।। अक्षय तृतीया पर्व ।।
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भव्यात्माओं! भगवान ऋषभदेव का दीक्षा लेने के बाद जब छह माह का योग पूर्ण हो गया, तब वे यतियो-मुनियों काी आहार तिधि बतलाने के उद्देश्य से शरीर की स्थिति उन्हें देखकर मुनियों को दर्या का न जानने वाली प्रजा बड़े उमंग के साथ सन्तुख आकार उन्हें प्रणाम करती है। उनमे से कितने ही लोग कहने लगते हैं कि हे देव प्रसन्न होइये और कहिये क्या काम है? हमस ब आके किंकर हैं, कितने ही भगवान के पीछे-पीछे हो लेते हैं। अन्य कितने ही लोग बहुमूल्य रत्न लाकर भगवान के सामने रख देते हैं ओर कहते हैं कि हे नाथ! प्रसन्न होइये, तुच्द भेंट स्वीकार कीजिये, कितने ही सुन्दरी और तरूणी कन्याओं को सामने करके कहते हैं कि प्रभो! आप इन्हें स्वीकार कीजिये, कितने ही लोग वस्त्र, भोजन माला आदि अलंकर ले - लेकर उपस्थित हो जाते हैं, कितने ही लोग प्रार्थना करते हैं कि प्रभो! आप आसन पर विराजिये, भोजन कीजिये इत्यादि इन सभी निमित्तों से प्रभु की चर्या में क्षण भर के लिए विघ्न पड़ जाता है पुनः वे आगे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार से जगत को आश्चर्य में डालने वाली गूढ़ चर्या से विहार करते हुए भगवान के छह माह व्यतीत हो जाते हैं।

एक दिन रात्रि के पिछले भाग में हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांस कुमार सात स्वप्न देखते हैं। प्रसन्नचित्त होते हुए प्रातः राजा सोमप्रभ के पा पहुंचकर निवेदन करते हैं कि हे भाई! आज मैंने उत्तम-उत्तम सात स्वप्न देखे हैं सो आप सुनें-

प्रथम ही सुवर्णमय सुमेरू पर्वत देखा है, दूसरे स्वप्न में जिनकी शाखाओं पर आभूषण लटक रहे हैं, ऐसा कल्पवृक्ष देखा है, तृतीय स्वप्न में ग्रीवा को उन्नत करता हुआ सिंह देखा है, चतुर्थ स्वप्न में अपने सींग से किनारे को उखाड़ता हुआ बैल देखा है, पंचम स्वप्न में सूर्य और चन्द्रमा देखे हैं, छठे स्वप्न में लहरों से लहराता हुआ और रत्नों से शोभायमान समुद्र देखा है और सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य को हाथ में लेकर खड़ी हुई ऐसी व्यंतर देवों की मूर्तियां देखी हैं। सो इनका फल जानने की मुझे अतिशय उत्कंठा हो रही है।

भाई स्वप्नों को सुनते हुए राजा सोमप्रभ कुछ अकल्पित ही श्रेष्ठ फलों की कल्पना करते हुए पुरोहित की तरफ देखते हैं कि पुरोहित निवेदन करता है-

‘हे राजकुमार! स्वप्न में सुमेरू पर्वत के देखने से यह स्पष्ट ही प्रकट हो रहा है कि जिसका मेरू पर्वत पर अभिषेक हुआ है ऐसा कोईदेव आज अवश्य ही अपने घर आयेगा औरये अन्य स्वप्न भी उन्हीं के गुणों की उन्नति को सूचित कर रहे हैं। आज उन भगवान के प्रति की गई विनय के द्वारा हम लोग अतिशय पुय को प्राप्त करेंगे। आज हम लोग जगत में बड़ी भारी प्रशंसा, प्रसिद्धि औरसंपदा के लाभ को प्राप्त करेंगे, इस कथा करते हुए बैठे ही थे कि इतने में योगिराज भगवान ऋषभदेव ने हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया।

उस समय भगवान के दर्शनों की इच्छा से चारों तरफ अतीतव भीड़ इकठ्ठी हो गई। कोई कहने लगे-देखो-देखों, आदिकर्ता भगवान ऋषभदेव हम लोगों का पालन करने के लिए यहां आए हें, चलो जल्दी चलकर उनके दर्शन करें और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करें। कोई कह रहे थे कि संसार का कोई एक पितामह है ऐसा हम लोग मात्र कानों से सुनते थे सो आज प्रत्यक्ष में उनके दर्शन हो रहे है। अहो! इन भगवान के दर्शन करने से नेत्र सफल हो जाते हैं, इनका नाम सुनने से कान सफल हो जाते हैं और इनका स्मरण करने से अज्ञानी जीवों के भी अन्तःकरण पवित्र हो जाते हैं। कोई कहने लगे ओहो! ये भगवान् तीन लोक के स्वामी होकर भी सब कुछ छोड़कर इस तरह अकेले ही क्यों विहार कर रहे हैं?

कोई स्त्री बच्चे को दूध पिलाते हुए भी अपने से अलग कर धाय की गोद में छोड़कर भगवान के दर्शन के लिए दौड़ पड़ी, कोई स्त्री कहने लगी सखी! भोजन करना बन्द कर, जल्दी उठ और यह अघ्र्य हाथ में ले, अपन चलकर जगतगुरू भगवान की पूजा करेंगे।इत्यादि कोलाहल के बीच से निकलते हुए भगवान मनुष्यों से भरे हुए नगर को सूने वन के समान जानते हुए निराकुल छोडत्रकर चांद्रीचर्या का आश्रय लेकर विहार कर रहे हैं। इसी बीच सिद्धार्थ नाम का द्वारपाल आकर गद्गद वाणी से बोलता है-

‘महाराज! तीन जगत् के गुरू भगवान् ऋषभदेव स्वयं ही अकेले इधर आ रहे हैं। इतना सुनते ही राता सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयासं दोनों ही भाई सेनापति और मंत्रियों के साथ तत्क्षण ही उठ पड़े और राजमहल के आंगल तक बाहर आ गए। दोनों भाईयों ने दूर से ही भगवान को नमस्कार किया। उनके चरणों में अघ्र्य सहित जल समर्पित किया। भगवान के मुख कमल को देखते ही कुमार श्रेयांस को अपने कई भवों का जातिस्मरण हो आया, उनको रोचांच हो गया। ऐसा प्रतीत हुआ कि मानों मेरे घर में तीन लोक की सम्पदा ही आ गई- उन्हें आहार देने की सारी विधि याद आ गई। शीघ्र ही पड़गाहन विधि को करते हुए भगवान की तीन प्रदक्षिणाएं दीं। अन्दर ले गये, उन्हें उच्च आसन पर बैठने के लिए निवेदन किया-

भगवन् उच्च उच्च आसन पर विराजमान होइये।’ पुनः प्रभु के चरणों का प्रक्षालन करके मस्तक पर गंधोदक चढ़ाकर अपना जीवन धन्य माना और अष्टद्रव्य से पूजा की।

राजकुमार श्रेवासं भगवान के हाथ की अंगुली में ईक्षरस दे रहे हैं। राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती भी प्रभु के करपात्र में इक्षुरस देते हएु अपने आप को धन्य समझ रहे हैं। इसी बीच गगनांगण में देवों का समूह एकत्रित हो गया ओर रत्नों की वर्षा करने लगा, मंदार पुष्पों को बरसाने लगा, मंदसुगंध पवन चलने लगी, दुंदभि बाजे-बजने लगे और ‘अहोदान, महादान’ आदि ध्वनि से आकाशमंडल शब्दायमान हो गया।

इस समय दोनों भाइयों ने अपने आपको बहुत ही कृतकृत्य माना क्योंकि कृतकृत्य हुए भगवान ऋषभदेव स्वयं ही उनके घर को पवित्र करने वाले हैं। उस समय दान की अनुमोदन करने वाले बहुत से लोगों ने भी रपम पुण्य को प्राप्त किया था। भगवान ऋषभदेव आहार ग्रहण करवन की ओर प्रस्थान कर गये। राजा सोमप्रभ और श्रेयांस भी कुछ दूर तक भगवान के पीछे-पीछे गये पुनः भगवान को हृदय में धारण किये हुए ही वापस लौटते समय उन्हीं के गुणों की चर्चा करते हुए और प्रभु के पद से चिन्हित पृथ्वी को भी नमस्कार करते हुए आ गये। उस समय पूरे हस्तिनापुर में एक ही चर्चा थी कि राजकुमार श्रेयांस को प्रभु को आहार देने की विधि कैसे मालूम हुई? यह आश्वर्यमयी दृश्य देवों के हृदय को भी आश्चर्यचकित कर रहा था। देवों ने भी मिलकर राजा श्रेयांस की बड़े आदर से पूजा की। भरत महाराज भी वहां आ गये और आदर सहित राजकुमार श्रेयासं से बोले-

‘हे महादानपते! कहो तो सही, तुमने भगवान के अभिप्राय को कैसे जाना? हे कुरूराज! आज तुम हमारे लिए भगवान के समान ही पूज्य हुए हो, तुम दानतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले हो और महापुण्वान हो, इसलिये मैं तुमसे यह सब पूछ रहा हूं कि जो सत्य हो, वह अब मुझको कहो।’

इस प्रकार सम्राट के पूछने पर श्रेयांस कुमार बोलते हैं-

राजन्! जिस प्रकार प्यासा मनुष्य सुगंधित स्वच्छ शीतल जल के सरोवर को देखकर प्रसन्न हो उठता है वैसे ही भगवान के अतिशय रूप को देखकर मेरी प्रसन्नता का पार नहीं रहा कि मुझे उसी निमित से जातिस्मरण हो आया जिससे मैंने भगवान का अभिप्राय जान लिया।’

‘वे क्या? मुझे भी सुनाओ।’

‘महाराज! आज से आठवें भव पूर्व विदेह क्षेत्र की पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रजंघ और रानी श्रीमती ने बड़े ही प्रेम से वन में चारण ऋद्धिधारी युगल मुनियों को आहार दान दिया था। उस समय राजा के मंत्री, सेनापति, पुरोहित और सेठ भी आहार दान की अनुमोदना कर रहे थे और पा में कुछ ही दूर से देखते हुए नेवला, वानर, व्याघ्र और सूकर ये चार पशु भी आहार देखकर प्रसन्नमन होते हुए भी उसकी अनुमोदन कर रहे थे।

राजन्! ये दोनों मुनि आपके ही युगलिया पुत्र है। यह सुनकर महाराज वज्रजंघ को अतीत हर्ष हुआ। वे उनके चरणों के निकट बैठकर अपनी रानी श्रीमती के, अपने, मंत्री आदि चारों के तथा नेवला आदिचारों के भी पूर्व भव पूछने लगे। मुनिराज ने भी अपने दिव्य अवधिज्ञान के द्वारा क्रम-क्रम से सभी के पूर्व भव सुना दिये; अनंतर बतलाया कि-

आप इस भव से आठवें भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी में राजा नाभिराय की महारानी मरूदेवी की कुक्षि से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के रूप में अवतार लेंगे। आपी रानी श्रीमती का जीव हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का भाई श्रेयांस कुमार होगा।

आपके ये मंत्री आदि आठों जीव भी अब से लेकर आठ भव तक आपके साथ सम्बंध स्थापित करते हुए आपके तीर्थंकर के भव में आपके ही पुत्र होवेंगे और उसी भव से मोक्ष की प्राप्ति करेंगे।

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