जैन संस्कृति के समर्थ प्राचार्यों ने भी तीर्थङ्करों के पूर्वभवों के सुनहरे चित्र प्रस्तुत किये हैं। उन्हीं ग्रन्थों के आधार से अगली पंक्तियों में भगवान श्री ऋषभदेव के पूर्वभवों का चित्रण किया जा रहा है।
किसी भी महान, पुरुष के वर्तमान का सही मूल्यांकन करने के के लिए उसकी पृष्ठभूमि को देखना अत्यन्त आवश्यक है। उससे हमें पता चलता है कि अाज के महान पुरुष की महत्ता कोई आकस्मिक घटना नहीं, वरन जन्म जन्मान्तरों में की गई उसकी साधना का ही परिणाम है। पूर्वभवों का वर्णन उसके क्रम-विकास का सूचक है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर जैन इतिहास के लेखकों ने भगवान श्री ऋषभदेव के पूर्व भवों का विवेचन किया है, जिनसे प्रतीत होता है कि किस प्रकार क्रमशः उनकी आत्मा बलवत्तर होती गई और अन्त में उसका श्री ऋषभदेव के रूप में विकास सामने आया।
आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूणि, आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, और कल्पसूत्र की टीकाओं में श्री ऋषभदेव के तेरह भवों का उल्लेख है और दिगम्बराचार्य जिनसेन ने महापुराण में व प्राचार्य दामनन्दी ने पुराणसारसंग्रह में दस भवों का निरूपण किया है। अन्य दिगम्बर विज्ञों ने भी उन्हीं का अनुकरण किया है । श्वेताम्बराचार्यों ने श्री धन्ना सार्थवाह के भव से भवों की परिगणना की है और दिगम्बराचार्यों ने महाबल के भव से उल्लेख किया है । इनके अतिरिक्त अनेक जीवनप्रसंगों में भी अन्तर है। यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि इन भवों की जो परिगणना की गई है वह सम्यक्त्व उपलब्धि के पश्चात् की है ।१ श्री ऋषभदेव के जीव को अनादि काल के मिथ्यात्व रूपी निविड अन्धकार में से सर्वप्रथम धन्ना (धन) सार्थवाह के भव में मुक्ति मिली थी और सम्यग्दर्शन के अमित आलोक के दर्शन हुए थे।
धन्ना सार्थवाह
भगवान श्री ऋषभदेव का जीव एक बार अपर महाविदेह क्षेत्र के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में धन्ना सार्थवाह बनता है। उसके पास विपुल वैभव था, सुदूर विदेशों में वह व्यापार भी करता था। एक बार उसने यह उद्घोषणा करवाई कि जिसे वसन्तपुर व्यापारार्थ चलना है वह मेरे साथ सहर्ष चले । मैं सभी प्रकार की उसे सुविधाएँ दूंगा।' शताधिक व्यक्ति व्यापारार्थ उसके साथ प्रस्थित हुए।
धर्मघोष नामक एक जैन आचार्य भी अपने शिष्यसमुदाय सहित वसन्तपुर धर्म प्रचारार्थ जाना चाहते थे । पर, पथ विकट संकटमय होने से बिना साथ के जाना सम्भव नहीं था। आचार्य ने जब उद्घोषणा सूनी तो श्रेष्ठी के पास गये और श्रेष्ठी के साथ चलने की भावना अभिव्यक्त की।" श्रेष्ठी ने अपने भाग्य की सराहना करते हुए अनुचरों को श्रमणों के लिए भोजनादि की सुविधा का पूर्ण ध्यान रखने का आदेश दिया। प्राचार्य श्री ने श्रमणाचार का विश्लेषण करते हुए बताया कि श्रमरण के लिए प्रौद्द शिक, नैमित्तिक, आदि सभी प्रकार का दूषित आहार निषिद्ध है। उसी समय एक अनुचर आम का टोकरा लेकर आया, श्रेष्ठी ने ग्राम ग्रहण करने के लिए विनीत विनती की । पर, आचार्य श्री ने बताया कि श्रमण के लिए सचित्त पदार्थ भी अग्राह्य है। श्रमण के कठोर नियमों को सुनकर श्रेष्ठी अवाक् था।
आचार्य श्री भी सार्थ के साथ पथ को पार करते हुए बढ़े जा रहे थे। वर्षा ऋतु आई । आकाश में उमड़-घुमड़ कर घनघोर घटाएँ छाने लगी एवं गम्भीर गर्जना करती हुई हजार-हजार धाराओं के रूप में बरसने लगीं। उस समय सार्थ भयानक अटवी में से गुजर रहा था। मार्ग कीचड़ से व्याप्त था। सार्थ उसी अटवी में वर्षावास व्यतीत करने हेतु रुक गया। प्राचार्य श्री भी निर्दोष स्थान में स्थित हो गये । उस अटवी में सार्थ को अपनी कल्पना से अधिक रुकना पड़ा, अतः साथ की खाद्य सामग्री समाप्त हो गई । क्षुधा से पीड़ित सार्थ अरण्य में कन्द मूलादि की अन्वेषणा कर जीवन व्यतीत करने लगा। वर्षावास के उपसंहार काल में धन्ना सार्थवाह को अकस्मात् स्मृति आई कि 'मेरे साथ जो प्राचार्य आये थे उनकी आज तक मैंने सुध नहीं ली। उनके पाहार की क्या व्यवस्था है, इसकी मैंने जाँच नहीं की। कन्दमूलादि सचित्त पदार्थों का वे उपभोग नहीं करते।" वह शीघ्र ही प्राचार्य के पास गया और आहार के लिए अभ्यर्थना की।
आचार्य श्री ने श्रेष्ठी को कल्प्य और अकल्प्य का परिज्ञान कराया । श्रेष्ठी ने भी कल्प्य अकल्प्य का परिज्ञान कर उत्कृष्ट भावना से प्रासुक विपुल घृत दान दिया ।२२ फलस्वरूप सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई ।
उत्तरकुरु में मनुष्य
वहाँ से धन्ना सार्थवाह का जीव आयु पूर्ण कर दान के दिव्य प्रभाव से उत्तरकुरुक्षेत्र में मनुष्य हुआ।
सौधर्म देवलोक
वहाँ से भी प्रायुपूर्ण होने पर धन्ना सार्थवाह का जीव सौधर्म कल्प में देव रूप में उत्पन्न हुा ।
महाबल
वहाँ से च्यवकर धन्ना सार्थवाह का जीव पश्चिम महाविदेह के गंधिलावती विजय में वैताढ्य पर्वत की विद्याधर श्रेणी के अधिपति शतबल राजा का पुत्र महाबल हुआ ।
आचार्य जिनसेन व आचार्य दामनन्दी ने उसे अतिबल का पुत्र लिखा है। और प्राचार्य मलयगिरि व आचार्य हेमचन्द्र ने अतिबल का पौत्र लिखा है।
महाबल के पिता को एक बार संसार से विरक्ति हुई,पुत्र को राज्य दे वह स्वयं श्रमण बन गये। एक बार सम्राट महाबल अपने प्रमुख अमात्यों के साथ राज्य सभा में बैठे हुए मनोविनोद कर रहे थे।३५ उनके प्रमुख चार अमात्यों में से स्वगंबुद्ध अमात्य सम्यग्दृष्टि था, संभिन्नमति, शतमति, और महामति ये मिथ्यादृष्टि थे।
स्वयंबुद्ध ने देखा-सम्राट् भौतिक वैभव की चकाचौंध में जीवन के लक्ष्य को विस्मृत कर चुके हैं । उसने सम्राट को सम्बोध देने हेतु धर्म के रहस्य पर प्रकाश डालते हुए कहा-दया धर्म का मूल है। प्राणों की अनुकम्पा ही दया है । दया की रक्षा के लिए ही शेष गुणों का उत्कीर्तन किया गया है । दान, शील, तप, भावना, योग, वैराग्य उस धर्म के लिंग हैं । अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ही सनातन धर्म है।
अन्य अमात्यों ने परिहास करते हुए कहा-- मंत्रिवर! जब आत्मा ही नहीं है तब धर्म-कर्म का प्रश्न ही नहीं रहता। जिस प्रकार महुआ, गुड़, जल, आदि पदार्थों को मिला देने से उनमें मादक शक्ति पैदा हो जाती है, उसी प्रकार पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के संयोग से चेतना उत्पन्न हो जाती है। एतदर्थ ही लोक में पृथ्वी आदि तत्त्वों से बने हुए हमारे शरीर से पृथक् रहने वाला चेतना नामक कोई पदार्थ नहीं है। क्योंकि शरीर से पृथक् उसकी उपलब्धि नहीं होती । संसार में जो पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से पृथक् सिद्ध नहीं होते उनका अस्तित्व भी आकाशकूसूमवत् माना जाता है । वर्तमान के सूखों को त्याग कर भविष्य के सुखों की कल्पना करना "पाधी छोड़ एक को धावै, ऐसा डूबा थाह न पावै” की लौकिक कहावत चरितार्थ करना है।
नास्तिक मत का निरसन करते हुए स्वयंबुद्ध अमात्य ने कहापदार्थों को जानने का साधन केवल इन्द्रिय और मन का प्रत्यक्ष ही नहीं, अपितु अनुभव प्रत्यक्ष, योगि-प्रत्यक्ष, अनुमान और प्रागम भी हैं । इन्द्रिय और मन की शक्ति अत्यन्त सीमित है । इनसे तो चार पाँच पीढी के पूर्वज भी नहीं जाने जा सकते तो क्या उनका अस्तित्व भी न माना जाय ? इन्द्रियाँ केवल शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शात्मक मूर्त द्रव्य को जानती हैं और मन उन्हीं पदार्थों का चिन्तन करता है । यदि मन अमूर्त पदार्थों को जानता भी है तो आगम दृष्टि से ही । स्पष्ट है कि विश्व के सभी पदार्थ सिर्फ इन्द्रिय और मन से नहीं जाने जा सकते । आत्मा शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं है। वह अरूपी सत्ता है।४° अरूपी तत्त्व इन्द्रियों से नहीं जाने जा सकते।
आत्म-सिद्धि के प्रबल प्रमाण प्रस्तुत करते हुए उसने कहास्वसंवेदन से भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ—यह अनुभूति शरीर को नहीं होती, अतएव इस अनुभूति का कर्ता शरीर से भिन्न ही होना चाहिए। सभी को यह विश्वास होता है कि मैं हूँ, पर किसी को भी यह अनुभव नहीं होता कि मैं नहीं हूँ।
प्रत्येक इन्द्रिय को अपने विषय का ही परिज्ञान होता है, अन्य इन्द्रिय के विषय का नहीं। यदि आत्म-तत्त्व को न माना जाय तो सभी इन्द्रियों के विषयों का जोड़ रूप [संकलनात्मक] ज्ञान नहीं हो सकता, किन्तु पापड़ खाते समय स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द-इन पाँचों का संकलित ज्ञान स्पष्ट होता है । एतदर्थ इन्द्रियों के विषयों का संकलनात्मक परिज्ञान करने वाले को इन्द्रियों से पृथक् मानना होगा और वही आत्मा है।
आत्मा और शरीर एक नहीं है । जो चैतन्य है, वह शरीर रूप नहीं है और जो शरीर है, वह चैतन्य रूप नहीं है, क्योंकि दोनों एक दूसरे से स्वभावतः विसदृश हैं। चैतन्य चित्स्वरूप है-ज्ञान दर्शन रूप है और शरीर अचित्स्वरूप है-जड़ है। आत्मा और शरीर का सम्बन्ध वस्तुतः तलवार और म्यान की तरह है । प्रात्ना तलवार है और शरीर म्यान है। भूतचतुष्टय से प्रात्मा की उत्पति होना संभव नहीं है। क्योंकि जो जड़ है उससे चेतन की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? वस्तुतः कार्यकारणभाव और गुणगुणिभाव सजातीय पदार्थों में ही होता है, विजातीयों में नहीं। पुष्प, गुड और जल के संयोग से मादक शक्ति उत्पन्न होने का उदाहरण देना भी अनुपयुक्त है, क्योंकि गुड़ आदि भी जड़ हैं और उनसे समुत्पन्न मादक शक्ति भी जड़ है । यह तो सजातीय द्रव्य से ही सजातीय द्रव्य की उत्पत्ति हुई, न कि विजातीय द्रव्य की। यदि आप शरीर के साथ ही आत्मा की उत्पत्ति मानते हैं तो जन्मते ही शिशु में दुग्धपान की इच्छा और प्रवृत्ति कैसे होती है? अतः यह स्पष्ट है कि प्रात्मा है, वह नित्य है, फलतः पूर्वभव के संस्कारों से ही ऐसा होता है।
इस प्रकार स्वयंबुद्ध के अकाट्य तर्कों से नास्तिकवादी अमात्य परास्त हो गये। सभी ने आत्मा के पृथक् अस्तित्व को स्वीकार किया और महाबल राजा भी अत्यन्त आह्लादित हुआ।
स्वयंबुद्ध अमात्य ने अन्य अनेक उपनयों के द्वारा सम्राट को यह बताया कि शुभ और अशुभ कृत्यों का फल भी क्रमशः शुभ और अशुभ ही होता है । वार्ता का उपसंहार करते हुए उसने कहा- राजन्! आज प्रातः मैं नन्दन वन में परिभ्रमणार्थ गया था, वहाँ दो विशिष्ट लब्धिधारी मुनिवर पधारे । मैंने उनसे आपकी अवशेष आयु के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की तो उन्होंने बताया कि वह एक माह की ही शेष है।
सम्राट् महाबल अमात्य के मुंह से मुनि की भविष्यवाणी सुनकर सकपका गया। मृत्यु के भयानक आतङ्क से वह विह्वल हो गया। अमात्य ने निवेदन किया-राजन्! घबराइये नहीं, घबराने वाला योद्धा रणक्षेत्र में जूझ नहीं सकता। अमात्य की प्रेरणा से पुत्र को राज्यभार सँभलाकर महाबल मुनि बने । दुष्कृत्यों की आलोचना की, और बावीस दिन का संथारा कर समाधि पूर्वक आयुष्य पूर्ण किया।
इस प्रकार धन सार्थवाह का जीव, जो अब तक आध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका-सम्यग् दर्शन-तक ही पहुँच पाया था, इस भव में अधिक अग्रसर हुअ। इस बार उसने चतुर्थ गुरगस्थान से ऊपर उठ कर छठे-सातवें गुणस्थान की भूमिका पर पाँव रक्खा।
ललिताङ्ग देव
महाबल का जीव ऐशान कल्प में ललिताङ्ग देव हुआ और वह वहाँ स्वयंप्रभा देवी में अत्यधिक आसक्त बना । जब स्वयंप्रभा देवी वहाँ से च्यव जाती है तब ललिताङ्ग देव उसके विरह में प्राकुलव्याकुल बन जाता है । स्वयं बुद्ध अमात्य, जो इसी कल्प में देव बना था, आकर सान्त्वना देता है । स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से च्यव कर मानवलोक में निर्नामिका नामक बालिका होती है और वहाँ केवली भगवान् के उपदेश से श्राविका बन कर, आयु पूर्ण कर पुनः उसी कल्प में ललिताङ्ग देव की प्रिया स्वयंप्रभा देवी बनती है।" ललिताङ्ग देव मोह की प्रबलता के कारण पुनः उसमें आसक्त बनता है । अन्त में ललिताङ्ग देव नमस्कार महामन्त्र का जाप करते हुए प्रायु पूर्ण करता है ।
वनजङ्घ
वहाँ से च्यवकर ललिताङ्ग देव का जीव जम्बूद्वीप की पुष्कलावती विजय में लोहार्गल नगर के अधिपति सुवर्णजंघ सम्राट् की पत्नीलक्ष्मी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। वज्रजंघ नाम दिया गया।
महापुराणकार ने माता का नाम वसुन्धरा और पिता का नाम वज्रबाहुर और नगर का नाम उत्पलखेटक दिया है। स्वयंप्रभा देवी भी वहाँ से आयु पूर्ण कर आचार्य श्री हेमचन्द्र के अभिमतानुसार पुण्डरीकिरणी नगरी के स्वामी वज्रसेन राजा की धर्मपत्नी “गुणवती” रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुई। जन्म के पश्चात् उसका नाम 'श्रीमती' रखा । प्राचार्य श्री जिनसेन व प्राचार्य श्री दामनन्दी के मतानुसार उनके पिता का नाम "वज्रदन्त" और माता का नाम "लक्ष्मीमती" था।
एक बार "श्रीमती" महल की छत पर घूम रही थी कि उसी समय सन्निकटवर्ती उद्यान में एक मुनि को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। केवल महोत्सव करने हेतु देवगण आकाशमार्ग से आ-जा रहे थे । आकाश मार्ग से जाते हुए देवसमूह को निहार कर श्रीमती को पूर्वभव की स्मृति उबुद्ध हुई, उसने उस स्मृति को एक पट्ट पर चित्रित किया और अपने प्रति स्नेहमूर्ति पण्डिता परिचारिका को प्रदान किया। पण्डिता परिचारिका प्रस्तुत चित्रपट को लेकर राजपथ पर, जहाँ चक्रवर्ती वज्रसेन की वर्षगाँठ मनाने हेतु अनेक देशों के राजकुमार आ-जा रहे थे, खड़ी होगई । वज्रजंघ राजकुमार भी, जो पूर्वभव में ललिताङ्ग देव था, वहाँ आया हुआ था । उसने ज्यों ही वह चित्र-पट्ट देखा त्योंही उसे भी पूर्वभव की स्मृति जागृत हो गई। उसने चित्रपट्ट का सारा इतिवृत्त पण्डिता परिचारिका को बताया, और पण्डिता परिचारिका ने श्रीमती को निवेदन किया। श्रीमती की प्रेरणा से परिचारिका ने चक्रवर्तीसम्राट् वज्रसेन को श्रीमती और वज्रजंघ के पूर्वभव का परिचय प्रदान किया। चक्रवर्ती वज्रसेन ने 'श्रीमती' का वज्रजंघ के साथ पाणिग्रहण कर दिया।
महापुराणकार ने भी प्रस्तुत प्रसंग को कुछ हेर-फेर के साथ निरूपित किया है, पर तथ्य यही है ।
श्रीमती के साथ वज्रजंघ पुनः भोगों में आसक्त हुआ। सम्राट सुवर्णजंघ ने वज्रजंघ को राज्य देकर स्वयं दीक्षा ग्रहण की। और चक्रवर्ती वज्रसेन ने भी अपने पुत्र पुष्कलपाल को राज्य देकर दीक्षा ली। वह तीर्थङ्कर हुए। चक्रवर्ती वज्रसेन के संयम लेने के पश्चात् सीमाप्रान्तीय राजा पुष्करपाल की आज्ञा का उलंघन करने लगे। वज्रजंघ उसकी सहायतार्थ गया और शत्रुओं पर विजय वैजयन्ती फहराकर पुनः अपनी राजधानी लौट रहा था कि उसे ज्ञात हुआ कि प्रस्तुत अरण्य में दो मुनियों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है और उनके दिव्य प्रभाव से दृष्टिविष सर्प भी निविष हो गया है । वज्रजंघ मुनियों के दर्शन हेतु गया। उपदेश सुन वैराग्य उत्पन्न हा। पुत्र को राज्य देकर संयम ग्रहण करूँगा, इस भावना के साथ वह वहाँ से प्रस्थान कर राजधानी पहुँचा। इधर पुत्र ने सोचा कि पिताजी जीते जी मुझे राज्य देंगे नहीं, तदर्थ उसने उसी रात्रि को वज्रजंघ के महल में जहरीला धाँ फैलाया, जिसकी गंध से वज्रजंघ और 'श्रीमती' दोनों ही मृत्यु को प्राप्त हुए।
महापुराणकार आचार्य जिनसेन ने प्रस्तुत घटना का इस रूप में चित्रण किया है-"वज्रदन्त चक्रवर्ती ने अपने लघुभ्राता अमिततेज के पुत्र पुण्डरीक को राज्य देकर दीक्षा ली । पुण्डरीक अल्पवयस्क था, अतः चक्रवर्ती की पत्नी लक्ष्मी ने वज्रजंघ को सन्देश भेजा। उस सन्देश से वह सहायतार्थ प्रस्थान करता है कि मार्ग में दो चारण लब्धिधारी मुनिवरों के दर्शन होते हैं। वह उन्हें आहार दान देता है। और मुनि वज्रजंघ व श्रीमती के आगामी भावों का निरूपण करते हुए बताते हैं कि सम्राट् आप आठवें भव में तीर्थङ्कर बनेंगे।" 'श्रीमती' का जीव प्रथम दानधर्म का प्रवर्तक श्रेयांस होगा। मुनि की भविष्यवाणी को सुनकर दोनों अत्यन्त आह्लादित होते हैं।
वहाँ से सम्राट् वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरी जाकर महारानी को आश्वस्त करते हैं और उनके राज्य की सुव्यवस्था कर पुनः अपने नगर लौटते हैं।
युगल
वहाँ से दोनों ही आयुपूर्ण कर उत्तर कुरु में युगल-युगलिनी बने। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर ग्रन्थों में अन्य वर्णन नहीं है।
महापुराण व पुरागसार के मन्तव्यानुसार उस समय उस युगलयुगलिनी को सूर्य-प्रभदेव के गगनगामी विमान को निहारकर जाति स्मरण होता है और उसी समय वहाँ पर लब्धिधारी मुनि आते हैं। नमन कर वे उनसे पूछते हैं कि 'हे प्रभो! आप कौन हैं और कहाँ से आये हैं? उत्तर में ज्येष्ठ मुनि ने बतलाया कि 'पूर्व भव में जिस समय तुम्हारा जीव महाबल राजा था उस समय मैं तुम्हारा स्वयंबुद्ध मन्त्री था। संयम धारण कर मैं सौधर्म स्वर्ग में स्वयंप्रभ विमान में मणिचूल नामक देव बना। वहाँ से प्रच्युत होकर मैं पुण्डरीकिरणी नगरी में राजा प्रियसेन का ज्येष्ठपुत्र प्रीतिकर हुआ । मेरी माता का नाम सुन्दरी है और लवुभ्राता का नाम प्रीतिदेव है, जो संप्रति मेरे साथ ही हैं। हम दोनों ही भ्राताओं ने स्वयंप्रभ जिनराज के समीप दीक्षा लेकर तपोबल से अवधिज्ञान तथा चारण ऋद्धि प्राप्त की है। आपको यहाँ जानकर हम आपको सम्यक्त्व रूपी रत्न देने के लिए आये हैं।'
सम्यक्त्व रूपी रत्न से बढ़कर विश्व में न कोई वस्तु है, न हुई है और न होगी ही। इसी से भव्य प्राणियों ने मुक्ति प्राप्त की है तथा आगे प्राप्त करेंगे। अतएव सम्यक्त्व सवसे श्रेष्ठ है । जब देशनालब्धि और काललब्धि आदि बहिरंग कारण और करण लब्धिरूप अन्तरंग कारण मिलता है तभी भव्यप्राणी विशुद्ध सम्यग्दर्शन का पात्र बन सकता है । जो पुरुष एक अन्तमुहूर्त के लिए भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है वह इस संसार रूपी बेल को काट कर बहुत ही लघु कर देता है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन के महत्त्व को समझाकर और दोनों को रत्नत्रय में प्राद्य-रत्न सम्यक्त्व को देकर वे चारणमुनि अपने स्थान चले गये ।
सौधर्मकल्प
वहाँ से वे आयु पूर्ण कर सौधर्मकल्प में देव बने । महापुरार तथा पुराणसार में उनका नाम श्रीधर देव लिखा है ।
जीवानन्द वैद्य
वहाँ से च्यवकर धन्नासार्थवाह का जीव जम्बूद्वीप के क्षितिप्रतिष्ठ नगर में सुविधि वैद्य का पुत्र जीवानन्द वैद्य बना । उस समय वहाँ पाँच अन्य जीव भी उत्पन्न होते हैं। प्रथम सम्राटपुत्र महीधर, द्वितीय मन्त्रीपुत्र सुबुद्धि, तृतीय सार्थवाहपुत्र पूर्णभद्र, चतुर्थ श्रेष्ठिपुत्र गुणाकर और पाँचवाँ ईश्वरदत्तपुत्र केशव [श्रीमती का जीव] इन छहों में पय-पानी सा प्रेम था ।
अपने पिता की तरह जीवानन्द भी आयुर्वेदविद्या में प्रवीण था। उसकी प्रतिभा की तेजस्विता से सभी प्रभावित थे । एक दिन सभी स्नेही साथी वार्तालाप कर रहे थे कि वहाँ एक दीर्घतपस्वी भिक्षा के लिए आये । वे गृहस्थाश्रम में पृथ्वीपाल राजा के पुत्र थे, जिन्होंने राज्यश्री को त्यागकर उग्रतपस्या प्रारम्भ की थी। असमय व अपथ्य भोजन के सेवन से वे कृमि-कुष्ठ की भयंकर व्याधि से ग्रसित हो गये थे। उन्हें निहारकर समाट् पुत्र महीधर ने कहा--मित्रवर! आप अन्य की चिकित्सा करते हैं, चिकित्सा करने में कुशल भी हैं, पर मुझे अत्यन्त परिताप है कि आपके अन्तर्मानस में दया की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित नहीं हो रही है। कृमिकुष्ठ रोग से ग्रसित मुनि को देखकर भी आप चिकित्साहेतु प्रवृत्त नहीं हो रहे हैं ।
प्रत्युत्तर में जीवानन्द ने कहा-मित्र! तुम्हारा कथन सत्य है --
पर इस रोग की चिकित्सा के लिए जिन औषधियों की आवश्यकता है, वे मेरे पास नहीं हैं । मित्रों ने कहा-बताइये किन-किन औषधियों की आवश्यकता है? वे कहाँ पर उपलब्ध हो सकेंगी? हम मूल्य देंगे और जैसे भी होगा, लाने का प्रयास करेंगे। जीवानन्द ने कहा-रत्नकम्बल, गोशीर्षचन्दन, और लक्षपाक तैल । पूर्व की दो औषधियाँ मेरे पास नहीं हैं। उसी क्षण वे पाँचों साथी औषध लाने के लिए प्रस्थित हुए। औषधियों की अन्वेषणा करते हुए एक श्रेष्ठी की विपरिण पर पहुँचे । श्रेष्ठी से औषधहेतु जिज्ञासा व्यक्त करने पर श्रेष्ठी ने कहा-प्रत्येक वस्तु का मूल्य एक-एक लाख दीनार है । वे उस मूल्य को देने के लिए ज्योंही प्रस्तुत हुए, त्योंही श्रेष्ठी ने प्रश्न किया-ये अमूल्य वस्तुएँ किस लिए चाहिएँ? उन्होंने बताया--मुनि की चिकित्सा के लिए । मुनि का नाम सुनते ही श्रेष्ठी सोचने लगा कि “इन युवकों की धार्मिक निष्ठा अपूर्व है।" उसने बिना मूल्य लिये औषधियाँ देदीं। वे उन वस्तुओं को लेकर वैद्य के पास गये। जीवानन्द वैद्य भी अपने स्नेही साथियों के साथ उन औषधियों को तथा मृत-गोचर्म को लेकर उद्यान में पहुँचा, जहाँ मुनि ध्यान मुद्रा में अवस्थित थे । उन्होंने मुनि को वन्दन किया और उनकी स्वीकृति लिए बिना ही आरोग्य प्रदान करने हेतु सर्वप्रथम लक्षपाक तैल से मर्दन किया। उष्णवीर्य तैल के प्रभाव से शरीरस्थ कृमियाँ बाहर निकलने लगी तो उन्होंने शोतवीर्य रत्नकम्बल से मुनि के शरीर को आच्छादित कर दिया, जिससे वे शरीरस्थ कृमि रत्न-कम्बल में आगई। उसके पश्चात् रत्न कम्बल की कृमियों को मृत-गोचर्म में स्थापित कर दिया, जिससे उनका प्राणघात न हो । उसके पश्चात् पुनः मर्दन किया और रत्नकम्बल से आच्छादित करने पर मांसस्थ कृमियाँ निकल आई । तृतीय बार पुनः मर्दन किया और रत्नकम्बल प्रोढ़ा देने पर अस्थिगत कृमियाँ निकल गई । जब शरीर कृमियों से मुक्त हो गया तो उस पर गोशीर्षचन्दन का लेप किया, जिससे मुनि पूर्ण स्वस्थ हो गये ।
मुनि की स्वस्थता देखकर छहों मित्र अत्यन्त प्रमुदित हुए। मुनि के तात्त्विक प्रवचन को सुन कर छहों को संसार से विरक्ति हुई, उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और उत्कृष्ट संयम की साधना की ।
महापुराण और पुराणसार में जीवानन्द वैद्य का भव नहीं बताया है। उन्होंने लिखा है कि देवलोक से च्युत होकर जम्बूद्वीपस्थ वत्सकावती देश की सुसीमा नगरी में वह सुदृष्टि राजा और सुन्दरनन्दा रानी की कुक्षि से सुविधि पुत्र हुआ, और श्रीमती का जीव उसी का पुत्र केशव हुआ। केशव के प्रेम के कारण प्रारम्भ में उसके पिता सुविधि ने संयम न लेकर श्रावक व्रत स्वीकार किया११४ और अन्त में दीक्षा लेकर संलेखनायुक्त समाधि मरण प्राप्त किया ।
अच्युत देवलोक
आयु पूर्ण कर जीवानन्द का जीव तथा अन्य साथी बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुए। महापुराण और पुराणसार के अनुसार भी सुविधि का जीव बारहवें देवलोक में ही उत्पन्न हुआ ।
वज्रनाभ
जीवानन्द का जीव देवलोक की आयु समाप्त होने पर पुष्कलावती विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के अधिपति वज्रसेन राजा की धारिणी रानी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उत्पन्न होते ही माता ने चौदह महास्वप्न देखे । जन्म होने पर पुत्र का ना नाम "वज्रनाभ" रखा । पूर्व के पाँचों साथियों में से चार क्रमशः बाहु, सुबाहु, पीठ और महापीठ, नामक उनके भ्राता हुए और एक उनका सारथी हुमा ।
अपने ज्येष्ठ पुत्र वज्रनाभ को राज्य देकर सम्राट् वज्रसेन ने संयम ग्रहण किया, उत्कृष्ट संयम की साधना कर कैवल्य प्राप्त किया तथा तीर्थ की संस्थापना कर वे तीर्थङ्कर बने ।
सम्राट् वज्रनाभ पूर्वभव में मुनि की सेवा शुश्र षा करने के फलस्वरूप षट्खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् बने और शेष भ्राता माण्डलिक राजा हुए । दीर्घकाल तक राज्य श्री का उपभोग करने के पश्चात् अपने पूज्य पिता तीर्थङ्कर वज्रसेन के प्रभावपूर्ण प्रवचनों को सुनकर उनके मानस में, वैराग्य का उदधि उछाले मारने लगा।
अपने प्रिय लघु-भ्राताओं तथा सारथी के साथ वज्रनाभ चक्रवर्ती ने प्रव्रज्या ग्रहण की। संयम ग्रहण करने के पश्चात् वज्रनाभ ने आगमों का गम्भीर अनुशीलन-परिशीलन करते हुए चौदह पूर्व तक अध्ययन किया और अन्य शेष भ्राताओं ने एकादश अङ्गों का । अध्ययन के साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट तप तथा अनेक चामत्कारिक लब्धियाँ प्राप्त की तथा अरिहन्त, सिद्ध, प्रवचन-प्रभृति बीस निमित्तों की आराधना से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया । आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूणि आदि के अनुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के जीव ने बीस ही स्थानों की आराधना व साधना की। अन्य तीर्थङ्करों के जीवों ने एक, दो, तीन आदि की आराधना करके ही तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया।
महापुराण व पुराणसार प्रभृति दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में बीस१२६ स्थानों के बदले सोलह भावनाओं का उल्लेख किया गया है। किन्तु शाब्दिक दृष्टि से अन्तर होने पर भी दोनों में भावना की दृष्टि से विशेष कोई अन्तर नहीं है।
जैनसंस्कृति की तरह ही बौद्ध संस्कृति ने भी बुद्धत्व की उपलब्धि के लिए दान, शील, नैष्का , प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति, सत्य अधिष्ठान [दृढ़ निश्चय], मैत्री ; उपेक्षा [सुख दुख में समस्थिति] दस पारमिताएँ [पाली रूप पारमी] अपनाना आवश्यक माना है । दस पारमिताओं और बीसस्थानों में भी अत्यधिक समानता है। तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रमण संस्कृति की दोनों ही धाराओं ने तीर्थङ्कर व बुद्ध, बनने के लिए पूर्वभवों में ही प्रात्म-मन्थन, चित्तग्रंथन, गुणों का उत्कीर्तन तथा गुणों का धारण करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना है।
वज्रनाभ मुनि ने भी विशुद्ध परिणाम से श्वेताम्बर ग्रंथानुसार बीस स्थानकों की और दिगम्बर ग्रन्थानुसार सोलह भावनाओं की आराधना कर तीर्थङ्कर नाम गोत्र का अनुबन्धन किया । अन्त में मासिक संलेखनापूर्वक पादपोपगमसंथारा करसमाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण किया।
यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि वज्रनाभ के शेष चारों लघु भ्राताओं में से बाहुमुनि मुनियों की वैयावृत्य करता और सुबाहु मुनि परिश्रान्त मुनियों को विश्रामणा देता - अर्थात् थके हुए मुनियों के अवयवों का मर्दन आदि करके सेवा करता। दोनों की सेवा भक्ति को निहार कर वज्रनाभ अत्यधिक प्रसन्न हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए बोले-तुमने सेवा और विश्रामणा के द्वारा अपने जीवन को सफल किया है ।
ज्येष्ठ भ्राता के द्वारा अपने मझले भ्राताओं की प्रशंसा सुनकर पीठ, महापीठ मुनि के अन्तर्मानस में ये विचार जागृत हुए कि हम स्वाध्याय आदि में निरन्तर तन्मय रहते हैं, पर खेद है कि हमारी कोई प्रशंसा नहीं करता, जबकि वैयावृत्य करने वालों की प्रशंसा होती है। इस ईर्ष्याबुद्धि की तीव्रता से मिथ्यात्व पाया और उन्होंने स्त्री वेद का बन्धन किया । आलोचन-प्रतिक्रमण न करने पर स्वल्प दोष भी अनर्थ का कारण बन जाता है ।
सेवा के कारण बाहुमुनि ने चक्रवर्ती के विराट् सुखों के योग्य कर्म उपाजित किये और सुबाहु मुनि ने विश्रामणा के द्वारा लोकोत्तर बाहुबल को प्राप्त करने योग्य कर्पबन्धन किया।
प्रस्तुत प्रसंग महापुराण में नहीं है।
सर्वार्थसिद्ध
आयु पूर्ण कर वज्रनाभ आदि पांचों भाई सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए, वहाँ वे तेतीस सागरोपम तक सुख के सागर में तैरते रहे ।
श्री ऋषभदेव
सर्वार्थसिद्ध की आयु समाप्त होने पर सर्वप्रथम वज्रनाभ का जीव च्युत हुआ और वह जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र की इक्ष्वाकुभूमि में अन्तिम कुलकर "नाभि" की पत्नी मरुदेवी की कुक्षि में आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र के योग में उत्पन्न हुआ। चैत्र कृष्णा अष्टमी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के योग में उनका जन्म हुआ । "श्री ऋषभ" यह नाम रखा गया।
उसके पश्चात् बाहुमुनि का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवकर पूर्वभव के वैयावृत्य के दिव्य प्रभाव से श्री ऋषभदेव का पुत्र भरत चक्रवर्ती हुआ। सुबाहुमुनि का जीव पूर्वभव में मुनियों को विश्रामणा देने से श्रीऋषभ के पुत्र बाहुबली हुए जो विशिष्ट बाहुबल के अधिपति थे ।
पीठ और महापीठ मुनि के जीवों का ईर्ष्या करने से क्रमशः श्री ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी और सुन्दरी के रूप में जन्म हुआ।
भगवान् श्री ऋषभदेव के विराट् व्यक्तित्व और कृतित्व की झाँकी अगले खण्ड में प्रस्तुत है। यहाँ तो श्रीऋषभदेव के पूर्वभवों का संक्षिप्त रेखा-चित्र उपस्थित किया गया है जो पतनोत्थान का जीवित भाष्य है। श्रमणसंस्कृति का यह उद्घोष रहा है कि जब आत्मा पर-परिणति से हटकर स्व-परिगति को अपनाता है तब शनैः शनैः शुद्ध बुद्ध निर्मल होता हुआ एक दिन परमात्मा बन जाता है । कर्मपाश से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त होने का नाम ही परमात्मअवस्था है।
इस प्रकार श्रमण संस्कृति ने निजत्व में ही जिनत्त्व की पावनप्रतिष्ठा कर जन-जन के अन्तर्मानस में प्राशा और उल्लास का संचार किया। प्रसूप्त-देवत्त्व को जगाकर आत्मा से परमात्मा, भक्त से भगवान् और नर से नारायण बनने का पवित्र संदेश दिया।