।। निर्वाण ।।

तृतीय आरे के तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहने पर भगवान् दस सहस्र श्रमणों के साथ अष्टापद पर्वत पर आरूढ़ हुए।

चतुर्दश भक्त से आत्मा को तापित करते हुए अभिजित नक्षत्र के योग में, पर्यङ्कासन में स्थित, शुक्ल ध्यान के द्वारा वेदनीय कर्म, आयुष्य कर्म, नाम कर्म और गोत्र-कर्म को नष्ट कर सदा-सर्वदा के लिए अक्षर अजर अमर पद को प्राप्त हुए।११ जैन परिभाषा में इसे निर्वाण या परिनिर्वाण कहा है। शिव पुराण ने अष्टा पद पर्वत के स्थान पर कैलाश पर्वत का उल्लेख किया है ।

भगवान् श्री ऋषभदेव की निर्वाणतिथि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, कल्पसूत्र, त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र के अनुसार माघ कृष्णा त्रयोदशी है और तिलोय पण्णत्ति व महापुराण के अनुसार माघकृष्णा चतुर्दशी है। विज्ञों का मन्तव्य है कि उस दिन श्रमणों ने शिवगति प्राप्त भगवान् की संस्मृति में दिन में उपवास रखा और रात्रि भर धर्म जागरण किया। अतः वह तिथि शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'शिव', मोक्ष, 'निर्वाण'-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं ।

ईशान संहिता में लिखा है कि माघ कृष्णा चतुर्दशी की महानिशा में कोटिसूर्यप्रभोपम भगवान् श्रादिदेव शिवगति प्राप्त हो जाने से शिव-इस लिंग से प्रकट हुए। जो निर्वाण के पूर्व प्रादिदेव कहे जाते थे वे अब शिवपद प्राप्त हो जाने से "शिव" कहलाने लगे।

उत्तर प्रान्त में शिव-रात्रि पर्व फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को मनाया जाता है तो दक्षिण प्रान्त में माघकृष्णा चतुर्दशी को। इस भेद का कारण यह है कि उत्तर प्रान्त में मास का प्रारम्भ कृष्ण पक्ष से मानते हैं और दक्षिण प्रान्त में शुक्ल पक्ष से । इस दृष्टि से दक्षिण प्रान्तीय माघ कृष्णा चतुर्दशी उत्तर प्रान्त में फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी हो जाती है। कालमाधवीय नागर खण्ड में प्रस्तुत मासवैषम्य का समन्वय करते हुए स्पष्ट लिखा है कि दाक्षिणात्य मानव के माघ मास के शेष अथवा अन्तिम पक्ष की, और उत्तर प्रान्तीय मानव के फाल्गुन के प्रथम मास की कृष्णा चतुर्दशी शिवरात्रि कही गई है ।

पूर्व बताया जा चुका है कि ऋषभदेव का महत्त्व केवल श्रमण परम्परा में ही नहीं अपितु ब्राह्मणपरम्परा में भी रहा है। वहाँ उन्हें आराध्यदेव मानकर मुक्त कंठ से गुणानुवाद किया गया है । सुप्रसिद्ध वैदिक साहित्य के विद्वान् प्रो० विरुपाक्ष एम. ए. वेदतीर्थ और प्राचार्य विनोबा भावे जैसे बहुअ त विचारक ऋग्वेद आदि में ऋषभदेव की स्तुति के स्वर सुनते हैं।

इस अवसर्पिणी काल में भोग-भूमि के अन्त में अर्थात् पाषाण काल के अवसान पर कृषिकाल के प्रारम्भ में पहले तीर्थङ्कर ऋषभ हुए। जिन्होंने मानव को सभ्यता का पाठ पढ़ाया, उनके पश्चात् और भी तीर्थङ्कर हुए, जिनमें से कई का उल्लेख वेदादि ग्रन्थों में भी मिलता है। अतः जैन धर्म भगवान् ऋषभदेव के काल से चला आ रहा है ।

ऋग्वेद में भगवान् श्री ऋषभ को पूर्वज्ञान का प्रतिपादक और दुःखों का नाश करने वाला बतलाते हुए कहा है-"जैसे जल से भरा मेघ वर्षा का मुख्य स्रोत है, जो पृथ्वी की प्यास को बुझा देता है, उसी प्रकार पूर्वी ज्ञान के प्रतिपादक वृषभ [ऋषभ] महान् हैं, उनका शासन वर दे । उनके शासन में ऋषि परम्परा से प्राप्त पूर्व का ज्ञान आत्मा के शत्रुओं-क्रोधादि का विध्वंसक हो । दोनों [संसारी और मुक्त] आत्माएँ अपने ही आत्मगुणों से चमकती हैं। अतः वे राजा हैं-वे पूर्ण ज्ञान के आगार हैं और आत्म-पतन नहीं होने देते।

वैदिक ऋषि भक्ति-भावना से विभोर होकर उस महाप्रभु की स्तुति करता हया कहता है हे आत्मद्रष्टा प्रभो ! परम सुख पाने के लिए मैं तेरी शरण में आना चाहता हूँ। क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वाणी शक्तिशाली है—उनको मैं अवधारण करता हूँ । हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्हीं पहले पूर्वयाया [पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक हो ।

"आत्मा ही परमात्मा है"- यह जैन दर्शन का मूल सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त को ऋग्वेद के शब्दों में भगवान् श्री ऋषभदेव ने इस रूप में प्रतिपादित किया-"मन, वचन, काय तीनों योगों से बद्ध [संयत] वृषभ ने घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मयों में निवास करता है । उन्होंने स्वयं कठोर तपश्चरणरूप साधना कर वह आदर्श जन-नयन के समक्ष प्रस्तुत किया। एतदर्थ ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षि ने लिखा कि-"ऋषभ स्वयं आदिपुरुष थे जिन्होंने सब से प्रथम मर्त्यदशा में देवत्त्व की प्राप्ति की थी।

अथर्ववेद का ऋषि मानवों को ऋषभदेव का आह्वान करने के लिए यह प्रेरणा करता है कि -"पापों से मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्व प्रथम तथा भवसागर के पोत को मैं हृदय से आह्वान करता है । हे सहचर बन्धनो! तुम आत्मीय श्रद्वा द्वारा उसके आत्मबल और तेज को धारण करो।२५ क्योंकि वे प्रेम के राजा हैं उन्होंने उस संघ की स्थापना की है जिसमें पशु भी मानव के समान माने जाते थे और उनको कोई भी मार नहीं सकता था ।

श्रीमद्भागवत के अनुसार श्री ऋषभ का जन्म रजोगुणी जनों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए हुआ था। जिन्होंने विषयभोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से भूले-बिसरे मानवों को करुणावश निर्भय आत्म-लोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव करने वाले प्रात्म-स्वरूप की प्राप्ति के द्वारा सब प्रकार की तृष्णा से मुक्त थे, उन भगवान् श्री ऋषभदेव को नमस्कार है ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भागवत में ही नहीं, किन्तु कूर्म पुराण, मार्कण्डेय पुराण, अग्नि पुराण आदि वैदिक ग्रन्थों में उनके जीवन की महत्त्वपूर्ण गाथाएँ उट्टङ्कित हैं ।

बौद्ध ग्रन्थ "प्रार्ग मंजुश्री मूलकल्प" में भारत के आदि सम्राटों में नाभिपुत्र ऋषभ और ऋषभ पुत्र भरत की गणना की गई है। उन्होंने हिमालय से सिद्धि प्राप्त की, वे व्रतों को पालने में दृढ़ थे। वे ही निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर ऋषभ जैनों के प्राप्तदेव थे। धम्म पद में ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ वीर कहा है । भारत के अतिरिक्त बाह्य देशों में भी भगवान् ऋषभदेव का विराट् व्यक्तित्व विविध रूपों में चमका है । प्रथम उन्होंने कृषिकला का परिज्ञान कराया, अतः वे "कृषि देवता" हैं। आधुनिक विद्वान् उन्हें 'एग्रीकल्चरएज' मानते हैं ।

देशनारूपी वर्षा करने से वे "वर्षा के देवता' कहे गये हैं। केवल ज्ञानी होने से सूर्यदेव के रूप में मान्य हैं।

इस प्रकार भगवान् श्री ऋषभदेव का जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व विश्व के कोटि-कोटि मानवों के लिए कल्याणरूप, मंगलरूप और वरदानरूप रहा है। वे श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति के आदि पुरुष हैं। भारतीय संस्कृति के ही नहीं, मानव संस्कृति के आद्य निर्माता हैं। उनके हिमालयसदृश विराट् जीवन पर दृष्टि डालते-डालते मानव का सिर ऊँचा हो जाता है और अन्तर भाव श्रद्धा से झुक जाता है।

आदिमं पृथ्वीनाथम्,
आदिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथ च,
ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥

-प्राचार्य हेमचन्द्र