।। तीर्थंकर पार्श्वनाथ ।।

पार्श्व के जीवन के सम्बन्ध में हमें सर्वप्रथम उल्लेख कल्पसूत्र और समवायांग सूत्र में मिलते हैं । समवायांग सूत्र में पार्श्व के मातापिता के नाम, शरीर की ऊँचाई, आयु, गणधरों की संख्या, श्रमणश्रमणियों एवं गृहस्थ उपासक-उपासिकाओं की संख्या आदि के उल्लेख मिलते हैं । कल्पसूत्र में पार्श्व संबंधी विवरण समवायांग की अपेक्षा कुछ विस्तृत है । उसमें सर्व प्रथम यह बताया गया है कि पार्श्व के पंच कल्याणक विशाखा नक्षत्र में हुए । वे चैत्र कृष्ण चतुर्थी को गर्भ में आये, पौष कृष्ण दशमी को अर्धरात्रि के पश्चात् विशाखा नक्षत्र में उनका जन्म हुआ। ३० वर्ष की अवस्था में पौष कृष्ण एकादशी को पूर्वाह्न में विशाखा नक्षत्र में वे आश्रमपद नामक उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे एक देवदूष्य वस्त्र लेकर प्रवजित हुए । प्रवजित होने के तिरासी रात्रि के व्यतीत हो जाने के बाद चौरासीवें दिन ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास चैत्र के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को विशाखा नक्षत्र में पूर्वाह्नकाल में उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि कल्पसूत्र में पार्श्वनाथ को कमठ द्वारा दिये गये उपसर्ग का कोई उल्लेख नहीं है । मात्र यह कहा गया है कि उन्होंने देव, मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधी अनुलोम और प्रतिलोम सभी उपसर्गों को समभाव से सहन किया। कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्व के ८ गण तथा ८ गणधर हुए थे। उनके आठ गणधरों के नाम इस प्रकार हैं-(१) शुभ, (२) आर्यघोष, (३) वशिष्ठ, (४) ब्रह्मचारी, (५) सोम, (६) श्रीहरि, (७) वीरभद्र और (८) यश । किन्तु आवश्यक नियुक्ति में पार्श्व के १० गणधर थे ऐसा उल्लेख है। इसी प्रकार अभयदेव की स्थानांग वृत्ति में भी पार्श्व के १० गणधरों का उल्लेख है। इन दोनों में पार्श्व के गणधरों का नामोल्लेख नहीं है । कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्व के आर्य दिन्न प्रमुख १६००० श्रमण और पुष्पवूला प्रमुख ३८००० आर्यिकायें थीं। विशेष रूप से ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां पार्श्व के प्रधान श्रमण आर्यदिन कहे गये हैं जबकि पार्श्व के ८ गणधरों में कहीं भी उनका .उल्लेख नहीं है। कल्पमूत्र में पार्श्व के सुव्रत प्रमुख एक लाख चौसठ हजार गहस्थ उपासक और सुनन्दा प्रमुख तीन लाख सत्ताइस हजार श्राविकाएं होने का भी उल्लेख है। पार्श्व ने अपने सामान्य जीवन के सत्तर वर्ष जन प्रतिबोध देते हुए व्यतीत किये और वर्षाऋतु के प्रथममास श्रावण शुक्ल अष्टमी को निर्वाण प्राप्त किया। पार्श्व के निर्वाण के १२३० वर्ष व्यतीत होने पर कल्पसूत्र लिखा गया ।

कल्पसूत्र में भी पार्श्व के सम्बन्ध में मात्र कुछ विस्तृत सूचनाएँ ही उपलब्ध होती हैं, उनका विस्तृत जीवनवृत्त नहीं मिलता है । श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ आवश्यकनियुक्ति और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति इनकी अपेक्षा कुछ अधिक सूचनाएं प्रदान करते हैं किन्तु पार्श्व के जीवनवृत्त का उनमें भी अभाव है। पार्श्व का विस्तृत जीवनवृत्त को जानने का आधार मात्र ईसा की ८ वीं शताब्दी के पश्चात् लिखे गये चरित्रग्रन्थ ही हैं।

पार्श्वनाथ के माता-पिता, वंश एवं कुल

समवायांग, कल्पसूत्र और आवश्यक नियुक्ति में पार्श्व के पिता का नाम आससेन ( अश्वसेन ) माता का नाम वामा बताया गया है । जबकि दिगम्बर परम्परा के उत्तरपुराण और पद्मपुराण में पार्श्वनाथ के पिता का नाम विश्वसेन और माता का नाम ब्राह्मी लिखा है। वादिराज ने पार्श्वनाथचरित में पार्श्वनाथ की माता का नाम ब्रह्मदत्ता 'लिखा है । इस प्रकार पार्श्वनाथ के माता-पिता के नाम श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं। दिगम्बर परम्परा के ही अपेक्षाकृत कुछ प्राचीन ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति में पार्श्वनाथ की माता का नाम वम्मिला कहा गया है। यह नाम श्वेताम्बर 'पराम्परा के वामा से कुछ निकटता तो रखता है फिर भी दोनों को एक नहीं माना जा सकता। दिगम्बर परम्परा के अन्य कुछ ग्रन्थों में अश्वसेन के पर्यायवाची के रूप में हयसेन ऐसा नाम भी मिला है। नामों की यह भिन्नता विचारणीय है।

पार्श्वनाथ के कुल और वंश के संबंध में श्वेताम्बर आगम समवायांग और कल्पसूत्र में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । आवश्यकनियुक्ति पार्श्वनाथ के कुल का स्पष्टरूप से तो उल्लेख नहीं करती है, 'किन्तु उसमें अरिष्टनेमि एवं मुनिसुव्रत को छोड़कर शेष २२ तीर्थंकरों को काश्यप गोत्रीय कहा है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ उत्तरपुराण में पार्श्वनाथ को उग्रवंशीय कहा गया है। तिलोयपण्णत्ति में भी उनको उग्रवंशीय बताया है। यह संभावना व्यक्त की जा सकती है कि पार्श्व उरग वंश (नागवंश) के हो और उसी का रूपान्तरण भ्रान्तिवश उग्ग या उग्र के रूप में हो गया हो। हेमचन्द्र ने त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में और देवभद्र ने पार्श्वनाथ चरित में उनको इक्ष्वाकु कुल का बताया है। क्षत्रियों में इक्ष्वाकु कुल प्रसिद्ध रहा है और संभवतः इसीलिए पार्श्व को भी इसी कुल का मान लिया गया हो । "इस सब आधारों से ऐसा लगता है कि जैन परम्परा में पार्श्वनाथ के कुल, वंश एवं माता-पिता के नामों को लेकर एकरूपता नहीं है । जैसे उन्हें उरगवंशीय या नागवंशीय मानना अधिक उचित है। सम्भवतः उनके नागवंशीय होने से नाग को उनके साथ जोड़ा गया हो।

पार्श्व का नामकरण

पान के नामकरण के सन्दर्भ में आगम साहित्य में किसी घटना का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । यद्यपि आवश्यकचूर्णि, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पासनाहचरिउ आदि के अनुसार पार्श्वनाथ के गर्भकाल में माता के द्वारा अंधेरी रात्रि में पास में चलते हुए सर्प को देखे जाने के ङ्केकारण उन्हें पावा ऐसार नाम दिया गया । दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में इन्द्र के द्वारा उनका नाम पा रखे जाने का उल्लेख है । यद्यपि ये सभी कल्पनायें ही लगती हैं, कोई ठोस प्रमाण नहीं है ।

पार्श्व का विवाह प्रसंग

पार्न के विवाह प्रसंग को लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के आचार्यों में मतभेद है । श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ समवायांग, कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति आदि में हमें पार्श्वनाथ के विवाह के संबंध में कोई भी उल्लेख नहीं मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा के ही अन्य ग्रन्थ आवश्यक नियुक्ति तथा पउमचरियं में और दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति, पद्मपुराण एवं हरिवंशपुराण में यह उल्लेख है कि वासुपुज्ज, मल्लि, नेमि, पार्श्व और महावीर—ये तीर्थंकर कुमार अवस्था में दीक्षित हुए शेष ने राज्य किया। कुमार अवस्था में दीक्षित होने का अर्थ जहां दिगम्बर परम्परा अविवाहित होना मानती है वहाँ श्वेताम्बर परम्परा युवराज अवस्था ऐसा अर्थ करती है। 'कुमार' का अर्थ युवराज अवस्था करना अधिक संगत है क्योंकि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही ग्रन्थों में इस गाथा के अगले ही चरण में कहा गया है कि इन्होंने राज्य नहीं किया। आवश्यकनियुक्ति में प्रयुक्त 'कुमार' शब्द का अर्थ अविवाहित किया जा सकता है क्योंकि गाथा के अगले चरण में ‘णो इत्थिया अभिसेया' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ विवाह हो सकता है किन्तु अनेक प्रतियों में 'इत्थिया' के स्थान पर 'इच्छिया' पाठ भी मिलता है, जिसका अर्थ होगा राज्याभिषेक की कामना नहीं की । पुनः आवश्यकनियुक्ति के कुमार शब्द का अर्थ अविवाहित करने पर आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में और उसमें अन्तर्विरोध होगा, क्योंकि आचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध में महावीर के विवाहित होने का उल्लेख है । श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थ चउपन्नमहापुरिसचरियं, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र और देवभद्र के सिरिपासणाहचरियर57 में तथा परवर्ती श्वे० आचार्यों के पार्श्वनाथ चरित्रों में उनके विवाह का उल्लेख हुआ है। जबकि दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति, पद्मवरित, उत्तरपुराण और वादिराजकृत पार्श्वनाथ चरित्र में कुशस्थल जाने और विवाह करने का उल्लेख नहीं है। दिगम्बर आचार्य पद्मकीर्ति ने कुशस्थल जाने और उनके विवाह प्रस्ताव का प्रसंग उठाकर भी विवाह होने का प्रसङ्ग नहीं दिया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्श्व के विवाह के सम्बन्ध में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के आचार्यों में मतभेद है । प्राचीन आगमिक प्रमाणों के इस सम्बन्ध में मौन होने से निर्णयात्मक रूप में कुछ कह पाना कठिन है। वस्तुतः पार्श्वनाथ के चरित्र लेखन में क्रमशः विकास देखा जाता है, इसलिए उसमें परंपरागत अनुश्रु तियों और लेखक की कल्पनाओं का मिश्रण होता रहा है।

कमठ और नागोद्धार की घटना

पार्श्व के जीवन वृत्त के साथ कमठ से हुए उनके विवाद और नाग-नागिन के उद्धार की घटना बहुचर्चित है। किन्तु प्राचीन श्वेताम्बर आगम समवायांग और कल्पसूत्र इस घटना के संबंध में भी मौन हैं । आवश्यकनियुक्ति में भी इस संबंध में कोई उल्लेख नहीं है । कमठ तापस से उनके विवाद और नाग उद्धार की घटना का उल्लेख हमें श्वे० साहित्य में सर्वप्रथम चउपन्नमहापुरिसचरियं' में मिलता है। उसके अनुसार कमठ (कढ) नामक एक तपस्वी वाराणसी के निकट वन में तप कर रहा था । पार्श्वकुमार ने समूहों में पूजा सामग्री लेकर लोगों को जाते देखकर अपने अनुचरों से इस संबंध में पूछा कि ये लोग कहां जा रहे हैं? अनुचरों ने बताया कि नगर में कमठ नाम का एक महातपस्वी आया है। ये लोग उसी का वन्दन करने जा रहे हैं। पार्श्व भी कमठ को देखने गये। वहां उन्होंने देखा कि कमठ पंचाग्नि तप कर रहा है। हिंसा युक्त तप को देखकर पार्श्व ने तापस से कहा कि धर्म तो दया मूलक है, अग्नि को प्रज्ज्वलित करने से उसमें अनेक जीवों की हिंसा होती है। तपस्वी ने कुमार को कहा कि तुम अभी बालक हो तुम धर्म को क्या जानते हो? बताओ यहां किस जीव की हिंसा हो रही है? पान ने जलते हुए लक्कड़ को अग्नि से निकालकर सावधानी से चीरकर और उसमें जलते हुए सर्प को दिख लाया । कथा के अनुनार उसे णमोकारमन्त्र सुनवाया और वह मरकर धरणेन्द्र नामक देव हुआ। कमठ इस घटना के कारण लज्जित हुआ और जन-सामान्य में उसकी प्रतिष्ठा गिरी। फलतः वह पार्न का विरोधी बन गया । कथानक के अनुसार कमठ मरकर मेघमाली नामक देव हुआ और उसने जब पार्श्वनाथ साधना कर रहे थे अतिवृष्टि करके उन्हें उपसर्ग (कष्ट) दिया। उस समय धरणेन्द्र ने आकर पानं को जल से ऊपर ऊठाया। परवर्ती पार्श्व चरित्र संबन्धी विभिन्न ग्रन्थों में भी इस घटना के वर्णन में भिन्नता है। पद्मकीर्ति के पार्जनाथ चरित्र के अनुसार यवनराज को परास्त करने के पश्चात् पार्श कुशस्थल में निवास कर रहे थे। उसी समय उन्होंने अनेक लोगों को अर्चना की सामग्री लेकर नगर के बाहर जाते देखा। राजा रविकीति से पूछने पर ज्ञात हुआ कि उस स्थल से एक योजन की दूरी पर वनखण्ड में अनेक तापस निवास करते हैं और कुशस्थल के निवासी उनके परम भक्त हैं। पार्श्वनाथ ने वहाँ जाकर देखा कि कुछ तपस्वी पंचाग्नि तप कर रहे हैं। कुछ धूम्रपान कर रहे हैं, कुछ लोग पाँव के बल वक्षों पर लटके हैं और उनका शरीर अत्यंत कृश हो गया है। उसी समय पान ने कमठ नामक एक तापस को जंगल से लकडी का एक बोझ लेकर आते हुए देखा। वह लकड़ी को अग्नि में डालना ही चाहता था कि पार्श्व ने उसे रोका और कहा कि इसमें भयङ्कर सर्प हैं। क्रोधवश कमठ ने उस लक्कड़ को चीरा और उसमें से एक सर्प निकला, जो कि लक्कड़ के चीरने के कारण क्षतविक्षत हो चुका था। पाव ने उसे णमोकारमन्त्र सुनाया और वह नागराजाओं के बीच वीरदेव के रूप में उत्पन्न हुआ । उत्तरपुराण में गुणभद्र ने इसी घटना को पार्श्वनाथ के ननिहाल में घटित होना बताया। साथ ही तापस के रूप में पार्श्व के नाना महीपाल का उल्लेख किया है।