अन्तिम कुलकर नाभि के समय यौगलिक सभ्यता क्षीण होने लगी, और एक नयी सभ्यता मुस्कुराने लगी। उस सन्धिवेला में श्री ऋषभदेव सर्वार्थविमान से च्यवकर माता मरुदेवी की कुक्षि में आये । उनके पिता नाभि थे ।
जब बालक गर्भ में आता है तब गर्भ का माता के मानस पर, और माता के मानस का गर्भ पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि किसी विशिष्ठ पुरुष के गर्भ में आने पर उसकी माता कोई श्रेष्ठ स्वप्न देखती है। श्री ऋषभदेव के गर्भ में आने पर माता मरुदेवी ने भी (१) गज, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी, (५) पुष्पमाला, (६) चन्द्र, (७) सूर्य (८) ध्वजा, (६) कुम्भ, (१०) पद्मसरोवर, (११) क्षीर-समुद्र, (१२) विमान, (१३) रत्नराशि, (१४) निधूम अग्नि ये चौदह महास्वप्न देखे । दिगम्बराचार्य जिनसेन ने सोलह स्वप्न देखने का उल्लेख किया है । उपर्युक्त चौदह स्वप्नों में से ध्वजा को उन्होंने स्थान नहीं दिया है। शेष तेरह स्वप्न वे ही हैं। उनके अतिरिक्त, (१) मत्स्ययुगल (२) सिंहासन, (३) नागेन्द्र का भवन-ये तीन स्वप्न अधिक हैं। श्वेताम्बरमान्यतानुसार नरक से आने वाले तीर्थङ्करों की माता स्वप्न में भवन देखती हैं और स्वर्ग से आने वालों की माता विमान ।२९ उन्होंने विमान और भवन के स्वप्न को वैकल्पिक माना है।
भगवान् श्री ऋषभदेव का जन्म जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, आवश्यक, त्रिषष्ठिशालाकापुरुषचरित्र, प्रभृति श्वेताम्बरग्रन्थानुसार चैत्र कृष्णा अष्टमी को हुआ और दिगम्बराचार्य जिनसेन के अनुसार नवमी को । संभव है अष्टमी की मध्यरात्रि होने से श्वेताम्बर परम्परा ने अष्टमी लिखा हो और प्रातःकाल जन्म मानने से दिगम्बर परम्परा ने नवमी लिखा हो । इस भेद का प्रमुख कारण हमारी दृष्टि से उदय और अस्त तिथि की पृथक्-पृथक् मान्यता हो सकती है।
नाम
मां मरुदेवी ने जो चौदह महास्वप्न देखे थे। उनमें सर्वप्रथम वृषभ का स्वप्न था और जन्म के पश्चात् भी शिशु के उरु-स्थल पर वृषभ का लांछन था अतः उनका नाम "ऋषभ' रखा गया । भागवत् के मंतव्यानुसार उनके सुन्दर शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश और पराक्रम प्रभृति सद्गुणों के कारण महाराजा नाभि ने उनका नाम ऋषभ दिया ।
भगवती, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायाङ्ग, चतुर्विशतिस्तव, कल्पसूत्र, नन्दीसूत्र, निशीथचूणि आदि आगमसाहित्य में यही नाम आया है। उनके नाम के साथ "नाथ" और "देव" शब्द कब जुड़े, यह कहना कठिन है, तथापि यह स्पष्ट है कि ये शब्द उनके प्रति भक्ति और श्रद्धा के सूचक हैं।
दिगम्बरपरम्परा में ऋषभदेव के स्थान पर "वृषभदेव” भी प्रसिद्ध है। वृषभदेव जगत् भर में ज्येष्ठ हैं और जगत् का हित करने वाले धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेंगे, एतदर्थ ही इन्द्र ने उनका नाम वृषभदेव रखा । वृष कहते हैं श्रेष्ठ को। भगवान् श्रेष्ठ धर्म से शोभायमान हैं, इसलिए भी इन्द्र ने उन्हें 'वृषभ स्वामी' के नाम से पुकारा। श्री ऋषभदेव धर्म और कर्म के प्राद्यनिर्माता थे, एतदर्थ जैन इतिहासकारों ने उनका एक नाम 'आदिनाथ” भी लिखा है और यह नाम अधिक जन-मन प्रिय भी रहा है ।
श्री ऋषभदेव प्रजा के पालक थे, एतदर्थ प्राचार्य जिनसेन४४ व प्राचार्य समन्तभद्र ने उनका एक गुण-निष्पन्न नाम 'प्रजापति' भी लिखा है । इनके अतिरिक्त उनके काश्यप, विधाता, विश्वकर्मा और स्रष्टा आदि अनेक नाम भी प्रसिद्ध हैं।
आदिपुरुष
भगवान् श्री ऋषभदेव जैनसंस्कृति की दृष्टि से प्रथम तीर्थङ्कर हैं । श्रीमद्भागवत की दृष्टि से वे विष्णु के अवतार हैं। भगवान श्री विष्णु महाराजा नाभि का प्रिय करने के लिये उनके अन्तःपुर की महारानी मरुदेवी के गर्भ में आये। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया ।
शिव महापुराण के अनुसार भगवान् श्री ऋषभदेव शिव के अट्ठाईस योगावतारों में आठवें योगावतार हैं। उन्होंने ऋषभदेव के रूप में अवतार ग्रहण किया। प्रभास पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख है।
डाक्टर राजकुमार जैन ने “वृषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ' शीर्षक लेख में वेद, उपनिषद्, भागवत प्रभृति ग्रन्थों के शताधिक प्रमाण देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि ऋषभदेव और शिव एक ही हैं; पृथक्-पृथक् नहीं । श्रमण और ब्राह्मण दोनों परम्पराओं के वे आदि पुरुष हैं।
वंश-उत्पत्ति
जब ऋषभदेव एक वर्ष से कुछ कम के थे उस समय वे पिता की गोद में बैठे हुए क्रीड़ा कर रहे थे । शकेन्द्र हाथ में इक्ष लेकर आया।3 ऋषभदेव ने उसे लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। बालक का इक्ष के प्रति आकर्षण देखकर शक्र ने इस वंश को 'इक्ष्वाकु वंश' नाम से अभिहित किया । प्राचार्यों ने व्युत्पत्ति करते हुए कहा है-इक्षु+आकु (भक्षणार्थे) इक्ष्वाकु।
विवाह परम्परा
सामाजिक रीतिरिवाज, जिसमें विवाहप्रथा भी सम्मिलित है, कोई शाश्वत सिद्धान्त नहीं, किन्तु उन में युग के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। भाई-बहिन का विवाह इस युग में बड़े से बड़ा पाप माना जाता है, किन्तु उस युग में यह एक सामान्य प्रथा थी । यौगलिक परम्परा में भाई और भगिनी ही पति और पत्नी के रूप में परिवर्तित हो जाया करते थे । सुनन्दा के भ्राता की अकाल में मृत्यु हो जाने से ऋषभदेव ने सुनन्दा व सहजात सुमङ्गला के साथ पाणिग्रहण कर नई व्यवस्था का सूत्रपात किया । सुमङ्गला ने भरत और ब्राह्मी को और सुनन्दा ने बाहुबली और सुन्दरी को जन्म दिया। इसके पश्चात् सुमंगला के क्रमशः अट्ठानवें पुत्र और हुए। दिगम्बर परम्परा निन्यानवें पुत्र मानती है ।
भरत और बाहुबली
श्री ऋषभदेव ने यौगलिक धर्म को मिटाने के लिये जब भरत और बाहुबली युवा हुए तब भरतसहजात ब्राह्मी का पारिणग्रहण बाहुबली से करवाया और बाहुबली सहजात सुन्दरी का पाणिग्रहण भरत से करवाया। इन विवाहों का अनुकरण करके जनता ने भी भिन्न गोत्र में समुत्पन्न कन्याओं को उनके माता-पिता आदि अभिभावकों द्वारा दान में प्राप्त कर पारिणग्रहण करना शुरू किया। इस प्रकार एक नवीन परम्परा प्रारम्भ हुई। प्राचार्य जिनसेन ने ब्राह्मी सुन्दरी के विवाह का वर्णन नहीं किया है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी भी उन्हें अविवाहित मानते हैं+ पर उन्होंने प्राचीन श्वेताम्बर ग्रन्थों के कोई भी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये।
ऋषभदेव का काल भारी उथलपुथल का काल था। उस समय प्राकृतिक परिवर्तनों के साथ मानवीय व्यवस्था में भी आमूल परिवर्तन हो रहा था। परिस्थितियाँ पलट रही थीं। परिवार प्रथा का प्रारम्भ हो रहा था और संग्रह वृत्ति का सूत्रपात हो चला था। ऐसी स्थिति में अपराधवृत्ति का विकास होना भी स्वाभाविक था और वह हो रहा था।