।। पार्श्व का विहार क्षेत्र - ऐतिहासिक विकासक्रम – अवदान ।।

आवश्यक नियुक्ति की सूचना के अनुसार जहाँ अन्य तीर्थंकरों में केवल मगध, राजगृह, आदि आर्य क्षेत्रों में विहार किया था वहाँ ऋषभ, नेमि, पान और महावीर ने अनार्य क्षेत्रों में भी विहार किया था। इससे ऐसा लगता है कि अन्य तीर्थंकरों की अपेक्षा ऋषभ, नेमि, पान और महावीर के विहार क्षेत्र अधिक व्यापक थे। यद्यपि परवर्ती पार्श्वचरित्रों के लेखकों ने पार्श्व के विहार क्षेत्रों में कुरु, कौशल, काशी, सुम्ह, अवन्ती, पुण्ड, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पांचाल, मगध, विदर्भ, भद्र, दशार्ण, सौराष्ट्र, कर्णाटक, कोंकड़, मेवाड़, लाट, द्राविड़, काश्मीर, कच्छ, शाक, पल्लव, वत्स, और आभीर देश का उल्लेख किया । किन्तु मेरी दृष्टि में उनका विहार क्षेत्र वर्तमान उत्तर प्रदेश, विहार, पूर्वी मध्य प्रदेश, उड़ीसा और बंगाल तक सीमित रहा होगा। पार्श्व और महावीर के काल में बंगाल अनार्य क्षेत्र माना जाता था। नियुक्ति का अनार्य भूमि से तात्पर्य उसी क्षेत्र से है।

पार्श्व के कथानक का ऐतिहासिक विकासक्रम

जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं, पार्श्वनाथ के जीवन वृत्त के संबंध में प्राचीन उल्लेख अल्पतम ही हैं। किन्तु इसके विपरीत पार्श्वनाथ के उपदेश, उनकी धार्मिक और दार्शनिक मान्यताएँ, पार्वापत्य श्रमणों का स्वयं महावीर से अथवा महावीर के श्रमणों से मिलने एवं तत्त्वचर्चा करने आदि के उल्लेख प्राचीन आगम साहित्य में पर्याप्त रूप से उपलब्ध है । पार्न के जीवन वृत्त के संबन्ध में समवायांग, कल्पसूत्र एवं आवश्यकनियुक्ति में उनका गंश, माता-पिता के नाम, गर्भावतरण, जन्म, दीक्षा, कैवल्य और निर्वाण की तिथियाँ एवं नक्षत्र, गणधरों के नाम तथा श्रमण-श्रमणी एवं उपासक-उपासिकाओं की संख्या संबंधी उल्लेख मिलते हैं। पार्श्वनाथ के जीवनवृत्त की प्रमुख घटनाओं के संबंध में ये ग्रन्थ लगभग मौन ही हैं । साथ ही कल्पसूत्र, समवायांग, आवश्यकनियुक्ति एवं तिलोयपण्णत्ति के सब विवरण २४ तीर्थंकरों की मान्यता के स्थिर होने के पश्चात् अर्थात् लगभग तीसरी-चौथीं शताब्दी के बाद के ही लगते हैं । आगम साहित्य में पान संबंधी विवरणों में प्राचीन स्तर के विवरण तो मात्र पापित्यों के महावीर एवं महावीर के श्रमणों से मिलन को तथा पार्ग की तात्विक तथा आचार संबंधी मान्यताओं को सूचित करते हैं । यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि यह स्थिति केवल पार्न के संबंध में ही नहीं है, अपितु सभी भारतीय चिन्तकों और साधकों के संबंध में भी है।

प्राचीन युग में केवल उपदेश भाग को ही महत्ता दी जाती थी और इसलिए उसी को सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया जाता था । जैन परंपरा में पान के संबंध में विकसित कथानकों में उनके एनं कमठ के पूर्व भवों तथा दोनों के पारस्परिक सम्बन्धों का विवरण, इस भव में घटित कमठ तापस सम्बन्धी घटना, पार्श्व का यवन राज को विजित करने के लिए प्रस्थान करना तथा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ उनके विवाह संबंधी प्रस्ताव-चर्चा प्रमुख रूप से उपलब्ध होती है। किन्तु जैसा कि हमने देखा ये सब विवरण बागम साहित्य में और नियुक्तियों में कहीं भी उपलब्ध नहीं होते हैं। श्वेताम्बर परंपरा में पार्श्व से संबंधित उपयुक्त सभी कथानक बिकसित रूप से सर्वप्रथम शीलांक के चउपन्नमहापुरिएचरियं में पलब्ध होते हैं। यह ग्रन्थ लगभग ईसा की नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लिखा गया है। इसके बाद के सभी टीकाकारों और ग्रन्थकारों ने इन घटनाओं का उल्लेख किया है । दिगम्बर परंपरा में पार्श्वनाथ के कथानक संबंधी विवरण का प्राचीनतम आधार यतिवृषभ कृत तिलोयपण्णत्ति है, किन्तु उसमें भी श्वेताम्बर आगम साहित्य के अनुरूप ही तीर्थंकरों के जन्म स्थान, पंच कल्याणक उनके नक्षत्र, मातासिता आदि संबंधी उल्लेख मात्र मिलते हैं। पार्न के संबंध में विस्तृत कथानक का इसमें भी अभाव है। दिगम्बर परंपरा में पार्श्व का विस्तृत कथानक सर्वप्रथम जिनसेन के पार्वाभ्युह्य एवं गुणभद्र के उत्तरपुराण में उपलब्ध होता है। ग्रन्थ भी ईसा की ९वीं शताब्दी में लिखे गये है। अतः श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में पार्न से संबंधित विस्तृत कथानक हमें नवीं शताब्दी से पूर्व उपलब्ध नहीं होते हैं। परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में पार्श्वनाथ पर जो भी चरित्र ग्रन्थ लिखे गये हैं उन सबमें इन्हीं कथानकों का विकास देखा जाता है। वे सभी भी पार्न के सम्बन्ध में उनके पूर्व भव, कमठ सम्बन्धी घटना तथा प्रभावती की और प्रसेनजित के सज्य की यवनराज के आक्रमण से सुरक्षा आदि के उल्लेख से युक्त हैं। 'यवनराज' शब्द स्वयं इस कथानक को परवर्ती काल का सिद्ध करता है।

यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि पार्श्व के बीवन वृत्त के संबंध में विस्तृत विवरण और कथानक जिनका उल्लेख श्वेताम्बर परंपरा में 'चउप्पनमहापुरुषचरियं' में आचार्य शीलांक और दिगम्बर परंपरा के उत्तरपुराण में गुणभद्र करते हैं, वे क्या उनकी ही कल्पना की सृष्टि है या उसके पूर्व ये कथानक कहीं अन्यत्र वर्णित थे। प्रामाणिक साक्ष्य के अभाव में आज इस संबंध में निर्णयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन होगा, किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अनुश्रुति के रूप में ये कथानक इनके पूर्व भी प्रचलित रहे होंगे। कल्पसूत्र भी कम से कम इतना उल्लेख अवश्य करता है कि पार्श्वनाथ ने अपने साधनाकाल में देव, मनुष्य और तिर्यञ्च संबंधित अनेक उपसर्गों को सहन किया। सम्भवतः इसी आधार पर आगे कमठ संबंधी घटनाक्रम का विवरण लिखा गया होगा। पार्श्वनाथ और कमठ के इसी कथानक का विकास पानाथ के पूर्व भवों संबंधी विवरणों में भी देखा जाता है। पार्न के जीवनवृत्त में कमठ संबंधी घटनाक्रम को स्थान देने के दो उद्देश्य हैं, प्रतीत होते प्रथम तो इस घटनाक्रम द्वारा श्रमण परंपरा में विकसित अविवेकपूर्ण देह-दण्डन की आलोचना कर विवेकपूर्ण ज्ञानमार्गी साधना की प्रतिष्ठा करना और दूसरा कर्मसिद्धांत की अनिवार्यता को सिद्ध करना।

प्रभावती संबंधी प्रसंग परवर्ती सभी श्वेताम्बर और कुछ दिगम्बर ग्रन्थों में उपलब्ध है । मात्र अन्तर यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परंपरा के कथा लेखक प्रभावती की यवनराज से सुरक्षा करने के साथ-साथ बाद में प्रसेनजित और अश्वसेन के आग्रह पर उसके साथ पार्श्व के विवाह का भी उल्लेख कर देते हैं; वहाँ दिगम्बर परंपरा के वे ग्रन्थकार जिन्होंने इस प्रसंग को चित्रित किया है, पार्श्व की गैराग्य भावना को प्रदर्शित कर विवाह के लिए उनके स्पष्ट निषेध को चित्रित करते हैं। इस घटनाक्रम में जो यवनराज का उल्लेख है उससे ऐसा लगता है कि यह कथानक यवनों के भारत प्रवेश के पश्चात् ही कभी विकसित हुआ होगा। पार्श्व के जीवन वृत्त संबंधी घटनाक्रमों के प्राचीन उल्लेखों के अभाव से हमें पान के अस्तित्व और उनकी ऐतिहासिकता के संबंध में कोई प्रश्न चिह्न नहीं खड़ा करना चाहिए, क्योंकि उनके एवं उनकी परंपरा के अस्तित्व तथा उनके उपदेशों से संबंधित विवरण ऋषिभाषित, आचारांग द्वितीय-श्रु तस्कन्ध, सूत्रकृतांग और भगवती जैसे प्राचीन स्तर के आगम ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उपलब्ध हैं।

पार्श्वनाथ का अवदान

भारतीय संस्कृति की श्रमण धारा मूलतः त्याग और तप को प्रधानता देती है और इसी कारण ही इसकी लोक में प्रतिष्ठा रही है। यह सुनिश्चित है कि पार्श्वनाथ इसी श्रमण परम्परा के प्रवक्ता हैं, किन्तु उनका इस श्रमण परम्परा को एक विशिष्ट अवदान है। यद्यपि श्रमणों ने वैदिकों के हिंसक यज्ञ-याज्ञों का खण्डन कर उनकी कर्मकाण्डी परम्परा को अस्वीकार कर दिया था, किन्तु श्रमण धारा में भी यह कर्मकाण्ड किसी तरह प्रविष्ट हो गया था। उसमें भी तप और त्याग-विवेक प्रधान न रह कर कर्मकाण्ड-प्रधान बन गये थे। ऐसा लगता है कि पार्श्वनाथ के युग में श्रमण धारा में भी तप और त्याग के साथ कर्मकाण्ड पूरी तरह जुड़ा हुआ था और तप बाह्याडम्बर और देहदण्डन की एक प्रक्रिया से अधिक कुछ नहीं था। कठोरतम देहदण्डन द्वारा लोक में अपनी प्रतिष्ठा को अर्जित करना ही उस युग के श्रमणों और संन्यासियों का एकमात्र उद्देश्य था। औपनिषदिक ऋषियों की, ज्ञानमार्गी धारा अभी अपना रूप ले रही थी अतः सम्भव यही लगता है कि पार्श्व ने सर्वप्रथम श्रमण परम्परा में प्रविष्ट हुए इस देहदण्डन और कर्मकाण्ड का विरोध किया। उनके जीवनवृत्त में कमठ तापस का जो विवरण जुड़ा है, उसका उद्देश्य भी तप और ध्यान को मात्र देह दण्डन की प्रक्रिया से मुक्त करना है।

पार्श्वनाथ अभी युवा ही हुए थे, उन्होंने देखा कि वैदिक परम्परा के यज्ञों में प्राणियों का बलिदान हो रहा है। किन्तु वैदिकों की परपीडन की प्रवृत्ति का स्थान श्रमण धारा में स्व-पीडन ने ले लिया दूसरों को बलिवेदी पर चढ़ाने के स्थान पर व्यक्ति स्वयं अपने कों बलिदान की वेदी पर चढ़ाने लगा है। पर-पीड़न की वृत्ति आत्म-पीड़ना के रूप में विकसित होने लगी थी और उस आत्म-पीड़न में भी किसी न किसी रूप में पर-पीड़न जुड़ा हुआ था। इसीलिये पार्श्व कुमार को कमठ से कहना पड़ा होगा कि तुम्हारी इस साधना में आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति कहाँ है ? इसमें न तो स्वहित है और न परहित या लोकहित । खुद भी पीड़ित हो रहे हो और दूसरों को भी पीड़ित कर रहे हो । एक ओर पंचाग्नि तप की इस ज्वाला से तुम्हारा शरीर झुलस रहा है तो दूसरी ओर उसमें छोटे-बड़े अनेक जीव-जन्तु भी झलस रहे हैं। न जाने कितने कीट-पतंग तुम्हारी इस अग्नि की ज्वाला में जीवन की बलिवेदी पर चढ़ रहे हैं। मात्र यही नहीं तुम जिस लक्कड़ को जला रहे हो उसमें एक नाग युगल भी जल रहा है। पार्क के कथानक में लक्कड़ को खींचकर उसमें से उस नाग युगल को बचाने की जो घटना वर्णित है, वह यह बोध कराती है कि ऐसी साधना जिसमें आत्म-पीड़न और पर-पीड़न जुडा हो, सच्ची साधना नहीं हो सकती। साधना में ज्ञान और विवेक की प्रतिष्ठा आवश्यक है। वह देहदण्डन 'भी जिसमें ज्ञान और विवेक के तत्त्व नहीं हैं, आत्म-पीड़न से अधिक कुछ नहीं है । देह को पीड़ा देना साधना नहीं है। साधना तो मनोविकारों की निर्मलता है, आत्मा में सहज आनन्द की अनुभूति है। पाव की यह हितशिक्षा चाहे कमठ जैसे उस युग के तापसों को अच्छी न लगी हो किन्तु इसमें एक सत्य निहित है। धर्म साधना को, न तो दूसरों की पीड़ा के साथ जोड़ना चाहिए और न आत्म-पीड़न के साथ । मुक्ति प्राप्ति का अर्थ है वासना और विकारों से मुक्ति।

ऐसा लगता है कि पार्श्वनाथ ने अपने युग में धर्म और साधना के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण क्रान्ति की होगी। उन्होंने साधना को सहज बनाने का प्रयत्न किया और उसमें ज्ञान और विवेक के तत्त्व को प्रतिष्ठित किया। भगवान् बुद्ध ने आगे चलकर उभय अन्तों के परित्याग के रूप में जिस धर्ममार्ग का प्रवर्तन किया था उसका मूलस्रोत पार्न की परम्परा में निहित था। पान धर्म और साधना को परपीड़न और आत्म-पीड़न से मुक्त करके आत्म शोधन या निर्विकारता की साधना के साथ जोड़ते हैं और यही उनका भारतीय संस्कृति और श्रमण परम्परा को सबसे बड़ा अवदान है।