्ति की बुद्धि कुण्ठित और भ्रमित हो जाती है। भर्तृहरि न कहा है-

1. रागद्वेषद्वयी दीर्घ नेत्राकर्षणकर्मणा। अज्ञानात् सुचिर जीवः भ्रमत्यतिचिरंभवे- इष्टोपदेश
मत्ते भकुम्भदलने भुवि संन्तिशूराः।
केचित् प्रचण्ड मृगराज वधे पि दक्षाः।।
किंतु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य।
कन्दर्पदर्पदलने विरलाः मनुष्याः।।

अर्थात मतवाले हाथ्यिों के गण्डस्थल का दलन करने वाले शूर-वीर पृथ्वी पर है, कुछ प्रचण्ड सिंह का वध करने में भी समर्थ हैं, किंतु मैं शक्तिशालियों के सामने हठाते कहता हूं कि कामदेव के मद का दलन करने वाले मनुष्य विरले हैं। ब्रह्मचर्य का पालन एक कठोर साधना है, तप है। इसके लिए केवल शरीर पर ही नहीं मन, वाणी और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना पडता है। सबको आत्मकेंद्रित करना पड़ता है। जब तक साधक अपने को आत्म साधना में नहीं लगा देता है, तब तक ब्रह्मचर्य पूर्ण सफल नहीं होता है।

दशलक्षण पर्व मनाने की विधि

दशलक्षण पर्व के मनाने की उत्तम विधि तो यह है कि दसों दिन उपवास किया जाय। यदि उपवास सम्भव न हो तो एकाशन अवश्य करना चाहिए। इन दिनों गरिष्ठ भोजन का परित्याग करना चाहिए तथा निर्दोष विधि से आहार ग्रहण करना चाहिए। सारा समय धार्मिक कार्यों और आयोजनों में व्यतीत करना चाहिए। त्रिकाल सामायिक, वन्दना, प्रतिक्रमण, अभिषेक, पूजन, स्तवन, स्वाध्याय, रथयात्रा, धार्मिक संगोष्ठियों का आयोजन तथा लोकोपकारी कार्य करना इत्यादि इस व्रत के महत्वपूर्ण क्रिया कलाप है। इन दिनों प्रत्येक दिन क्रमशः एक एक धर्म की जाप्य करना चाहिए। जाप्य के मंत्र इस प्रकार है-

(1)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमक्षमा धर्मांगाय नमः।

(2) ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तममार्दवधर्मांगाय नमः।

(3)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमार्जवधर्मांगाय नमः।

(4) ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमशौचधर्मांगाय नमः।

(5)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसत्यधर्मांगाय नमः।

(6)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमसंयमधर्मांगाय नमः।

(7)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमतपोधर्मांगाय नमः।

(8)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमत्यागधर्मांगाय नमः।

(9)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमाकिंचन्यधर्मांगाय नमः।

(10)ऊँ हृीं अर्हन्मुखकमलसमुद्गताय उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय नमः।

वर्तमान परम्परा

वर्तमान में भाद्रपद मास में पड़ने वाला दशलक्षण पर्व विशेष उत्साह से मनाया जाता है। इन दिनों समाज में पूजा, व्रत, उपवास, भजन कीर्तन, प्रवचन इत्यादि कार्यक्रम विशेष रूप से हुआ करते है। प्रायः स्थानीय अथवा बाहर के विद्वानों के तत्वार्थसूत्र के एक-एक अध्याय पर तथा दस धर्मों में से एक एक एक धर्म पर व्याख्यान होते हैं एवं सुविधनुसार प्राप्त, मध्याह्न अथवा सांयकाल शास्त्र प्रवचन का भी आयोजन किया जाता है। रात्रि में शिक्षाप्रद नाटक, कविसम्मेलन, गायन वगैरह का भी आयोजन किया जाता है। कहीं-कहीं पर शिक्षा का स्थान मनोरंजन ने ले लिया है अतः इस प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी अयोजित किए जाने लगे हैं जिनसे धर्म का दूर तक भी कोई सम्बंध नहीं है, ऐसे आयोजन बंद होने चाहिए, क्योंकि काम भोग और ंधन की कथा तो इस जीव ने अनंत बार सुनी है, अनुभूत की है, केवल आत्मा के एकत्व का अनुभव ही दुर्लभ है, जो किसी पर्व का विशेष उद्देश्य है। पंचमी, अष्टमी, दशमी अथवा चतुर्दशी के दिन इस पर्व में रथयात्रा निकालने की विशेष प्रथा है। कई स्थानों पर भक्तामर स्तोत्र, छहढाला इत्यादि के अखण्ड पाठ का आयोजन भी किया जाता है। इन दिनों प्रायः सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं के आयव्यय का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाता है एवं विभिन्न संस्थाओं के नवीन पदाधिकारियों का भी चुनाव होता है। इस व्रत को इस वर्ष तक पालन करने का विधान है, पश्चात उद्यापन कर दिया जाता है। वर्तमान में रूढिवश अथवा श्रद्धावश अधिकांश लोग इसे प्रतिवर्ष मनाते हैं।

दशलक्षण व्रत कथा

धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में मेरू पर्वत की दक्षिण दिशा में सीतोदा नदी के तीरपर विशालाक्षा नामक पुरी थी। वहां पर राजा प्रीतिकर थे। उनकी रानी का नाम प्रियकारिणी था। उन दोनों की पुत्री मृगांकरेखा थी। राजा का मंत्री मतिशेखर, राजश्रेष्ठी गुणसागर तथा लक्षभद्र नामक कोतवाल था। इनकी स्त्रियों का नाम क्रमशः शशिप्रभा, सुभद्रा तथा शशिरेखा था। इनके क्रमशः कामसेना, मदनरेखा तथा रोहिणी कन्या हुई। इन कन्याओं की राजकन्या से अत्यधिक मैत्री थी। एक बार ये सब सखियां वसंतऋतु में वन में गई। वहां पर उन्होंने एक मुनिराज को देखा और उनसे कहा कि स्त्री पर्याय से छुटकारा कैसे मिलेगा? मुनि ने कहा- कि दशलक्षण व्रत के करने से पर नरतन पाकर भवसागर से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। कन्याओं ने मुनिराज से दशलक्षण व्रत की विधि पूछी। मुनिराज ने विधि बतलाई तब चारों कन्याओं ने व्रत लिया और यथाशक्ति व्रत पूर्णकर उद्यापन कराया। अंतिम समय में वे नमस्कार मंत्र का जापकर समाधिमरण को प्राप्त हुई और दशवें स्वर्ग में उत्पन्न हुई। वहां उन्होंने सोलह सागर आयु प्राप्त की और नित्य धर्म का सेवन किया।

जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में विशाल उज्जयिनी नगरी है। यहां का राजा स्थूभद्र और रानी गुणवती थी। क्रम से वे चारों देव, रानी के उदर से उत्पन्न हुए। उनके नाम क्रमशः देवप्रभ, गुणचन्द्र, पद्प्रभ तथा पद्मसारथी था। यौवनावस्था प्राप्त होने पर उन्होंने निष्कलप्रभ राजा की क्रमशः ब्राह्मी, कुमारी, रूपवती तथा मृगनेत्री नामक कन्याओं से परिणय किया। कुछ दिनों बाद राजा को वैराग्य हो गया। उसने मुनिव्रत धारणकर केवलज्ञान प्राप्त किया। चारों भाई सुख से राज्य करने लगे। एक दिन उन्होंने विरक्त हो सब राजपाट त्याग दिया तथा वन में जाकर तपस्या कर समस्त घातिया कर्मों का क्षय करे केवलज्ञान प्राप्त किया। अंत में अघातिया कर्मों का नाशकर वे शिवपथ के पथिक बने। इसी प्रकार प्रत्येक भव्यजीव को दशलक्षण धर्म धारण कर मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।