।। पार्श्व सम्बन्धी साहित्य ।।

यद्यपि स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, राजप्रश्नीय आदि में पार्श्व और उनकी परम्परा के सम्बन्ध में प्रकीर्ण विवरण उपलब्ध होते हैं, किन्तु पार्श्व के सम्बन्ध में सुव्यवस्थित विवरण देने वाला कल्पसूत्र को छोड़कर अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है। कल्पसूत्र भी विशुद्धरूप से केवल पार्श्व का ही जीवनवृत्त नहीं देता है, अपितु वह अन्य तीर्थंकरों का जीवन परिचय संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत करता है। नियुक्तियों, भाष्यों और चूणियों में भी पार्श्व और उनकी परम्परा के कुछ विवरण उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु ये ग्रन्थ भी पार्श्व का सुव्यवस्थित जीवन विवरण प्रस्तुत नहीं करते हैं । श्वेताम्बर परम्परा में सर्व प्रथम शीलांक (लगभग ९ वीं शती) के चउपन्नपुरिसचरियं और आचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में पार्श्व का जीवनवृत्त मिलता है।

इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति, भगवती आराधना आदि से पार्श्व एवं पार्श्वस्थों के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएं उपलब्ध हैं, किन्तु इनमें पार्श्व के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त का अभाव है। दिगम्बर परम्परा में पार्श्व के सुव्यवस्थित जीवनवृत्त को प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रंथ जिनसेन एवं गुणभद्र का महापुराण है । महापुराण दो भागों-आदिपुराण और उत्तरपुराण में विभाजित है । आदिपुराण में ऋषभदेव का वर्णन है; जबकि उत्तरपुराण में अन्य २३ तीर्थंकरों का वर्णन है। इसी उत्तरपुराण में पार्श्व का जीवनवृत्त भी वर्णित है। यह उत्तरपुराण गणभद्र की कृति है और इसका रचनाकाल ई० सन् ८४८ के लगभग माना जा सकता है किन्तु इसके पूर्व पार्श्व के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे जाने लगे थे । अभी तक उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के लगभग २५ से अधिक स्वतंत्र ग्रंथ पार्श्व के जीवनचरित पर लिखे गये हैं जिनकी यहाँ संक्षिप्त चर्चा की जा रही है।

(१) पार्वाभ्युदयः जिनसेन– – पार्श्व पर लिखे गये स्वतन्त्र ग्रन्थों में पार्वाभ्युदय का स्थान सर्वप्रथम आता है । यह ग्रंथ दिगम्बर जैनाचार्य जिनसेन प्रथम की रचना मानी जाती है । इसका रचनाकाल ई० सन् ७८३ से पूर्व माना जाता है । मूलतः एक समस्यापूर्ति काव्य के रूप में इस ग्रन्थ की रचना की गयी है। इसमें चार सर्ग और ३६४ पद्य हैं। जिसमें मुख्यतया पार्श्व के उपसर्गों की चर्चा उपलब्ध होती है । यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबद्ध है।

(२) पार्श्वनाथचरितम् : वादिराजसूरि- यह ग्रन्थ १२ सर्गों में विभक्त है, तथा पार्श्व के पूर्वभवों और जीवनवृत्त का विस्तार से विवेचन करता है। इसकी भाषा संस्कृत है। कवि ने 'इसे पार्श्व जिनेश्वरचित महाकाव्य' कहा है। यह ई० सन् १०१९ की रचना है।

इसके रचयिता दिगम्बर जैन परम्परा के नन्दिसंघ के श्रीपालदेव के प्रशिष्य तथा मतिसागर के शिष्य वादिराजसूरि हैं । इस ग्रंथ का प्रकाशन माणिकचन्द्र जैन दिगम्बर ग्रंथमाला, बम्बई द्वारा वि. सं. १९७३ में हुआ है । इस ग्रंथ पर अनेक व्याख्यायें भी लिखी गई हैं।

(३) पासनाहचरिउ : देवदत्त- डा. देवेन्द्र कुमार शास्त्री ने अप. भ्रंश के चरितकाव्यों में देवदत्त के पासनाहचरिउ का उल्लेख किया है । वर्तमान में यह कृति उपलब्ध नहीं होती है। जम्बूस्वामीचरिउ के रचयिता महाकवि वीर ने अपने पिता का नाम देवदत्त उल्लिखित किया है । यदि पार्श्वनाहचरिउ के रचयिता यही देवदत्त हैं तो इस ग्रंथ का रचनाकाल ईसा की दसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जायेगा। कृति अनुपलब्ध होने से उसके सम्बन्ध में अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता है।

(४) पासनाहचरिउ : पद्मकीति- अपभ्रंश भाषा में निबद्ध इस कृति के रचयिता दिगम्वर आचार्य जिनसेन (द्वितीय) के शिष्य पद्मकीति हैं। ई. सन् १०७७ में इस ग्रन्थ की रचना हुई है। इसमें पार्व के पूर्व और वर्तमान भव का सविस्तार विवेचन है। प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी ने सन् १९६५ में इस ग्रन्थ को प्रकाशित किया।

(५) सिरिपासनाहचरियः देवभद्र- श्वेताम्बर चन्द्रगच्छीय अभयदेवसूरि के पट्टधर प्रसन्नचन्द्रसूरि के शिष्य देवभद्रसूरि द्वारा ई. सन् ११११ (वि. सं. ११६८ ) में इस ग्रंथ की रचना की गयी है। प्राकृत भाषा में लिखित इस ग्रन्थ का प्रकाशन सर्व प्रथम मणिविजयगणिवर ग्रन्थमाला द्वारा ई. सन् १९४५ में हुआ था। इसका एक गुजराती अनुवाद भी आत्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित हुआ है।

(६) पासनाहचरिउः विबुधश्रीधर- यह कति भी अपभ्रंश भाषा में लिखित है । १२ संधियों में विभक्त यह ग्रन्थ १२०० श्लोक प्रमाण है । ग्रंथ का रचनाकाल ई. सन् ११३२ सुनिश्चित है। इसके रचयिता विबुधश्रीधर दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित थे।

(७) पासनाहचरिउ : देवचन्द्र- अपभ्रंशभाषा में लिखित इस ग्रंथ में ११ संधियां और १०२ कर्बट हैं । इसकी कथावस्तु परम्परागत ही है । ग्रंथ के लेखक दिगम्बर परम्परा के मूलसंघ के वासवचन्द्र के शिष्य देवचन्द्र हैं । डा. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इस ग्रन्थ को १२ वीं शताब्दी ई० सन् के आसपास माना है।

(८) पार्श्वनाथचरित्र : माणिक्यचन्द्रसूरि- श्वेताम्बर राजगच्छीय माणिक्यचन्द्रसूरि ने वि. सं. १२७६ में इस ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में १० सर्ग हैं । यह ग्रन्थ ६७७० श्लोक परिमाण है। इसमें भी पार्श्व के पूर्वभवों के साथ उनके जन्म, दीक्षा, कैवल्य एवं निर्वाण का विस्तृत विवरण उपलब्ध है। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी ताडपत्रीय प्रति शान्तिनाथ जैन ग्रन्थ भण्डार, खंभात में सुरक्षित है।

(९) पार्श्वनाथचरित्र : विनयचंद्र- संस्कृत भाषा में निबद्ध यह कृति ६ सर्गों में विभक्त है तथा ४६८५ श्लोक प्रमाण है। यह कृति अभी तक अप्रकाशित ही है। इसकी कथावस्तु परम्परागत ही है । इस ग्रंथ के रचनाकार चन्द्रगच्छीय मानतुंगसूरि के प्रशिष्य एवं रविप्रभसूरि के शिष्य विनयचन्द्रसूरि हैं। ई. सन् १२२६-८८ के मध्य इस ग्रन्थ का रचनाकाल माना जाता है ।

(१०) पार्श्वनाथचरित्र : सर्वानन्दसूरि- संस्कृत भाषा में निबद्ध ग्रंथ में पाँच सर्ग हैं । यह ग्रंथ अप्रकाशित है। इसकी ताडपत्रीय प्रति संघवीपाड़ा ग्रन्थ भंडार पाटन, में सुरक्षित है। यह अत्यन्त जीर्ण है और इसमें कुल ३४५ पृष्ठ हैं जिसमें प्रारम्भ के १५६ पृष्ठ लुप्त हैं । ग्रन्थ का रचनाकाल ई. सन् १२३४ माना गया हैं। इसके रचयिता श्वे० परम्परा के शालिभद्रसूरि के प्रशिष्य एवं गुणभद्रसूरि के शिष्य सुधर्मागच्छीय सर्वानन्दसूरि हैं।

(११) पार्श्वनाथचरित्र : भावदेवसूरि- संस्कृत भाषा में निबद्ध इस ङ्केकृति में ८ सर्ग और लगभग ६ हजार श्लोक हैं । इस ग्रन्था के रचनाकार चन्द्रकुल के खंडिलगच्छ के आचार्य भावदेवसूरि हैं। ग्रन्थ का रचनाकाल वि० सं० १४१२ ( ई० सन् १३५५ है)।

(१२) पार्श्वनाथपुराण : सकलकोति- संस्कृत भाषा में निबद्ध इस कृति में २३ सर्ग हैं । इस ग्रन्थ के रचनाकार दिगम्बर परम्परा के बलात्कारगण के ईडर शाखा के आचार्य सकलकीर्ति माने गये हैं। अंथ का रचनाकाल ईसा की चौदहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जा सकता है।

(१३) पासनाहचरिउ : रइधू - अपभ्रंश भाषा में निबद्ध इस ग्रन्थ में ७ संधियाँ हैं। इसकी कथावस्तु परम्परागत है। ग्रन्थ के रचनाकार दिगम्बर परम्परा के काष्ठासंघ के माथुरगच्छीय पुष्करगणीशाखा से सम्बद्ध महाकवि रइघू हैं । इनका समय ई० सन् १४०० से १४७९ के मध्य माना जाता है।

(१४) पासनाहचरिउ : असपाल- अपभ्रंश भाषा से निबद्ध इस ग्रंथ में १३ सन्धियाँ हैं। इसकी कथावस्तु पारम्परिक ही है । ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित है। इसकी एक प्रति अग्रवाल दिगम्बर जैन मन्दिर, मोती कटरा, आगरा में उपलब्ध है। इस ग्रंथ के रचनाकार असपाल कवि गहस्थ थे, किन्तु दिगम्बर परम्परा के मूल संघ के बलात्कार गण से सम्बन्धित थे। इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० सन् १४८२ है ।

(१५) पासपुराण : तेजपाल- यह ग्रन्थ एवं अभी तक अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित प्रति अजमेर और जयपुर के ग्रंथ भण्डारों में उपलब्ध हैं। आमेर शास्त्र भण्डार, जयपुर में उपलब्ध इसकी प्रति पर रचनाकाल वि० सं० १५१६ अर्थात् ई० सन् १४५८ उल्लिखित है । इसके लेखक कवि तेजपाल ने इसकी रचना मूलसंघ के पद्मनन्दिन के शिष्य शिवनन्दि भट्टारक के निर्देश से की थी।

(१६) पासनाहकाव्यः पद्मसुन्दरगणि- यह कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इसके रचनाकार श्वेताम्बर परम्परा के तपागच्छ की नागोरी शाखा के पद्मसुन्दर गणि हैं । ये जोधपुर नरेश मालदेव द्वारा सम्मानित थे। ये ईसा के सोलहवीं शताब्दी के विद्वान् हैं। अतः ग्रंथ का रचनाकाल भी यही होना चाहिए।

(१७) पार्श्वनाथचारित्र : हेमविजय- प्रस्तुत कृति संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इसमें ६ सर्ग और ३०३६ श्लोक हैं। ग्रन्थ की कथावस्तु परम्परागत है। इसके रचयिता श्वेताम्बर परम्परा के कमल विजयसिंह के शिष्य हेमविजयगणि हैं। ग्रंथ का रचनाकाल ई० सन् १५७५ है।

(१८) पावपुराण : वादिचंद्र- १५००० श्लोक प्रमाण यह विशाला ग्रन्थ पौराणिक शैली में लिखा गया हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता दिगम्बर परम्परा के भट्टारक ज्ञानभूषण के प्रशिष्य एवं भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य वादिचन्द्र हैं। ई० सन् १६८३ में यह ग्रन्थ लिखा गया। इस अप्रकाशित ग्रन्थ की एक प्रति इटावा के सरस्वती भण्डार में है ।

(१९) पाश्र्वनाथचरितः उदयवीरगणि- यह ग्रन्थ ८ सर्गों में विभक्त एवं संस्कृत भाषा में निबद्ध है। यह हेमचन्द्र सूरि के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित की परम्परानुसार ही लिखा गया है । ग्रन्थ के रचनाकार तपगच्छीय हेमसूरि के प्रशिष्य और संघबीर के शिष्य उदयवीरगणि हैं। ग्रंथ का रचनाकाल वि० सं० १६५४, ई० सन् १५९७ माना जाता है।

(२०) पार्श्वपुराण : चन्द्रकीर्ति - यह ग्रंथ १५ सर्गों में विभक्त एवं २७१० श्लोक प्रमाण है। वि० सं० १६५४ ई० सन् १५९७ में भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य चन्द्र कीर्ति ने इस ग्रंथ की रचना की। ये दिगम्बर पम्परा के काष्ठासंघ के थे । ग्रंथ की प्रशस्ति में इन्होंने अपनी विस्तृत गुरु परम्परा की चर्चा की है । डा० जोहरापुरकर ने चन्द्रकीर्ति का.समय वि० सं० १६५४-१६८१ अर्थात् ई० सन् १५९५-१६२४ ई० माना है।