।। गृहस्थ-जीवन ।।

महापुरुषों का देश

भारतवर्ष महापुरुषों का देश है, इस विषय में संसार का कोई भी देश या राष्ट्र भारतवर्ष की तुलना नहीं कर सकता। यह अवतारों की जन्मभूमि है, सन्तों की पुण्यभूमि है, वीरों की कर्मभूमि है, और विचारकों की प्रचार-भूमि है। यहाँ अनेक नररत्न, समाजरत्न एवं राष्ट्ररत्न पैदा हुए हैं, जिन्होंने मानव मन की सूखी धरणी पर स्नेह की सरस सरिता प्रवाहित की। जन-जीवन में अभिनव जागृति का संचार किया। जन-मन में संयम और तप की ज्योति जगाई । अपने पवित्र चरित्र के द्वारा और तपः पूत वाणी के द्वारा, कर्तव्य मार्ग में जूझने की अमर प्रेरणा दी।

युग-पुरुष

गगन-मण्डल में विचरती हुई विद्युत तरंगों को पकड़ कर जैसे बेतार का तार उन विद्युत्तरंगों को भाषित रूप देता है, अव्यक्त वाणी को व्यक्त करता है, वैसे ही समाज में या राष्ट्र में जो विचारधाराएँ चलती हैं, उन्हें प्रत्येक विचारक अनुभव तो करता है किन्तु अनुभूति की तीव्रता के अभाव में अभिव्यक्त नहीं कर सकता। युग-पुरुष की अनुभूति तीव्र होती है और अभिव्यक्ति भी तीब्र होती है। वह जनता जनार्दन की अव्यक्त विचारधारात्रों को बेतार के तार की भाँति मुखरित ही नहीं करता बल्कि उसे नूतन स्वरूप प्रदान करता है। उनकी विमल-वारणी में युग की समस्याओं का समाधान निहित होता है। उसके कर्म में युग का कर्म क्रियाशील होता है और उसके चिन्तन में युग का चिन्तन चमकता है । युग-पुरुष अपने युग का सफल प्रतिनिधित्व करता है। जन-जन के मन का साधिकार नेतृत्व करता है एवं वह युग की जनता को सही दिशा-दर्शन देता है। भूले-भटके जीवन राहियों का पथप्रदर्शन करता है। अतः वह समाज रूपी शरीर का मुख भी है और मस्तिष्क भी है।

भगवान् श्री ऋषभदेव ऐसे ही युगपुरुष थे, जिन्होंने अपने युग की भोली-भाली जनता को “सत्ययं, शिवं सुन्दरम्” का पाठ पढ़ाया, जनजीवन को नया विचार, नयी वाणी एवं नया कर्म प्रदान किया ।भोगमार्ग से हटाकर कर्ममार्ग, प्रवृत्तिमार्ग और योगमार्ग पर लगाया । अज्ञानान्धकार को हटाकर ज्ञान का विमल आलोक प्रज्ज्वलित किया । मानव-संस्कृति का नव-निर्माण किया । यही कारण है कि अनन्त-अतीत की धूलि भी उनके जीवन की चमक एवं दमक को आच्छादित नहीं कर सकी।

भारतीय संस्कृति के आद्यनिर्माता

आज मानवसंस्कृति के प्राद्यनिर्माता महामानव भगवान् श्री ऋषभदेव को कौन नहीं जानता? वे वर्तमान अवसर्पिणी काल-चक्र में सर्वप्रथम तीर्थङ्कर हुए हैं।' उन्होंने ही सर्वप्रथम पारिवारिक प्रथा, समाजव्यवस्था, शासनपद्धति, समाजनीति और राजनीति की स्थापना की और मानवजाति को एक नया प्रकाश दिया जिसका उल्लेख अगले पृष्ठों में किया जाएगा।

जन्म से पूर्व

भगवान् श्री ऋषभदेव ऐसे युग में इस अवनीतल पर आये जब आर्यावर्त के मानवीय जीवन में आमूलचूल परिवर्तन हो रहा था। जीवन का ढंग पूरी तरह पलट रहा था। निष्क्रिय-यौगलिक-काल समाप्त होकर कर्मयुग का प्रारम्भ होने जा रहा था। प्रतिपल, प्रतिक्षण मानव की आवश्यकताएँ तो बढ़ रही थीं पर उस युग के जीवन निर्वाह के एक मात्र साधन कल्पवृक्षों की शक्ति क्षीण हो रही थी। साधनों की अल्पता से संघर्ष होने लगा, वाद-विवाद, लूट-खसोट और छीना-झपटी होने लगी। संग्रहबुद्धि पैदा होने लगी। स्नेह, सरलता, सौम्यता, निस्पृहता प्रभृति सद्गुणों में परिस्थिति की विवशता से परिवर्तन आने लगा। अपराधी मनोभावना के बीज अंकुरित होने लगे।

शासन व्यवस्था

प्रस्तुत सन्दर्भ के प्रकाश में हम जैन संस्कृति की दृष्टि से देखें तो भी शासन व्यवस्था का मूल अपराध और अव्यवस्था ही है । अपराध और अव्यवस्था पर नियंत्रण पाने के हेतु सामूहिक जीवन जीने के लिए मानव विवश हुा । मानव की अन्तः प्रकृति ने उसे प्रेरणा प्रदान की। उस सामूहिक व्यवस्था को 'कुल' कहा गया। कुलों का मुखिया जो प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न होता था वह 'कुलकर' कहलाने लगा। वह उन कुलों की सुव्यवस्था करता।'

कुलकरों की संख्या

कुलकरों की संख्या के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं । स्थानाङ्ग समवायांग" भगवती, आवश्यकचूर्णि,६ आवश्यकनियुक्ति तथा त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्र में सात कुलकरों के नाम उपलब्ध होते हैं । पउमचरियां, महापुराण और सिद्धान्त संग्रह" में चौदह के तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में पन्द्रह के नाम मिलते हैं । सम्भवतः अपेक्षा भेद से इस प्रकार हुआ हो।

कुलकरों को आदिपुराण में 'मनु' भी कहा है। वैदिक साहित्य में कुलकरों के स्थान में 'मनु' शब्द ही व्यवहृत हुआ है । मनुस्मृति में स्थानांग की तरह सात मनुओं का उल्लेख है तो अन्यन्त्र चौदह का भी।" संक्षेप में चौदह या पन्द्रह कुलकरों को सात में अन्तर्निहित किया जा सकता है। चौदह या पन्द्रह कुलकरों का जहाँ उल्लेख है, उसमें प्रथम छः सर्वथा नये हैं और ग्यारहवें कुलकर चन्द्राभ का भी उल्लेख नहीं है। शेष सात वे ही हैं ।

दण्डनीति

अपराधी मनोवृत्ति जब व्यवस्था का अतिक्रमण करने लगी तब अपराधों के निरोध के लिये कुलकरों ने सर्वप्रथम दण्डनीति ६ का प्रचलन किया । वह दण्डनीति हाकार, माकार और धिक्कार थी।

हाकार नीति

सात कुलकरों की दृष्टि से प्रथम कुलकर विमल वाहन के समय हाकार नीति का प्रचलन हुआ। उस युग का मानव आज के मानव की तरह अमर्यादित व उच्छखल नहीं था। वह स्वभाव से ही संकोची और लज्जाशील था। अपराध करने पर अपराधी को इतना ही कहा जाता-"हा! अर्थात् तुमने यह क्या किया?" यह शब्द-प्रताड़ना उस युग का महान् दण्ड था। अपराधी पानी-पानी हो जाता। प्रस्तुत नीति द्वितीय कुलकर "चक्षुष्मान्" के समय तक सफलता क साथ चली।

माकार नीति

जब "हाकार नीति” विफल होने लगी, तब “माकार नीति" का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। तृतीय और चतुर्थ कुलकर “यशस्वी' और "अभिचन्द्र" के समय तक लघु अपराध के लिए "हाकार नीति" और गुरुतर अपराध के लिए "माकार नीति" प्रचलित रही । “मत करो" यह निषेधाज्ञा महान् दण्ड समझी जाने लगी।

धिक्कारनीति

मगर जन साधारण की धृष्ठता क्रमशः बढ़ती जा रही थी, अतः माकारनीति के भी असफल हो जाने पर "धिक्कारनीति" का प्रादुर्भाव हुआ। और यह नीति पाँचवें प्रसेनजित्, छठे मरुदेव तथा सातवें कुलकर नाभि तक चलती रही। इस प्रकार खेद, निषेध और तिरस्कार मृत्युदण्ड से भी अधिक प्रभावशाली थे । क्योंकि उस समय का मानव स्वभाव से सरल और मानस से कोमल था। उस समय तक अपराधवृत्ति का विशेष विकास नहीं हुआ था।