।। संघ ।।

भगवान् के आध्यात्मिक पावन प्रवचनों को श्रवण करके भगवान् के संघ में चौरासी हजार श्रमण बने । तीन लाख श्रमणियाँ बनीं, तीन लाख पाँच हजार श्रावक बने और पाँच लाख चोपन हजार श्राविकाएँ हुई ।

भगवान् ऋषभदेव के श्रमण चौरासी भागों में विभक्त थे । वे विभाग गण के नाम से पहचाने जाते थे। इन गणों का नेतृत्व करने वाले गणधर कहलाते थे, जिनकी संख्या चौरासी थी। श्रमणश्रमणियों की सम्पूर्ण व्यवस्था इनके अधीन थी।

धार्मिक प्रवचन करना, अन्य तीथिक या अपने शिष्यों के प्रश्नों का समाधान करना और धार्मिक नियमोपनियम का परिज्ञान कराना-ये कार्य भ० ऋषभदेव के अधीन थे और शेष कार्य गणधरों के।

गुण की दृष्टि से श्री ऋषभदेव के श्रमणों को सात विभागों में विभक्त कर सकते हैं । (१) केवलज्ञानी, (२) मनःपर्यवज्ञानी (३) अवधिज्ञानी (४) वैक्रियद्धिक, (५) चतुर्दशपूर्वी (६) वादी (७) सामान्य साधु।

केवल ज्ञानी अथवा पूर्ण ज्ञानियों की संख्या बीस हजार थी। ये प्रथम श्रेणी के ज्ञानी श्रमण थे। श्री ऋषभदेव के समान ही इनको भी पूर्ण ज्ञान था। ये धर्मोपदेश भी प्रदान करते थे।

दूसरी श्रेणी के श्रमण मनः पर्यवज्ञानी, अर्थात् मनोवैज्ञानिक थे। ये समनस्क प्राणियों के मानसिक भावों के परिज्ञाता थे। इनकी संख्या बारह हजार, छह सौ, पचास थी।

तृतीय श्रेणी के श्रमण अवधिज्ञानी थे। अवधि का अर्थ-सीमा है। अधिज्ञान का विषय केवल रूपी पदार्थ हैं। जो रूप, रस, गंध, और स्पर्श युक्त समस्त रूपी पदार्थों (पुद्गलों) के परिज्ञाता थे। इनकी संख्या नौ हजार थी।

चतुर्थ श्रेणी के साधक वैक्रियद्धिक थे। अर्थात् योगसिद्धि प्राप्त श्रमण थे । जो प्रायः तप जप व ध्यान में तल्लीन रहते थे । इन श्रमणों की संख्या बीस हजार छह सौ थी।

पंचम श्रेणी के श्रमण चतुर्दश पूर्वी थे। ये सम्पूर्ण अक्षर ज्ञान में पारंगत थे। इनका कार्य था शिष्यों को शास्त्राभ्यास कराना । इनकी संख्या सैतालीस सौ पचास थी।

छठी श्रेणी के श्रपण वादी थे । ये तर्क और दार्शनिक सिद्धान्तों की चर्चा करने में प्रवीण थे। अन्य तीथियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें आहत धर्म के अनुकूल बनाना, इनका प्रमुख कार्य था। इनकी संख्या बारह हजार छह सौ पचास थी।

सातवीं श्रेणी में वे सामान्य श्रमण थे जो अध्ययन, तप, ध्यान तथा सेवा-शुश्रुषा किया करते थे।

इस प्रकार श्री ऋषभदेव की संघ-व्यवस्था सुगठित और वैज्ञानिक थी। धार्मिक राज्य की सूव्यवस्था करने में वे सर्वतंत्र-स्वतंत्र थे। लक्षाधिक व्यक्ति उनके अनुयायी थे और उनका उन पर अखण्ड प्रभुत्व था।

भगवान् श्री ऋषभदेव सर्वज्ञ होने के पश्चात् जीवन के सान्ध्य तक आर्यावर्त में पैदल घूम-घूमकर आत्म-विद्या की अखण्ड ज्योति जगाते रहे । देशना रूपी जल से जगत् की दुःखाग्नि को शमन करते रहे। जन-जन के अन्तर्मानस में त्याग-निष्ठा व संयम-प्रतिष्ठा उत्पन्न करते रहे।