।। महावीर और पाश्र्वापत्यों की परम्परा के पारस्परिक सम्बन्ध ।।

सूत्रकृतांग और भगवती में उपलब्ध सन्दर्भो से हमें इस बात के स्पष्ट सङ्केत मिलते हैं कि प्रारम्भ में पाश्र्वापत्यों और महावीर के श्रमणों में विरोध था। एक ओर महावीर के अनुयायी पाश्र्वापत्यों को शिथिलाचारी मानकर आलोचना करते थे तो दूसरी ओर पार्श्व के अनुयायी महावीर के तीर्थंकर एनं सर्वज्ञ होने में सन्देह करते थे। यहाँ तक कि वे महावीर और उनके श्रमणों के प्रति वन्दन व्यवहार जैसे सामान्य शिष्टाचार के नियमों का पालन भी नहीं करते थे। भगवतीसूत्र के अनुसार कालस्यवेशीय, गांगेय आदि पापित्य महा-- वीर के पास जाते हैं किन्तु बिना वन्दन व्यवहार किये ही सीधे उनसे प्रश्न करते हैं; जब उन्हें इस बात का विश्वास हो जाता है कि महावीर पार्व की कुछ मान्यताओं को स्वीकार करते हैं और उन्हें अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकर या जिन के रूप में स्वीकार करते हैं तो वे पंचयाम एनं सप्रतिक्रमण धर्म स्वीकार करके उन्हें वन्दन नमस्कार करते हैं और उनके संघ में सम्मिलित हो जाते हैं। इस बात के भी स्पष्ट संकेत हैं कि पार्श्व के अनुयायियों में जहां कुछ महावीर से मिलने के पश्चात् उनके संघ में सम्मिलित हो जाते हैं, वहां कुछ महावीर से मिलने के बाद भी अपनी परंपरा का त्याग नहीं करते।

उत्तराध्ययन और राजप्रश्नीय में पापित्यीय श्रमण केशी का उल्लेख हमें जहां एक ओर इस बात का सङ्कत देता है कि महावीर के समय में पाश्वपित्यीय श्रमण लोक प्रतिष्ठित थे वहीं दूसरी ओर यह भी संकेत मिलता है कि पार्श्व की परम्परा के अनेक गृहस्थ और श्रमण महावीर की परंपरा में सम्मिलित हो रहे थे और दोनों परंपराओं के बीच एक समन्वय का सेतु भी बनाया जा रहा था । उत्तराध्ययन का केशीगौतमीय नामक तेईसवां अध्ययन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि किस प्रकार पार्व और महावीर के अनुयायी परस्पर मिलकर आपसी विवादों का समन्वय एवं समाधान करते थे। आवश्यकचूणि में उल्लेखित घटनाए यद्यपि अनुश्रुतिः प्रधान हैं, फिर भी वे इस तथ्य की अवश्य सूचक हैं कि पापित्य श्रमण और गृहस्थ उपासक महावीर और उनके श्रमणों की आपत्ति काल में सहायता करते थे और दोनों परंपराओं में संबन्ध मधुर थे।

पार्श्व की परंपरा

वर्तमान काल में सभी श्रमण-श्रमणियाँ तथा गृहस्थ उपासक या उपासिकायें अपने को तीर्थंकर महावीर की परंपरा से संबद्ध मानते हैं । उपकेशगच्छ के अपवाद को छोड़कर आज पार्न की परंपरा के न तो श्रमण और श्रमणियाँ हैं और न उपासक तथा उपासिकायें। यह निर्विवाद सत्य है महावीर के पश्चात् भी पानाथ की परम्परा का स्वतन्त्र रूप से कुछ समय तक अस्तित्व रहा हो, किन्तु हमें ऐसा कोई साहित्यिक एवं अभिलेखीय आधार प्राप्त नहीं होता है, जिसे जीवित रहने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके । यद्यपि अनुश्रुति के रूप में उपकेश गच्छ को पार्श्वनाथ की परम्परा से सम्बद्ध माना जाता है। वे अपनी पट्टावली में भी अपने को सीधे पार्श्वनाथ की परम्परा से जोड़ते हैं । किन्तु अनुश्रुति के अतिरिक्त इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है । उनके आचार-व्यवहार में भी ऐसा कोई तथ्य नहीं है, जो कि महावीर की परम्परा से पृथक् उनकी पहचान बनाता हो। पान की स्वतन्त्र परंपरा के विलुप्त होने की दो ही स्थितियां हो सकती हैं या तो पार्श्व के सभी श्रमण-श्रमणियाँ और उपासक सामूहिक रूप से महावीर की परंपरा में सम्मिलित हो गये हो या जिन कुछ लोगों अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को बनाये रखने का प्रयत्न किया हो वे इतने समथं न रहे हों कि अपनी परंपरा को जीवित बनाये रख सकें। फलतः धीरे-धीरे उनकी परम्परा समाप्त हो गयी।

अर्धमागधी आगम साहित्य में जिन पावपित्यों के उल्लेख हमें मिलते हैं उनमें से अधिकांश के सम्बन्ध में यही उल्लेख है कि उन्होंने पार्श्व की परम्परा को त्याग कर महावीर की परम्परा को स्वीकार कर लिया। यद्यपि कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं जिनमें “परम्परा-परिवर्तन के संकेत नहीं मिलते। फिर भी ऐसा लगता है कि पार्श्व के अनुयायियों का बहुसंख्यक वर्ग महावीर के अनुयायियों के द्वारा पार्श्व को अपना पूर्ववर्ती तीर्थंकर स्वीकार करने के साथ ही उनकी परंपरा में आ गया होगा। जैन धर्म में श्वेताम्बर परंपरा का जो विकास हुआ है हमारी दृष्टि में उसके पीछे मूलतः पापित्यों का ही अधिक प्रभाव रहा हो। श्वेताम्बर आगम साहित्य में छेदसूत्रों में जो श्रमणों के आचार संबंधी नियम हैं उनको देखने से ऐसा लगता है कि पापित्य परंपरा के श्रमणों को अपने साथ बनाये रखने के लिए ही इस प्रकार महावीर की कठोर आचार परंपरा को समाप्त कर दिया गया था। छेदसूत्रों में श्रमणों के आचार संबंधी नियमों में क्षुर मुण्डन, छत्रधारण, पात्र, उपानह, चमड़े की थैलिया आदि रखने के जो विधान पाये जाते हैं वे निश्चित रूप से पार्श्व की परंपरा से ही सम्बन्धित हैं। क्योंकि महावीर की परंपरा में यह सब प्रचलित नहीं था। आज भी श्वेताम्बर जैन श्रमण-श्रमणियां इन सब का उपयोग नहीं करते हैं। यह एक सामयिक व्यवस्था ही रही होगी जबकि पापित्य परम्परा के अधिकांश श्रमण महावीर की परंपरा के साथ जुड़े होंगे। मात्र यही नहीं हरमन जैकोबी ने इस बात की भी संभावना व्यक्त की है कि जैनों में जो श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों का मतभेद है, वह मूलतः पावपित्यों और महावीर के अनुयायियों का मतभेद है। उनके अपने ही शब्दों में “यद्यपि केशी और गौतम के सम्वाद में दोनों परम्पराओं के मूल मतभेद व्रतों की संख्या और वस्त्र के उपयोग-अनुपयोग पर उठाया गया था, किन्तु बिना किसी गम्भीर विवाद के मूलभूत नैतिक आदर्शों की एकरूपता द्वारा इसे सुलझा लिया गया था। यद्यपि दोनों ही परम्पराओं के अपने आग्रह थे । किन्तु दोनों में कोई विरोध नहीं था । मात्र यही नहीं पार्श्व की परम्परा के अनुयायी महावीर की व्यवस्था को स्वीकार करते थे । यद्यपि यह कल्पना की जा सकती है कि उन्होंने पञ्च महाव्रतों और सप्रतिक्रमण धर्म को स्वीकार करने के साथ ही साथ कुछ अपनी प्राचीन परम्पराओं को यथावत् बनाये रखा था, विशेष रूप से वस्त्र के उपयोग की परम्परा का; जिसका कि महावीर ने पूर्ण निषेध कर दिया था। इस स्वीकृति के साथ हम श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदायों के विभाजन का भी एक आधार देख सकते हैं । यद्यपि दोनों ही सम्प्रदाय दूसरे की उत्पत्ति के बारे में परस्पर विरोधी कथाओं का उल्लेख करते हैं किन्तु यह एक आकस्मिक घटना नहीं है । पार्श्व और महावीर की संघ व्यवस्था का मूल विवाद ही इस विभाजन के रूप में प्रकट हुआ है। यदि महावीर के युग में सचेलक और अचेलक परम्परा का समन्वय सम्भव था तो आज भी इस विषय पर बहुत कुछ सोचा और किया जा सकता है । शर्त यही है कि हमारी भावनाएँ उदार हों और सत्य को आग्रह का चश्मा उतार कर देखने का प्रयास किया जाये ।