।। तीर्थकर जीवन ।।

अरिहन्त के पद पर

एक हजार वर्ष तक श्री ऋषभदेव शरीर से ममत्व रहित होकर वासनाओं का परित्याग कर, आत्म-आराधना, संयम-साधना और मनोमंथन करते रहे । जब भगवान् अष्टम तप की साधना करते हुए पुरिमताल नगर के बाहर शकटमुख उद्यान में वटवृक्ष के नीचे ध्यान-मुद्रा में अवस्थित थे। फाल्गुन कृष्णा ग्यारस का दिन था, पूर्वाह्न का समय था, आत्म-मंथन चरम सीमा पर पहुँचा। आत्मा पर से घन-घाति कर्मों का आवरण हटा, भगवान् को केवल ज्ञान और केवल दर्शन का अपूर्व आलोक प्राप्त हुा । जैनागमों में जिसे केवल ज्ञान कहा है उसे ही बौद्ध ग्रन्थों में प्रज्ञा कहा है और सांख्य-योग में विवेकख्याति कहा है ।

भगवान् को केवल ज्ञान की उपलब्धि वट वृक्ष के नीचे हुई थी अतः वटवक्ष आज भी यादर की दृष्टि से देखा जाता है।

सम्राट भरत का विवेक

आवश्यक नियुक्ति, अावश्यक चूर्णि, त्रिषष्ठिशलाकापुरुष चरित्र१६° आदि श्वेताम्बर जैन ग्रन्थों के अनुसार जिस समय भगवान् श्री ऋषभदेव को केवल ज्ञान की उपलब्धि हुई, उसी समय सम्राट भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न भी उत्पन्न हुआ और इसकी सूचना एक साथ ही "यमक" और "शमक" दूतों के द्वारा सम्राट भरत को मिली।

आचार्य श्री जिनसेन ने उपर्युक्त दो सूचनाओं के अतिरिक्त तृतीय पुत्र की सूचना का भी उल्लेख किया है ।

ये सारी सूचनाएं एक साथ मिलने से भरत एक क्षण असमंजस में पड़ गये -क्या प्रथम चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिए, या पुत्रोत्सव करना चाहिए ? द्वितीय क्षण उन्होंने चिन्तन की चाँदनी में सोचा- इनमें से भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न होना धर्म का फल है, पुत्र होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्ररत्न का उत्पन्न होना अर्थ का फल है । एतदर्थ मुझे प्रथम चक्ररत्न या पुत्रारत्न की नहीं, अपितु भगवान् की उपासना करनी चाहिए। क्योंकि वह सभी कल्याणों का मुख्य स्रोत है, महान् से महान् फल देने वाली है ।

चक्ररत्न या पुत्र रत्न तो इस लोक के जीवन को ही सुख प्रदान करने वाले हैं किन्तु इस लोक और परलोक दोनों में ही जीवन को सुखी बनाने वाला भगवान् का दर्शन ही है, अतः मुझे सर्वप्रथम भगवान् श्री ऋषभदेव के दर्शन व चरण स्पर्श करना चाहिए ।

माँ मरुदेवी को मुक्ति

सम्राट भरत भगवान के दर्शन हेतु सपरिजन प्रस्थित हुए। माँ मरुदेवी भी अपने लाडले पुत्र के दर्शन हेतु चिरकाल से छटपटा रही थी, प्यारे पुत्रा के वियोग से वह व्यथित थी। उसके दारुण कष्ट की कल्पना करके वह कलप रही थी। प्रतिपल-प्रतिक्षण लाडले लाल की स्मृति से उसके नेत्रों में आँसू बरस रहे थे । जब उसने सुना कि उसका प्यारा लाल विनीता के बाग में आया है तो वह भी भरत के साथ हस्ती पर आरूढ़ होकर चल पड़ी । भरत के विराट् वैभव को देखकर उसने कहा-बेटा भरत! एक दिन मेरा प्यारा ऋषभ भी इसी प्रकार राज्यश्री का उपभोग करता था, पर इस समय वह क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर कष्टों को सहन करता हुमा विचरता है। पुत्र प्रेम से आँखें छलछला आई । भरत के द्वारा तीर्थङ्करों की दिव्य विभूति का शब्दचित्र प्रस्तुत करने पर भी उसे सन्तोष नहीं हो रहा था । किन्तु समवसरण के सन्निकट पहुँचते ही श्री ऋषभदेव को ज्यों ही समवसरण में इन्द्रों द्वारा अचित देखा त्यों ही चिन्तन का प्रवाह बदला। आर्त ध्यान से शुक्ल ध्यान में लीन हुई । ध्यान का उत्कर्ष बढ़ा, मोह का बन्धन सर्वा शतः टूटा । वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय को नष्ट कर केवल ज्ञान, केवल दर्शन की धारिका बन गई और उसी क्षण शेष कर्मों को भी नष्ट कर हस्ती पर आरूढ़ ही सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई।

कितने ही प्राचार्यों का यह अभिमत है कि भगवान् के शब्द कर्णकुहरों में गिरने से उन्हें आत्मज्ञान हुआ और वे मुक्त हो गई। प्रस्तुत अवसर्पिणी में सर्वप्रथम केवलज्ञान श्री ऋषभदेव को हुआ और मोक्ष मरुदेवी माता को।

प्राचार्य जिनसेन ने स्त्रीमुक्ति न मानने के कारण ही प्रस्तुत घटना का उल्लेख नहीं किया है ।

धर्मवक्रवर्ती

जिन बनने के पश्चात् भगवान् श्री ऋषभदेव स्वयं कृतकृत्य हो चुके थे। वे चाहते तो एकान्त शान्त स्थान में अपना शेष जीवन व्यतीत करते, पर वे महापुरुष थे। उन्होंने समस्त प्राणियों की रक्षारूप दया के पवित्र उद्देश्य से प्रवचन किया। एतदर्थ ही भगवान् श्री महावीर ने अपने अन्तिम प्रवचन में श्री ऋषभदेव को धर्म का मुख कहा है।७४ और ब्रह्माण्ड पुराण में भी श्री ऋषभदेव को दस प्रकार के धर्म का प्रवर्तक माना है । भागवतकार ने उनका अवतार ही मोक्षधर्म का उपदेश देने के लिए माना है ।

भारतीय साहित्य में फाल्गुन कृष्णा एकादशी का दिन स्वर्णाक्षरों में उट्टङ्कित है जिस दिन सर्व प्रथम भगवान् का आध्यात्मिक प्रवचन भावुक भक्तों को श्रवण करने को प्राप्त हुमा । भगवान् ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की गम्भीर मीमांसा करते हुए मानवजीवन के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए कहाजीवन का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग है, राग नहीं, वैराग्य है, वासना नहीं साधना है। इस प्रकार भगवान् के अध्यात्म रस से छलछलाते हुए प्रवचन को श्रवण कर सम्राट भरत के पाँचसौ पुत्र व सातसौ पौत्रों ने तथा 'ब्राह्मी' आदि ने प्रव्रज्या ग्रहण की।

सम्राट् भरत आदि ने श्रावक व्रत ग्रहण किये और सुन्दरी ने भी । महापुराणकार ने भरत के स्थान पर श्रावक का नाम 'श्र तकीति' दिया है और सुन्दरी के स्थान पर श्राविका का नाम "प्रियव्रता" दिया है । पर श्वेताम्बर ग्रन्थों में ये नाम कहीं पर भी नहीं आये हैं। इस प्रकार श्रमण, श्रमरणी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ की संस्थापना कर वे सर्वप्रथम तीर्थङ्कर बने ।

श्रमणों के लिए पाँच महाव्रतों का और गृहस्थों के लिए द्वादश वृतों का निरूपण किया। मर्यादित विरति अणुवत और पूर्ण विरति महावत है ।

भगवान् के प्रथम गणधर ऋषभसेन हुए। श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार वे सम्राट भरत के पुत्र थे और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार वे भगवान् श्री ऋषभदेव के पुत्र थे। श्री समयसुन्दर जी ने कल्पलता में और लक्ष्मीवल्लभ जी ने कल्पद्र म कलिका में ऋषभसेन के स्थान पर पुण्डरीक नाम दिया है किन्तु जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, समवायाङ्ग, कल्पसूत्र, अावश्यक मलयगिरीय वृत्ति, त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र प्रभृति ग्रन्थों में प्रथम गणधर का नाम पुण्डरीक नहीं, ऋषभसेन ही दिया है । यहाँ तक कि समयसुन्दर जी व लक्ष्मीवल्लभ जी ने भी कल्पसूत्र के मूल में ऋषभसेन नाम ही रक्खा है। हमारी दृष्टि से भगवान् श्री ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे उनमें से एक गणधर का नाम पुण्डरीक था, जो भगवान् के परिनिर्वाण के पश्चात् भी संघ का कुशल नेतृत्व करते रहे थे। सम्भव है इसी कारण समयसुन्दर जी व लक्ष्मीवल्लभ जी को भ्रम हो गया और उन्होंने टीकाओं में ऋषभसेन के स्थान पर पुण्डरीक नाम दिया, जो अनागमिक है । उत्तराधिकारी हाँ, तो प्रथम गणधर ऋषभसेन को ही भगवान् ने प्रात्मविद्या का परिज्ञान कराया। वैदिक परम्परा से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि आत्म-विद्या क्षत्रियों के अधीन रही है। पुराणों की दृष्टि से भी क्षत्रियों के पूर्वज भगवान् श्री ऋषभदेव ही हैं ।

वे मोक्षमार्ग के प्रवर्तक अवतार हैं । जैन साहित्य में जिस ऋषभसेन को ज्येष्ठ गणधर कहा है, सम्भव है, वैदिक साहित्य में उसे ही मानसपुत्र और ज्येष्ठपुत्र अथर्वन कहा हो। उन्हें ही भगवान् ने समस्त विद्यानों में प्रधान ब्रह्मविद्या देकर लोक में अपना उत्तराधिकारी बनाया है ।

आद्य परिवाजक : मरोचि

भगवान् के केवल ज्ञान की तथा तीर्थ-प्रवर्तन की सूचना प्राप्त होते ही, भगवान् के साथ जिन चार सहस्र व्यक्तियों ने प्रवज्या ग्रहण की थी और जो क्षुधा पिपासा से पीड़ित होकर तापस आदि हो गये थे, उन तापसों में से कच्छ महाकच्छ को छोड़कर सभी भगवान् के पास आते हैं और प्रार्हती प्रवज्या ग्रहण करते हैं ।

आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूरिण, आवश्यक मलयगिरीय वृत्ति, आवश्यक हारिभद्रीया वृत्ति त्रिषष्ठिशलाका पुरुषचरित्र, कल्पलता, कल्पद्र म कलिका, महावीरचरिय प्रभृति श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार भगवान् के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर सम्राट भरत का पुत्र मरीचि भगवान् ऋषभदेव के पास दीक्षित होता है, तप संयम की विशुद्ध पाराधना-साधना करता हुआ एकादश अङ्गों का अध्ययन करता है । पर एक बार वह भीष्म-ग्रीष्म के प्रातप से प्रताड़ित होकर साधना के कठोर कंटकाकीर्ण महामार्ग से विचलित हो जाता है । उसके अन्तर्मानस में ये विचार-लहरियाँ तरंगित होती हैं कि मेरुपर्वत सदृश यह संयम का महान् भार मैं एक मुहूर्त भी सहन करने में असमर्थ हूँ । क्या मुझे पुनः गृहस्थाश्रम स्वीकार करना चाहिए? नहीं, कदापि नहीं। और मैं संयम का भी विशुद्धता से पालन नहीं कर पाता, अतः मुझे नवीन वेषभूषा का निर्माण करना चाहिए ।

श्रमणसंस्कृति के श्रमण त्रिदण्ड-मन वचन काय के अशुभ व्यापारों से रहित होते हैं, इन्द्रियविजेता होते हैं, पर तो मैं त्रिदण्ड से युक्त हूँ, और अजितेन्द्रिय हूँ, अतः इसके प्रतीक रूप त्रिदण्ड को धारण करूँगा । श्रमण द्रव्य और भाव से मुण्डित होते हैं, सर्व प्राणातिपातविरमण महाबत के धारक होते हैं, पर मैं शिखासहित क्षुरमुण्डन कराऊँगा और स्थूलप्राणातिपात का विरमण करूगा ।

श्रमण अकिंचन तथा शील की सौरभ से सुरभित होते हैं, पर मैं परिग्रहधारी रहूँगा और शील की सौरभ के अभाव में चन्दनादि की सुगन्ध से सुगन्धित रहूँगा । श्रमण निर्मोह होते हैं, पर मैं मोह ममता के मरुस्थल में घूम रहा हूँ, उसके प्रतीक के रूप में छत्र धारण करूंगा। श्रमण नंगे पैर होते हैं, पर मैं उपानद् फहनूगा ।

श्रमण जो स्थविर कल्पी हैं वे श्वेतवस्त्र के धारक हैं और जिनकल्पी निर्वस्त्र होते हैं, पर मैं कषाय से कलुषित हूँ, अतः काषाय वस्त्र धारण करूंगा।

श्रमण पापभीरु और जीवों की घात करने वाले आरंभादि से मुक्त होते हैं। वे सचित्त जल का प्रयोग नहीं करते हैं। पर मैं वैसा नहीं हूँ, अतः स्नान तथा पीने के लिए परिमित जल ग्रहण करूंगा।

इस प्रकार उसने अपनी कल्पना से परिकल्पित परिवाजकपरिधान का निर्माण किया१२ और भगवान् के साथ ही ग्राम नगर आदि में विचरने लगा। भगवान् के श्रमणों से मरीचि की पृथक् वेशभूषा को निहारकर जन-जन के अन्तर्मानस में कुतूहल उत्पन्न होता । लोग जिज्ञासु बनकर उसके पास पहुँचते । मरीचि अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा की तेजस्विता से प्रतिबोध देकर उन्हें भगवान् के शिष्य बनाता हैं ।

एक समय सम्राट भरत ने भगवान् श्री ऋषभदेव के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की-कि प्रभो! क्या इस परिषद् में ऐसा कोई व्यक्ति है जो आपके सदृश ही भरत क्षेत्र में तीर्थंकर बनेगा?

जिज्ञासा का समाधान करते हुए भगवान् ने कहा-स्वाध्याय ध्यान से प्रात्मा को ध्याता हुना तुम्हारा पुत्र मरीचि परिबाजक "वीर" नामक अन्तिम तीर्थङ्कर बनेगा। उससे पूर्व वह पोतनपुर का अधिपति त्रिपृष्ठ वासुदेव होगा, तथा विदेह क्षेत्र की मूका नगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होगा। इस प्रकार तीन विशिष्ट उपाधियों को वह अकेला ही प्राप्त करेगा।

भगवान् श्री ऋषवदेव की भविष्य वाणो को श्रवण कर सम्राट भरत भगवान् को वन्दन कर मरीचि परिवाजक के पास पहुँचे, और भगवान् की भविष्यवाणी को सुनाते हुए उससे कहा--अयि मरीचि परिव्राजक! तुम अन्तिम तीर्थङ्कर वनोगे, अतः मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ । तुम वासुदेव व चक्रवर्ती भी बनोगे।"

यह सुनकर मरीचि के हत्तत्री के तार झनझना उठे - मैं वासुदेव, चक्रवर्ती और तीर्थङ्कर बनूंगा । मेरे पिता चक्रवर्ती हैं, मेरे पितामह तीर्थङ्कर हैं और मैं अकेला ही तीन पदवियों को धारण करूँगा! मेरा कुल कितना उत्तम है!

एक दिन मरीचि का स्वास्थ्य बिगड़ गया । सेवा करने वाले के अभाव में मरीचि के मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि मैंने अनेकों को उपदेश देकर भगवान् के शिष्य बनाये, पर आज मैं स्वयं सेवा करने वाले से वंचित हूँ । अब स्वस्थ होने पर मैं स्वयं अपना शिष्य बनाऊँगा । वह स्वस्थ हुग्रा । कपिल राजकुमार धर्म की जिज्ञासा से उसके पास आया। उसने अाहती दीक्षा की प्रेरणा दी। कपिल ने प्रश्न किया “आप स्वयं आहत धर्म का पालन क्यों नहीं करते?" उत्तर में मरीचि ने कहा--"मैं उसे पालन करने में समर्थ नहीं हैं।" कपिल ने पुनः प्रश्न किया-क्या आप जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं उसमें धर्म नहीं है?" इस प्रश्न ने मरीचि के मानस में तूफान पैदा कर दिया और उसने कहा-"यहाँ पर भी वही है जो जिन धर्म में है।" कपिल उसी का शिष्य बना।

दिगम्बराचार्य जिनसेन और प्राचार्य सकलकीति के मन्तव्यानुसार जिन चार सहस्र राजाओं ने भगवान के साथ दीक्षा ग्रहण की थी, उनके साथ ही मरीचि ने भी दीक्षा ली थी। और वह भी उन राजाओं के समान ही क्ष धा-पिपासा से व्याकुल होकर परिवाजक हो गया था । मरीचि के अतिरिक्त सभी परिवाजकों के आराध्यदेव श्री ऋषभदेव ही थे । भगवान् को केवल ज्ञान होने पर मरीचि को को छोड़कर अन्य सभी भ्रष्ट बने हुए साधक तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप समझकर पुनः दीक्षित बने ।

जैन साहित्य की दृष्टि से मरीचि 'यादि परिवाजक' था।

कपिल जैसे शिष्य को प्राप्तकर उसका उत्साह बढ़ गया। उसने तथा उसके शिष्य कपिल ने योगशास्त्र और सांख्य शास्त्र का प्रवर्तन किया । मरीचि और कपिल का वर्णन जैसा जैन साहित्य में उदृङ्कित है वैसा भागवत आदि वैदिक साहित्य में नहीं। जहाँ जैन साहित्य में मरीचि को भरत का पुत्र माना है वहाँ भागवतकार ने भरत की वंश परम्परा का वर्णन करते हुए उसे अनेक पीढ़ियों के पश्चात् "सम्राट" का पुत्र बताया है तथा उसकी माँ का नाम "उत्कला' दिया है ।

जैन साहित्य में कपिल को राजपुत्र बताया है और वैदिक साहित्य में उसे कर्दम ऋषि का पुत्र बताया है। साथ ही उन्हें विष्णु का पाँचवाँ अवतार भी माना है ।

जब कपिल कर्दम ऋषि के यहाँ जन्म ग्रहण करता है तब ब्रह्मा जी मरीचि आदि मुनियों के साथ कर्दम के आश्रम में पहुँचते है और यह प्रेरणा देते हैं कि वे अपनी कन्याएँ मरीचि आदि मुनियों को समर्पित करें । ब्रह्मा की प्रेरणा से कर्दम ऋषि ने 'कला' नामक कन्या का मरीचि के साथ पाणिग्रहण करवाया । इस प्रकार स्पष्ट है कि मरीचि कपिल के बहनोई थे। पर प्रश्न है कि भागवतकार ने एक अोर ऋषभ को आठवाँ अवतार माना है और कपिल को पाँचवाँ और कपिल तथा मरीचि का समय एक ही बताया गया है। श्रीमद्भागवत की दृष्टि से मरीचि भरत की अनेक पीढ़ियों के बाद पाते हैं तो पूर्व में होने वाले को आठवाँ अवतार और पश्चात् होने वाले को पाँचवाँ अवतार कैसे माना गया ?

हमारी दृष्टि से भागवत में अवतारों का जो निरूपण किया गया है, वह न क्रमबद्ध है और न संगत ही है।

जैन-साहित्य में मरीचि परिवाजक के प्राचारशैथिल्य का वर्णन तो है, पर भागवत की तरह उनके विवाह का उल्लेख नहीं है।

वैदिक साहित्य के परिशीलन से यह भी ज्ञात होता है कि मरीचि श्री ऋषभ के अनुयायी थे। ऋग्वेद में काश्यपगोत्री मरीचिपुत्र ने अग्निदेव के प्रतीक के रूप में जो ऋषभदेव की स्तुति की है वह हमारे मन्तव्यानुसार वही मरीचि हैं जिनका प्रस्तुत इतिवृत्त से सम्बन्ध है।

सुन्दरी का संयम

भगवान् श्री ऋषभ के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर ही सुन्दरी संयम ग्रहण करना चाहती थी। उसने यह भव्य-भावना अभिव्यक्त भी की थी किन्तु सम्राट् भरत के द्वारा प्राज्ञा प्राप्त न होने से वह श्राविका बनी । परन्तु उसके अन्तर्मानस में वैराग्य का पयोधि उछालें मार रहा था, वह तन से गृहस्थाश्रम में थी किन्तु उसका मन संयम में रम रहा था । षट् खण्ड पर विजय वैजयन्ती फहराकर और सम्पूर्ण भारतवर्ष को एक अखण्ड शासन प्रदान कर जब सम्राट् भरत दीर्घकाल के पश्चात् "विनीता" लौटे तब सुन्दरी के कृश तनु को देखकर वे चकित रह गये ।

अनुचरों को फटकारते हुए उन्होंने कहा-ज्ञात होता है कि मेरे जाने के पश्चात् तुम लोगों ने सुन्दरी की कोई सुध-बुध नहीं ली है। क्या मेरे भोजनालय में भोजन की कमी है, क्या वैद्य और औषधियों का अभाव है?

अनुचरों ने नम्र निवेदन करते हुए कहा-नाथ! न भोजन की कमी है और न चिकित्सकों का ही प्रभाव है, किन्तु जिस दिन से आपने सुन्दरी को संयम लेने का निषेध किया उसी दिन से ये निरन्तर आचाम्लव्रत कर रही हैं। हमारे द्वारा अनेक बार अभ्यर्थना करने पर भी ये प्रतिज्ञा से विचलित नहीं हुई हैं ।

सम्राट भरत ने सुन्दरी से पूछा-सुन्दरी तुम संयम लेना चाहती हो या गृहस्थाश्रम में रहना चाहती हो? सुन्दरी ने संयम की भावना अभिव्यक्त की। सम्राट भरत की आज्ञा से सुन्दरी ने श्री ऋषभदेव की आज्ञानुवर्तिनी ब्राह्मी के पास दीक्षा ली । प्रस्तुत प्रसंग पर सहज ही ऋग्वेद के यमी सूक्त की स्मृति हो पाती है। भाई यम से भगिनी यमी ने वरण करने की अभ्यर्थना की, पर भ्राता यम भगिनी की बात को स्वीकारता नहीं है । जबकि यहाँ भ्राता की अभ्यर्थना बहन ठुकराती है।

प्राचार्य जिनसेन के अभिमतानुसार सुन्दरी ने प्रथम-प्रवचन को श्रवण कर ब्राह्मी के साथ ही दीक्षा ग्रहण की थी ।

अठानवें भ्राताओं को दीक्षा

यह बताया जा चुका है कि श्री ऋषभदेव अपने सौ पुत्रों को पृथक्पृथक् राज्य देकर श्रमण बने थे । सम्राट् भरत चक्रवर्ती बनना चाहते थे, अतः षट्खण्ड को तो उन्होंने जीत लिया था, पर अभी तक अपने भ्राताओं को अपना आज्ञानुवर्ती नहीं बना पाये थे; एतदर्थ अपने लघु भ्राताओं को अपने अधीन करने के लिए उन्होंने दूत प्रेषित किये । अठानवें भ्राताओं ने मिलकर इस विषय में परस्पर परामर्श किया, परन्तु वे निर्णय पर नहीं पहुँच सके । उस समय भगवान् श्री ऋषभदेव अष्टापद पर्वत पर विचर रहे थे। वे सभी भगवान् के पास पहुँचे । स्थिति का परिचय कराते हए नम्र निवेदन किया-प्रभो !

आपके द्वारा प्रदत्त राज्य पर भाई भरत ललचा रहा है। वह हम से राज्य छीनना चाहता है । क्या बिना युद्ध किये हम उसे राज्य दे देवें? यदि हम देते हैं तो उसकी साम्राज्य लिप्सा बढ़ जायेगी और हम पराधीनता के पंक में डूब जायेंगे । भगवन् ! क्या निवेदन करें? भरतेश्वर को स्वयं के राज्य से सन्तोष नहीं हुआ तो उसने अन्य राज्यों को अपने अधीन किया किन्तु उसकी तृष्णा वडवाग्नि की तरह शान्त नहीं हो रही है । वह हमें आह्वान करता है कि या तो तुम मेरी अधीनता स्वीकार करो, या युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जायो। आपश्री के द्वारा दिये गये राज्य को हम क्लीब की तरह उसे कैसे अर्पित कर दें? जिसे स्वाभिमान प्रिय नहीं है वही दूसरों की गुलामी करता है । और यदि हम राज्य के लिए अपने ज्येष्ठ भ्राता से युद्ध करते हैं तो भ्रातृ-युद्ध की एक अनुचित परम्परा का श्रीगणेश हो जाता है, अतः आप ही बताए, हमें क्या करना चाहिए?

भगवान् बोले-पुत्रो ! तुम्हारा चिन्तन ठीक है। युद्ध भी बुरा है और कायर बनना भी बुरा है । युद्ध इसलिए बुरा है कि उसके अन्त में विजेता और पराजित दोनों को ही निराशा मिलती है । अपनी सत्ता को गँवाकर पराजित पछताता है और शत्रु बनाकर विजेता पछताता है । कायर बनने की भी मैं तुम्हें राय नहीं दे सकता, मैं तुम्हें ऐसा राज्य देना चाहता हूँ, जो सहस्रों युद्धों से भी नहीं प्राप्त किया जा सकता।

भगवान् की अाश्वासन-भरी वाणी को सुनकर सभी के मुखकमल खिल उठे, मन-मयूर नाच उठे । वे अनिमेष दृष्टि से भगवान् को निहारने लगे, किन्तु भगवान् की भावना को छू नहीं सके । यह उनकी कल्पना में नहीं आ सका कि भौतिक राज्य के अतिरिक्त भी कोई राज्य हो सकता है । वे भगवान् के द्वारा कहे गये राज्य को पाने के लिए व्यग्र हो गये । उनकी तीव्र लालसा को देखकर भगवान् बोले:-

"भौतिक राज्य से आध्यात्मिक राज्य महान् है, सांसारिक सुखों से आध्यात्मिक सुख विशेष है । इसे ग्रहण करो, इसमें न कायरता की आवश्यकता है और न युद्ध का ही प्रसंग है।

मूर्ख लकडहारे का रूपक देते हुए भगवान् ने कहा-एक लकड़हारा था, वह भाग्यहीन और अज्ञ था । प्रतिदिन कोयले बनाने के लिए वह जंगल में जाता और जो कुछ भी प्राप्त होता उससे अपना भरण पोषण करता। एक बार वह भीष्म-ग्रीष्म की चिल-चिलाती धूप में थोड़ा-सा पानो लेकर जंगल में गया । सूखी लकड़ियाँ एकत्रित की। कोयले बनाने के लिए उन लकड़ियों में आग लगादी। चिलचिलाती धूप, प्रचण्ड ज्वाला, तथा गर्म लू के कारण उसे अत्यधिक प्यास लगी। साथ में जो पानी लाया था वह पी गया, पर प्यास शान्त न हुई। इधर उधर जंगल में पानी की अन्वेषणा की, पर, कहीं भी पानी उपलब्ध नहीं हआ। सन्निकट कोई गाँव भी नहीं था, प्यास से गला सूख रहा था, घबराहट बढ़ रही थी । वह एक वृक्ष के नीचे लेट गया, नींद आगई । उसने स्वप्न देखा कि वह घर पहुँच गया है। घर पर जितना भी पानी है, पी गया है, तथापि प्यास शान्त नहीं हुई । कुए पर गया और वहाँ का सारा पानी पी गया। पर प्यास नहीं बुझी। नदी, नाले और द्रहों का पानी पीता हुआ समुद्र पर पहँचा, समुद्र का सारा पानी पी लेने पर भी उसकी प्यास कम नहीं हुई । तब वह एक पानी से रहित जीणं कूप के पास पहुँचा । वहाँ पानी तो नहीं था, किन्तु भीगे हुए तिनकों को देखकर मन ललचाया और उन तिनकों को निचोड़ कर प्यास बुझाने का प्रयास कर रहा था कि नींद खुल गई। रूपक का उपसंहार करते हुए भगवान् ने कहा-क्या पुत्रो ! उन भीगे हुए तिनकों से उस लकड़हारे की प्यास शान्त हो सकती है? जबकि कुए, नदी, द्रह, तालाब और समुद्र के पानी से नहीं हुई थी!

पुत्रों ने एक स्वर से कहा--नहीं भगवन् ! कदापि नहीं ।

भगवान् ने उन्हें अपने अभिमत की ओर आकृष्ट करते हए कहा पुत्रो ! राज्यश्री से तृष्णा को शांत करने का प्रयास भी भीगे हुए तिनकों को निचोड़कर पीने से प्यास बुझाने के प्रयास के समान है । दीर्घकालीन अपार स्वर्गीय सूखों से भी जब तृष्णा शान्त नहीं हुई तो इस तुच्छ और अल्पकालीन राज्य से कैसे हो सकती है? अतः सम्बोधि को प्राप्त करो। वस्तुतः जब तक स्वराज्य नहीं मिलता तब तक परराज्य की कामना रहती है। स्वराज्य मिलने पर परराज्य का मोह नहीं रह जाता।

भगवान् ने उस समय अपने पुत्रों को वैराग्यवर्द्धक एवं प्रभावजनक जो उपदेश दिया था, वह सूत्रकृतांग सूत्र के प्रथम श्र तस्कंध के द्वितीय 'वैतालीय' नामक अध्ययन में उल्लिखित है । जिनदास महत्तर के उल्लेख से स्पष्ट है कि यह अध्ययन भगवान् के उसी उपदेश के आधार पर प्रवृत्त हुआ है। उस उपदेश में बतलाया गया है कि - 'मानव को शीघ्र-से-शीघ्र प्रतिबोध लाभ करना चाहिए, क्योंकि व्यतीत समय लौटकर नहीं पाता और पुनः मनुष्यभव सुलभ नहीं है। प्राप्त जीवन का भी कोई ठिकाना नहीं । बालक, वृद्ध यहाँ तक कि गर्भस्थ मनुष्य भी मृत्यु के शिकार हो जाते हैं । जगत् का उत्कृष्ट-से-उत्कृष्ट वैभव भी मृत्यु का निवारण करने में समर्थ नहीं है। यही कारण है कि देव, दानव, गंधर्व, भूमिचर, सरीसृप, राजा और बड़े-बड़े सेठ, साहूकार भी दुःख के साथ अपने स्थान से च्युत होते देखे जाते हैं । बन्धन से च्युत ताल फल के समान आयु के टूटने पर जीव मृत्यु को प्राप्त होते हैं, इत्यादि ।' वस्तुतः यह सम्पूर्ण अध्ययन अतीव मार्मिक और विस्तृत है । मुमुक्षुजनों के लिए मननीय है।

भागवतकार ने भी भगवान् के पुत्रोपदेश का वर्णन दिया है, जिसका सार इस प्रकार है-पुत्रो ! मानवशरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिए नहीं है। ये भोग तो विष्टाभोजी कूकरशूकरादि को भी प्राप्त होते हैं, अतः इस शरीर से दिव्य तप करना चाहिए क्योंकि इसी से परमात्मतत्व की प्राप्ति होती है ।

प्रमाद के वश मानव कुकर्म करने को प्रवृत्त होता है। वह इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए प्रवृत्ति करता है, पर मैं उसे श्रेष्ठ नहीं समझता, क्योंकि उसी से दुःख प्राप्त होता है ।२५० जब तक आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती तव तक स्वस्वरूप के दर्शन नहीं होते, वह विकार और वासना के दलदल में फंसा रहता है और उसी से बन्धन की प्राप्ति होती है ।

इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्म-स्वरूप आच्छन्न होने से कर्मवासनाओं से वशीभूत बना हुआ चित्त मानव को फिर कर्म में प्रवृत्त करता है। अतः जब तक मुझ परमात्मा में प्रीति नहीं होती तब तक देहबन्धन से मुक्ति नहीं मिलती ।

स्वार्थ में उन्मत्त बना जीव जब तक विवेकदृष्टि का प्राश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टात्रों को अयथार्थ रूप में नहीं देखता है, तब तक अात्मस्वरूप विस्मृत होने से वह गृह आदि में ही आसक्त रहता है और विविध प्रकार के क्लेश उठाता है । इस प्रकार भगवान् की दिव्य देशना में राज्य-त्याग की बात को सुनकर वे सभी अवाक् रह गये, पर शीघ्र ही उन्होंने भगवान् के प्रशस्त पथप्रदर्शन का स्वागत किया। अठानवें ही भ्राताओं ने राज्य त्यागकर संयम ग्रहण किया ।

सम्राट भरत को यह सूचना मिली तो वह दौड़ा-दौड़ा आया। भ्रातृ प्रेम से उसकी आँखें गीली हो गई। पर उसकी गीली आँखें अठानवें भ्राताओं को पथ से विचलित नहीं कर सकीं। भरत निराश होकर पुनः घर लौट गया ।