।। पांच परमेष्टि नमस्कार मंत्र ।।

एसो परमरहस्सो परमो मंतो इमो तिहुअणाम्मि।
ता किमिह बहुविहेहिं पढिएहिं पुत्थयसएहिं।।35।।

तीनों भुवनों में यह नमस्कारमन्त्र परम रहस्य है, परम मन्त्र है, सो अधिक पढ़ने और पुस्तकभार उठाने से क्या लाभ है। अर्थात् केवल णमोकार मन्त्र से ही सर्व सिद्धि हो जाती है।

ऊँ ह्मां णमों अरहंताणं। ह्मीं णमो सिद्धाणां। ह्मूं णमो
आइरियाणां। ह्मौ णमो उवज्झायाणां। ह्मः गमो स्व्वसाहूणां।

इति पंचबीजानि।

अथ श्रीपंचपरमेष्ठिमन्त्रप्रभावफलं लिख्यते।
पण तीस सोल छप्पण चदु दुगमेकं च जवहझाएह। परमेट्ठिवाचयाणं अणणां च गुरूवदेसेणा।।1।।

णमो अरहंताणां। णमों सिद्धाणं। णमो आइरियाणां।
णमो उवज्झायणां। णमो लोए सव्वसाहूणां।

अपराजितमन्त्रोऽयम्।

दर्शनज्ञानचारित्रतपांसि परिचिन्तयन्।
श्रियमात्यन्तिकीं प्राप्ता योगिनो येऽत्र केचन।।1।।
अमुमेव महामन्त्रं ते समाराध्य केवलम्।
प्रभावमस्य निश्शेषं योगिनामप्यगोचरः।।2।।

इस अपराजितमंत्र के द्वारा दर्शन, ज्ञान और चारित्र का पालन करते हुए इस संसार में जो कोई योगिजन आत्यन्तिक श्री को प्राप्त हुए हैं, वे सभी इसी मंत्र के समाराधन और प्रभाव से हुए हैं। इस अपराजितमंत्र का सम्पूर्ण रूप से प्रभाव वर्णन करना योगियों के लिए भी असम्भव ही है।

अनभिज्ञो जनो ब्रूते यः स मन्येऽनिलार्दितः।
अनेनैव विशुद्ध्यन्ति जन्तवः पापपंकिलाः।।3।।

इस अपराजित मन्त्र के विषय में जो अनभिज्ञा (अजान) व्यक्ति कुछ बोलने (माहात्म्यख्यापन करने) का साहस करता है, मानो वह बातरोग से पीडित है। संसार में पाप के पंक में लिप्त मनुष्य इसी से विशुद्धि को प्राप्त करते हैं।

अनेनैव विमुच्यन्ते भवक्लेशान्मनीषिणाः।
असावेव जगत्यस्मिन् भवविध्वंसबान्धवः।।4।।

प्रशस्त मन वाले विद्वान् इसी मन्त्र से संसार के बन्ध से मुक्ति को प्राप्त करते हैं। यही इस संसार में मुक्तिमार्ग का सखा है।

अमुं विहाय सत्वानां नान्यः कश्चित् कृपाकरः।
पतद् व्यसन पाताले भ्रमत्संसार-सागरे।।5।।
अनेनैव जगत् सर्वमुद्धत्य विधृतं शिवे।
शतमष्टोत्तरं चास्य त्रिशुद्ध्या चिन्तयेन्मुनिः।।6।।

इसको छोड़के प्राणियों के लिए अन्य कोई कृपाकर नहीं है। संसार-सागर में डूबते हुए हों या व्यसन के पाताल-विवर में प्रवेश करते हुए हों, इसी मन्त्रराज के द्वारासभी का उद्धार हो जाता है और वे कल्याण-मार्ग पर इसी से स्थित होते हैं। मुनि को इसकी 108 जाप्य त्रिशुद्धि (मन,वचन,काय) से करनी चाहिए।

भुंजानोऽपि चतुर्थस्य प्राप्नोति विकलं फलम्।
स्मरन्मन्त्रपद्ोद्भूतां महाविद्यां जगोन्नताम् (?) ।।7।।
गुरूपंचकनामोच्छुषोडशाक्षररांजिताम्।
अर्हम् सिद्धोपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः।।8।।

संसार भर में उन्नत, मन्त्र पद से उत्पन्न इस श्रेष्ठ महाविद्या को स्मरण करने वाला भोजन करता हुआ भी इस मन्त्र के जाप्य से आंशिक फल को प्राप्त कर लेता है। इसी में पांचों गुरू (पंचपरमेष्ठी) समाये हुए हैं, यह सोलह अक्षरों से युक्त है। भगवान अर्हन्त, सिद्ध, उपाध्याय और सभी साधुओं को नमस्कार है।

अस्याः शतद्वयं ध्यानी जपेदेकाग्रमानसः।
अनिच्छन्नप्यवाप्नोति चैकोपोषणजं फलं।।9।।

ध्यान करने वाले को इसका दो सौ बार जाप्य से ध्यान करना चाहिए। ऐसा विधिपूर्वक जाप्य करने वाला बिना इच्छा रखते हुए भी (मन्त्र की अमोघवीर्यता के कारण) एक उपवास का फल तो प्राप्त करता ही है।

विद्यां षड्वर्गसम्भूतामजेयां पुण्यशालिनीं।
जपन् प्रागुक्तमभ्येति फलं ध्यानी शतत्रयम्।।10।।

षड्वर्ग से उत्पन्न हुई, अजेय और पुण्यशालिनी इस विद्या का तीन सौ जाप्य करने से ध्यान करने वाला पूर्वोत्क (एकोपवास) फल को प्राप्त करता है।

अर्हन्मंत्रं चतुर्वर्णं चतुर्वर्गफलप्रदम्।
चतुःशतीं जपन् योगी चतुर्थस्य फलं लभेत्।।11।।

भगवान् अर्हंन्त, सिद्ध, उपाध्याय और साधु रूप चतुर्वर्ण यह मंत्र चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का फल प्रदान करने वाला है। इसका चार सौ संख्याप्रमाण जाप्य करने से योगी (भव्यजन) मोक्ष-फल को प्राप्त करता है।

अर्हन्त-अवर्णस्य सहस्त्रार्द्धम् जपन्नानन्दसंवृतः।
प्राप्नोत्येकोपवासस्य निर्जरां निर्जराशयः।।12।।

अर्हन्त भगवान् के अ-वर्ण के सहस्त्रवें भाग का आधा भी आनन्दयुक्त मन से जो जाप्य करता है, वह एकोपवास की निर्जरा को पाता है।

पंचवर्णमयी विद्या पंचतत्वोपल क्षिता।
मुनिवीरैः श्रुतस्कन्धाद् बीजबुद्धया समुद्धृता।।13।।

इस पंचवर्णमयी और पंचतत्वों से उपलक्षित विद्या का वीर मुनियों ने श्रुत के स्कन्धों से बीज के समान मानकर उद्धार किया है।

असिआउसा नमः।

एतद्धि कथितं शास्त्रे रूचिमात्रप्रसाधकम्।
किंचामीषां फलं सम्यक् स्वर्गमोक्षकलक्षणम्।।14।।

असिआउसा नमः। शास्त्र में इसे सभी इच्छाओं का पूर्ण करने बाला कहा है। और इसके फल के रूप में स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का बखान किया है।

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