।। पार्श्व की धार्मिक और दार्शनिक मान्यतायें ।।

जहाँ तक पार्श्व की मान्यताओं का प्रश्न है, आज हमें उनकी परम्परा का ऐसा कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता जो इस पर प्रकाश डालता हो । पार्श्व की दार्शनिक और आचार सम्बन्धी मान्यताओं को जानने और समझने के हमारे पास जो भी प्राचीनतम साधन उपलब्ध हैं वे श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगम ग्रन्थ ही हैं। इनमें भी ऋषिभाषित ही एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें पार्श्व के नाम से एक स्वतन्त्र अध्याय है। जिसमें उनकी दार्शनिक और आचार सम्बन्धी मान्यताओं को स्पष्ट किया गया है। तुलनात्मक अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ऋषिभाषित प्रत्येक ऋषि के उपदेश को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करता है। याज्ञवल्क्य, मंखलीगोशाल, महाकश्यप, सारिपुत्र आदि अध्यायों को देखने से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है । अतः उसमें प्रस्तुत पार्श्व के विचार भी प्रामाणिक माने जा सकते हैं। ऋषिभाषित के पश्चात् श्वेताम्बर आगम ग्रन्थों में उत्तराध्ययन का स्थान आता है जिसमें गौतम केशी के संवाद में पार्व की परम्परा की मुख्य मान्यताओं के सम्बन्ध में संक्षिप्त सूचनायें उपलब्ध होती हैं। इसके पश्चात् सूत्रकृतांग और भगवती में कुछ ऐसे प्रसंग हैं जहाँ पावपित्यों द्वारा या उनके माध्यम से पार्श्व की मान्यताओं को संकेतित किया गया है। भगवती का एक स्थल तो ऐसा है जहाँ महावीर पार्ट्स की मान्यताओं से अपनी सहमति भी प्रकट करते हैं। 'रायपसेनिय' में राजा पयासी (प्रदेशी) और केशी के बीच हुए संवाद में आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं वे भी पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित माने जा सकते हैं। क्योंकि उनके प्रतिपादक केशी स्वयं पार्श्व की परम्परा से सम्बन्धित हैं। सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और आवश्यकनियुक्ति में कुछ ऐसे स्थल भी हैं जहाँ पार्श्व की परम्परा और महावीर की परम्परा में अन्तर को स्पष्ट किया गया है।

प्रस्तुत प्रसंग में इन्हीं सब आधारों पर हम पार्श्व की मूलभूत दार्शनिक और आचार सम्बन्धी मान्यताओं को स्पष्ट करेंगे। साथ ही उनमें और महावीर की मान्यताओं में क्या अन्तर रहे हैं, अथवा महावीर ने पार्श्व की परम्परा को किस प्रकार संशोधित किया है, इसकी चर्चा करेंगे।

ऋषिभाषित में वर्णित पार्श्व का धर्म और दर्शन

जैसा कि हम पूर्व में संकेत कर चुके हैं कि पार्श्व के उपदेशों का प्राचीनतम सन्दर्भ हमें ऋषिभाषित में प्राप्त होता है। ऋषिभाषित में पार्श्व की मान्यता के सन्दर्भ में से दर्शन सम्बन्धी और आचार सम्बन्धी दोनों ही पक्ष उपलब्ध होते हैं। यहां हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि ऋषिभाषित में पार्श्व नामक अध्ययन ही ऐसा है जिसका एक पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। ग्रन्थकार ने इसकी चर्चा करते हुए स्वयं ही कहा है कि “गति व्याकरण नामक ग्रन्थों में इस अध्याय का दूसरा पाठ भी देखा जाता है। इस सूचना के साथउसमें इस अध्याय के पाठान्तर को सम्पूर्ण रूप से प्रस्तुत किया गया है। सर्वप्रथम हम ऋषिभाषित के इसी अध्याय के आधार पर पार्श्व के दर्शन और धर्म को समझने का प्रयत्न करेंगे।

दार्शनिक दृष्टि से ऋषिभाषित में मुख्यतः लोक के स्वरूप की तथा जीव और पुद्गल की गति की, कर्म एवं उसके फल-विपाक की और विपाक के फलस्वरूप विविध गतियों में होने वाले संक्रमण की चर्चा की गयी है। आचार संबंधी चर्चा के मन्दर्भ में मुख्यरूप से इसमें चातुर्याम, निर्जीव-भोजन और मोक्ष की चर्चा हुई है।

"प्रथम प्रश्न है- लोक क्या है ? उत्तर में कहा गया है कि जीव और अजीव यही लोक हैं। पुनः प्रश्न किया गया कि लोक कितने प्रकार का है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि लोक चार प्रकार का है : द्रव्य लोक, क्षेत्र लोक, काल लोक और भाव लोक । लोकभाव किस प्रकार का है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि लोकस्वतः अस्तित्ववान् है। स्वामित्व की दृष्टि से यह लोक जीवों का है । निर्माण की दृष्टि से यह लोक जीव और अजीव दोनों से निर्मित है । लोक-भाव किस प्रकार का है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि यह लोक अनादि, अनिधन और पारिणामिक (परिवर्तनशील) है। इसे लोक क्यों कहा जाता है ? इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि अवलोकित या दृश्यमान होने से इसे लोक कहा जाता है। लोकव्यवस्था गति (परिवर्तन ) पर आधारित है। गति सम्बन्धी प्रश्नों के प्रत्युत्तर में कहा गया है कि गमनशील होने से इसे गति कहा जाता है । जीव और पुद्गल दोनों ही गति करते हैं । यह गति भी चार प्रकार की है-द्रब्यगति, कालगति, क्षेत्रगति और भावगति । यह गतिभाव अर्थात् गति का चक्र अनादि और अनिधन है।

इसी प्रसंग में पार्श्व के कर्म सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुद्गल अधोगामी। जीव कर्म-प्रधान हैं और पुद्गल परिणाम प्रधान । जीव की गति कर्म से प्राप्त फल विपाक के द्वारा होती है और पुद्गल की गति परिणाम के विपाक (स्वाभाविक परिवर्तन) के द्वारा होती है। कोई भी कषाय अर्थात् हिंसा से युक्त होकर शाश्वत सुख को प्राप्त नहीं कर सकता।

जीव दो प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं (सुख रूप और दुःख रूप)। प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शन शल्य से विरत होकर जीव सुख का वेदन करता है। इसके विपरीत हिंसा आदि कृत्यों से जीव भय और दुःख को प्राप्त होता है। जिसने अपने कर्तव्य मार्ग का निश्चय कर लिया है, जो संसार में जीवन निर्वाह के लिये निर्जीव पदार्थों का ही आहार करता है, जिसने आस्रवों के द्वार बन्द कर लिये हैं ऐसा भिक्षु इस संसार प्रसूत वेदना का छेदन करता है । संसार | भव भ्रमण का नाश करता है और भव-भ्रमण जन्य वेदना का नाश करता है। उसका संसार समाप्त हो जाता है और उसकी सांसारिक वेदना अर्थात् संसार के दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। वह बुद्ध, विरत, विपाप और शान्त होता है और पुनः संसार में जन्म नहीं लेता है।

ऋषिभाषित में पार्श्व की मान्यताओं को पाठभेद से दो प्रकार से प्रस्तुत किया गया है । इसी 'ग्रन्थ में गति व्याकरण' नामक ग्रन्थ में उपलब्ध पाठ के आधार पर पार्ग की मान्यताओं को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है-"जीव और पुद्गल दोनों ही गतिशील हैं । गति दो प्रकार की है-प्रयोगगति (परप्रेरित) और विस्रसागति । ये (स्वतः प्रेरित) गतियाँ जीव और पुद्गल दोनों में ही होती हैं । औदायिक और पारिणामिक–ये गति के रूप है और गमनशील होने से इसे गति कहते हैं । जीव ऊर्ध्वगामी होते हैं और पुद्गल अधोगामी। पाप कर्मशील जीव परिणाम (मनोभाव) से गति करता है और वह पुद्गल की गति में प्रेरक भी होता है। जो पापकर्मों का वशवर्ती है वह कभी भी दुःख रहित नहीं होगा, अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं होगा । वे पाप-कर्म प्राणातिपात से लेकर परिग्रह तक हैं। वह असम्बुद्ध अर्थात् ज्ञान रहित जीव कर्म के द्वारों को न रोकने वाला, चातुर्याम धर्म से रहित, आठ प्रकार की कर्म-ग्रन्थि को बांधता है और उन कर्मों के विपाक के रूप में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव गति को प्राप्त करता है । जीव स्वकृत कर्मों के फल का वेदन करता है परकृत कर्मों का नहीं । सम्यक् सम्बुद्ध जीव कर्म आगमन के द्वारों को बन्द कर देने वाला, चातुर्याम धर्म का पालन करने वाला आठ प्रकार की कर्म-ग्रंथि को नहीं बाँधता है और इस प्रकार उनके विपाक के रूप में नारक, देव, मनुष्य और पशु गति को भी प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार ऋषिभाषित के आधार पर पार्श्वनाथ की दार्शनिक और आचार संबंधी मान्यताओं का एक संक्षिप्त चित्र यहाँ प्रस्तुत किया गया है।

अन्य आगम ग्रन्थों में वर्णित पार्श्व का धर्म और दर्शन

यदि हम सूत्रकृतांग की ओर आते हैं तो हमें पार्श्वनाथ की मान्यताओं के सम्बन्ध में कुछ और अधिक जानकारी प्राप्त होती है। सूत्र कृतांग में 'उदक पेढालपुत्र' नामक पाश्र्वापत्य श्रमण की महावीर के प्रधान गणधर गौतम से हुई चर्चा का उल्लेख है । उदक पेढालपुत्र गौतम से प्रश्न करते हैं कि आपकी परम्परा के कुमारपुत्रीय श्रमण श्रमणोपासक को इस प्रकार का प्रत्याख्यान कराते हैं कि "राजाज्ञादि कारण से किसी गृहस्थ को अथवा चोर को बांधने-छोड़ने के अतिरिक्त मैं किसी त्रस जीव की हिंसा नहीं करूंगा।" किन्तु इस तरह का प्रत्याख्यान दुःप्रत्याख्यान है, क्योंकि त्रस जीव मरकर स्थावर हो जाता है और स्थावर जीव मरकर त्रस हो जाता है। अतः उन्हें इस प्रकार सविशेष प्रत्याख्यान करवाना चाहिये कि "मैं राजाज्ञादि कारण से गृहस्थ को अथवा चोर को बांधने या छोड़ने के अतिरिक्त त्रसभूत अर्थात् त्रस पर्याय वाले किसी जीव की हिंसा नहीं करूंगा। इस प्रकार 'भूत' अर्थात् त्रस अवस्था को प्राप्त विशेषण लगा देने से उक्त दोषापत्ति नहीं होगी । गौतम ने उनकी इस शंका का समाधान करते हुए इस बात को विस्तार से स्पष्ट किया है कि प्रत्येक प्रत्याख्यान किसी भी जीव की अवस्था विशेष से ही सम्बन्धित होता है। जो त्रस प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान करता है वह त्रस पर्याय में रहे हुए जीवों की ही हिंसा का प्रत्याख्यान करता है । जिस प्रकार कोई व्यक्ति श्रमण पर्याय त्यागकर गृहस्थ बन जाय तो वह गृहस्थ ही कहा जायेगा, श्रमण नहीं ; इसी प्रकार त्रस काय से स्थावर काय में गया जीव स्थावर है त्रस नहीं। इस चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं पापित्यों में भी हिंसा आदि के प्रत्याख्यान की परम्परा थी और साथ ही वे प्रत्याख्यान की भाषा के प्रति भी अत्यन्त सजग थे।

भगवती सूत्र में पापित्य गांगेय अनगार और भगवान् महावीर की चर्चा का उल्लेख है। इसमें चारों गतियों में जन्म और मृत्यु के सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा है। इस चर्चा में मुख्य रूप से इस दार्शनिक प्रश्न को भी स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार सत् ही उत्पन्न होता है और विनष्ट होता है। महावीर जब यह कहते हैं कि सत् ही उत्पन्न होता है और सत् ही विनष्ट होता है तो गांगेय स्वाभाविक रूप से यह दार्शनिक समस्या उपस्थित करते हैं कि सत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? यदि वह उत्पन्न होता है तो इसका अर्थ होगा कि वह पहले असत् था, पुन: जो विनाश को प्राप्त होता है वह भी सत् कैसे हो सकता है? इस प्रकार सत् के उत्पन्न और नष्ट होने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जो असत् है उसका भी उत्पाद और विनाश नहीं हो सकता । महावीर ने यहाँ गांगेय अनगार के समक्ष पार्श्वनाथ की ही मान्यता को स्पष्ट करते हुए यह बताया कि अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, इसमें न तो सर्वथा असत् की ही उत्पत्ति होती है और न सत् का सर्वथा नाश ही होता है । अतः अपने औदायिक एवं पारिणामिक भावों के कारण सत् ही उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। ऋषिभाषित के अनुसार भी पार्श्व के दर्शन में लोक को अनादि, अनिधन मानने के साथ-साथ उसे पारिणामिक या परिवर्तनशील भी माना गया है। यहाँ हम देखते हैं कि जैन दर्शन की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक सत् की जो अवधारणा है उसका मूल पार्श्वनाथ की विचारधारा में स्पष्ट रूप से उपस्थित है। गांगेय और महावीर की इस चर्चा में यह प्रश्न भी उठाया गया है कि प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार ही चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं और वहाँ से निकलते हैं या इनका प्रेरक अन्य कोई है ? प्रत्युत्तर में महावीर कहते हैं कि जीव अपने ही शुभाशुभ कर्मों से चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं उनका प्रेरक अन्य कोई नहीं है। गांगेय का महावीर के इस उत्तर से सन्तुष्ट होकर उन्हें सर्वज्ञ मानना इस तथ्य का सूचक है कि पाश्वपित्यों की भी यही मान्यता थी। ऋषिभाषित में भी कर्म सिद्धान्त की अवधारणा के साथ यह कहा गया है कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करता है परकृत का नहीं। इस प्रकार हम देखते हैं कि पार्ता के दर्शन में जैन कर्म सिद्धान्त की मूलभूत अवधारणा स्पष्ट रूप से उपस्थित थी।

भगवती सूत्र में अन्यत्र 'कालाश्यवैशिक पुत्र' नामक पापित्य की भगवान् महावीर के कुछ स्थविर श्रमणों के साथ हुई चर्चा का भी उल्लेख मिलता है । इस चर्चा में मुख्य रूप से सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक और व्युत्सर्ग के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। मात्र यही नहीं, यहां यह भी बताया गया है कि आत्मा ही सामायिक है, संयम है, संवर है, विवेक है, इत्यादि । क्योंकि ये सभी आत्मापूर्वक होते हैं । यहाँ यह भी प्रश्न उपस्थित किया गया कि आत्मा ही सामायिक है तो फिर कषाय आदि भी आत्मा ही होंगे और फिर कषायों की निन्दा क्यों की जाती है। पूनः यह प्रश्न भी उठाया गया कि निन्दा संयम है या अनिन्दा। इसके स्पष्टीकरण में महावीर के स्थविरों ने कहा कि परनिन्दा असंयम है और आत्मनिन्दा संयम है।

इसी प्रकार एक अन्य प्रसंग में भगवती में महावीर के श्रमणोपासकों और पार्वापत्य श्रमणों के बीच हुई वार्ता का भी उल्लेख मिलता है । इसमें महावीर के श्रमणोपासक संयम और तप के फल के विषय में प्रश्न करते हैं। पापित्य स्थविर इसके उत्तर में कहते हैं कि संयम का फल अनाश्रव है और तप का फल निर्जरा है। पार्वापत्य श्रमणों के इस उत्तर पर महावीर के श्रमणोपासक फिर प्रश्न करते हैं कि यदि संयम का फल अनास्रव तथा तप का फल निर्जरा है तो जीवदेवलोक में किस कारण से उत्पन्न होते हैं ? इस सम्बन्ध में पापित्य श्रमण विभिन्न रूपों में उत्तर देते हैं। कालीयपुत्र स्थविर कहते हैं कि प्राथमिक तप से देवलोक में देव उत्पन्न होते हैं। मेहिल स्थविर कहते हैं कि प्राथमिक संयम से देवलोक में देव उत्पन्न होते हैं। आनन्द रक्षित स्थविर कहते हैं कि कामिकता अर्थात् सराग संयम और तप के कारण जो कर्मबन्ध होता है उसके निमित्त से देवलोक में देव उत्पन्न होते हैं । काश्यप स्थविर कहते हैं कि सांगिकता (आसक्ति) से देवलोक में देव उत्पन्न होते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पापित्य परम्परा में तप, संयम, आस्रव, अनास्रव, निर्जरा आदि की अवधारणायें न केवल व्यवस्थित रूप से उपस्थित थीं, अपितु उन पर गम्भीरता पूर्वक चिन्तन भी किया जाता था।

उत्तराध्ययन सूत्र में महावीर और पार्श्वनाथ की परम्परा के मूलभूत अन्तर चातुर्याम और पंचयाम के तथा सचेल और अचेल के प्रश्नों को लेकर विस्तृत चर्चा है। श्रमण केशी और गौतम के बीच हुई इस चर्चा से इतना तो स्पष्ट रूप से फलित होता है कि पार्ण चातुर्याम धर्म के साथ-साथ सचेल धर्म का प्रतिपादन करते थे। चातुर्याम तथा पंचयाम तथा सचेल और अचेल के विवाद के अतिरिक्त केशी और गौतम के बीच हुई इस संवाद में अनेक आध्यात्मिक प्रश्नों की भी चर्चा की गयी थी जिसमें मुख्य रूप से ५ इन्द्रियों, ४ कषायों, मन और आत्मा का संयमन तथा तृष्णा का उच्छेद किस प्रकार संभव है यह समस्या उठायी गयी थी। श्रमण केशी के द्वारा उठाये गये ये 'प्रश्न इस बात को सूचित करते हैं कि पान की परम्परा में भी आत्मा, मन और इन्द्रियों के संयम तथा तृष्णा और कषायों के उन्मूलन पर गम्भीर रूप से चिन्तन होता था। इन सब सूचनाओं के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहचते हैं कि सत् का उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होना, पंचास्तिकाय की अवधारणा, अष्ट प्रकार की कर्म ग्रन्थियाँ, शुभाशुभ कर्मों के शुभाशुभ विपाक, कर्म-विपाक के कारण चारों गतियों में परिभ्रमण तथा सामायिक, संवर, प्रत्याख्यान, निर्जरा, व्युत्सर्ग आदि सम्बन्धी अवधारणायें पापित्य परम्परा में स्पष्ट रूप से उपस्थित थी और उन पर विस्तार से तथा गम्भीरता पूर्वक चर्चा होती थी। महावीर की परम्परा में ये सभी तत्त्व पापित्य परम्परा से गृहीत होकर विकसित हुए हैं।