।। पंचमहाकल्याणक ।।

दीक्षा धारण करते ही भगवान को मनःपर्ययज्ञान की उपलब्धि हो जाती है। उनके तपोबल से अनेक ऋद्धियां भी उन्हें एक साथ प्राप्त हो जाती हैं, किंतु आत्म-साधना में निमग्न प्रभु इनका कोई उपयोग नहीं करते हैं। भगवान दीक्षा के बाद केवलज्ञान होने तक मौन रहते हैं। उनकी चर्या अपरावलम्बी होती है। वे परीषहों और उपसर्गों को सहजभाव से सहन करते हुए बाहृ और अंतरंग तपानुष्ठानों में अनुरक्त रहते हैं। आत्म साधन की गहन भूमिका को प्राप्त कर जब वे समाधिथ होते हैं, तब केवलल्याोपलब्धि से विभूषित होते हैं। उसी समय केवलज्ञान कल्याणक मनाया जाता है।

केवलज्ञान-कल्याणक

तीर्थकर प्रभु के केवलज्ञानोत्पति होने पर चतुर्निकाय के देव और मनुष्य केवलज्ञान महोत्सव मनाते हैं। यही केवलज्ञान कल्याणक है।

केवलज्ञान की उत्पति-जिनरूप धारण करने के बाद महाप्रभु अपनी साधना को प्रखर से प्रखरतर बनाते हुए परम आत्शुद्धि का अनुभव करते रहते हैं। अंतर्मुखी वृत्ति के धारक महामुनि की निखरती चेतना में नित नयी अनुभूतियां प्रकट होती हैं। अपनी अन्तर्यात्रा को गति देते हुए जब वे अपने पुरूषर्थ का परम परिणाम प्रकट करने को सन्नद्ध होते हैं, तब केवलज्ञान की भूमिका बनती है। इस क्रम में सर्वप्रथम वे अपूर्व आत्मशुद्धि का अनुभव करते हुए परम शुल्कध्यान में लीन होते हैं।

शुल्कध्यान की इस परम समाधि के फलस्वरूप उनकी चेतना पर छाई कर्म-कलुष की धुंध छटने लगती है। उनके आत्मतेज का सूर्य पूर्ण सभा और प्रताप के साथ प्रकट होने लगता है। इसी प्रताप से वे सर्वप्रथम मोह-तिमिर का नाश करते हैं। समस्त मोह कर्म के क्षय के उपरांत वीतरांग निग्र्रन्थ बनकर पुनः द्वितीय शुल्कध्यान के बल पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय संज्ञक तीन घातिया कर्मों का क्षय करते हैं। इस प्रकार समस्त घातिया कर्मों का क्षय होते ही वे केवल्य-ज्योिित से आलोकित हो जाते हैं। उनकी चेतना पूर्णतः अनावृत्त हो उठती है। तभी से वे भगवान अरिहन्त, परमात्मा, सर्वज्ञ, जिनदेव, जिनेन्द्र अथवा केवली कहलाने लगते हैं।

केवलज्ञान हो जाने के बाद वे भगवान जगत के समस्त चराचर द्रव्यों को उनकी अनन्त पयार्यों के साथ युगपत जानने लगते हैं। सूक्ष्म, अंतरित और दूरस्थ पदार्थ भी उनके ज्ञान दर्पण में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। जगत का कोई भी पदार्थ उनके ज्ञान से बाहर नहीं रहता। इसे जानने में उन्हें किसी प्रयास और आलम्बल की आवश्यकता नहीं रहती। सब कुछ सहज निष्प्रयास दर्पणवत् उनके ज्ञान में झलता है।

कैवल्य महिमा-भगवान को केवलज्ञान होते ही अनेक अपूर्व घटनाएं घटित होती हैं। उस समय थोड़ी देर के लिए सारे संसार का संताप दूर हो जाता है। संपूर्ण लोक में आनन्द और प्रसन्नता फैल जाती है। सारी प्रकृति भी प्रफुल्लित हो उठती है, मानो भगवान की इस परम विजयश्री का सम्मान करने उतावली हो उठी हो।

केवल ज्ञान की उत्पति होते ही तीन लोक में हलचल मच जाती है। उस समय कल्पवासी, ज्योतिषी, व्यनतर ओर भवनवासी देवों के यहां क्रमश घण्टानाद सिंहनाद, दुन्दुभिध्वनि और शंखध्वनि होने लगती है। समस्त इन्द्रों के आसन जोर-जोर से कम्पायमान होने लगते हैं।

आसन के कांपते ही इन्द्र अपने अवधिज्ञान से भगवान के केवलज्ञानोत्पत्ति को जान लेते हैं। तत्क्षण ही समस्त इन्द्र अपने सिंहासन से उठकर सात कदम आगे बढ़कर भगवान को नमस्कार करे हैं। तत्पश्चात सौधर्म इन्द्र सभी देवों को बुलाकर बड़ी ऋद्धि ओर वैभव के साथ भगवान के दर्शन के लिए प्रस्थान करते हैं।

इसी बीच सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर भगवान की धर्मसभा अर्थात समवशरण की अद्भुत रचना करता है, जिसमें विराजमान तीर्थकर प्रभु की समस्त देव भक्तिपूर्वक पूजा-अर्चना कर केवलज्ञान महोत्वस मनाते हैं।

केवलज्ञानोपरांत भगवान जीवन पर्यन्त ग्राम-नगरी में विहार करते हुए धर्मोपदेश देते हैं। वे मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं। उनका उपदेश प्राणिमात्र के लिए होता है। देव-दानव, मनुष्य, तिर्यंज सभी समान भाव से भगवान का उपदेश सुना करते है।

निर्वाण/मोक्ष कल्याणक

तीर्थकर भगवन्त की निर्वाण बेला में निर्वाण कल्याणक मनाया जाता है।

निर्वाणोपलब्धि- अहंत भगवान अपने मोक्ष का समय निकट जानकर समवशरण रूपी लक्ष्मी का परित्याग कर कायोत्सर्ग अथवा पद्मासन में आरूढ़ हो जाते हैं। वे अपनी आयु के अंततर्मुहुर्त अबशिष्ट रहने पर सूक्ष्म-क्रिया-प्रतिपति नामक तीसरे शुक्ल ध्यान में आरूढ़ होते हैं इस ध्यान से वे अपने योगों का निरोध करते हैं। योग निरोध के क्रम में सर्वप्रथम स्थूल मन एवं वचन का निरोध करते हैं। फिर सूक्ष्म काय-योग का आश्रयय लेकर श्वास-प्रश्वास का निरोध करते हैं। तत्पश्चात स्थूल काय योग का निरोध करते हैं। फिर सूक्ष्म काय-योग में स्थिर होकर सूक्ष्म मनोयाग और सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करते हैं। फिर सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करके अयोगी हो जाते हैं। इस प्रक्रिया को योगनिरोध की प्रक्रिया कहा जाता है। यह सब कुछ सहज, निष्प्रयास और अबुद्धिपूर्वक होता है।अयोगी होते ही वे अप्रकम्प हो जाते हैं। इस भूमिका में आने के बाद वे व्युपरत क्रि-निवृति नाक चतुर्थ शुक्ल ध्यान में आरूढ़ हो जाते हैं और अत्यंत लघु अंतर्मुहूर्त (अ,इ,उ,ऋ,लृ इन पांच हस्वाक्षरों के उच्चारण मात्र काल) में वेदनीय, आयु, नाम, और गोत्र-संज्ञक चार अघातिया कर्मों का क्षय कर निर्वाण/मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं।

निर्वाण कल्याणक की क्रिया- जिस समय भगवान को निर्वाण होता है, उस समय समस्त देव अपने-अपने यहां प्रकट होने वाले चिन्हों से भगवान की निर्वाणोपलब्धि को जान लेते हैं। समस्त देव इन्द्र अपने परिवार के देवों के साथ भगवान की निर्वाण भूमि में आते हैं। वहां आकर मोक्ष का साक्षात साधन होने से सर्वप्रथम भगवान के परम पवित्र शरीर को रत्नमयी पालकी पर विराजमानकर नमस्कार करते हैं। तदपरांत अग्निकुमार जाति के भवनवासी देव अपने मुकुट से उत्पन्न अग्नि के द्वारा भगवान के शरीर का अंतिम संस्कार करते हैं। अंतिम संस्कार के बाद भगवान के शरीर के भस्म को भगवान जैसी अवस्थाप्राप्त करेने की भावना से सभी देव अपने-अपने मस्तक पर लगाते हैं। फिर समस्त इन्द्र मिलकर आनन्द नाटक करते हैं। इस प्रकार सभी देव विधिपूर्वक भगवान के निर्वाण-कल्याणक की पूजा कर अपने-अपने स्थानों को लौट

घातिचतुष्टय और अठारह दोष

तीर्थकर भगवंत घातिचतुष्टय और अठारह दोषों से रहित होते हैं।

घातिकर्म चार हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय। ये चारों कर्म र्जीव के आत्मगुणों का घात करते हैं, इसलिए इन्हें घातिकर्म कहते हैं। इन चार घातिकर्मों का नाश करने पर ही कैवल्य की उपलब्धि होती है।

संसारी जीवों में अठारह प्रकार के दोष होते हैं-

1 क्षुधा

2 तृषा

3भय

4 राग

5द्वेष

6मोह

7चिंता

8 जरा