।। स्वाध्याय ।।

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स्वाध्यायः - अब आप जिनवाणी के दर्शन के लिए पहुंचेंगे। जिस प्रकार से हम जिनेन्द्र भगवान को अध्र्य चढ़ाते हैं, उसी प्रकार से जिनवाणी को भी चार अनुयोगों के प्रतीक चार ढेरी में अघ्र्य चढ़ाना चाहिये। कैसेः-

उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकैः चरू सुदीप सुधुप फलार्धकैः।
धवन मंगल गाना र वा कुले, जिन गृहे जिन शास्त्र-महं यजे।।
ऊँ ह्मीं अर्ह प्रथमं, करणं, चरण-द्रव्यं नमः जलादि अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग को हमारा नमस्कार हो। नमस्कार करके-जिनके पढ़ने से हमारे जीवन के सन्देह दूर होता है, मनः को शान्ती मिलते है- ऐसे आपके जिन्दगी में चार, ग्रंथों को जरूर पढ़यना चाहिए। राजाश्रेणिक चरित्र प्रद्युम्न चरि? रत्नकरंड श्रावकाचार ग्रंथ में कहते है-

प्रथमानुयोगमर्थाख्यानं चरितं पुराण मपि पुण्यम्।
बोधि समाधि - निधन, बोधति बोधः समीचीनः।

प्रथमानुयोग ग्रंथ पुराण पुरूषों का चरित्र, बोधि का मतलब सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, समता रूप परिणाम, निधान का अर्थ-संयम का खजाना बताता है। हर परिस्थिती में व्यक्ती कैसे रहे और अपना धर्म कैसे सम्बल सकते इसका ज्ञान होता है।

करणानुयोगः-

लोकालोक विभक्त-र्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतिनां च।
आदर्श-मिव तथामति-रवैति-करणानुयोग च।।3।।

करणानुयोग ग्रंथ में लोक और अलोक की वर्णन, युग का परिवर्तन, कर्म, कर्मों का फल, चारों गतियों का वर्णन ‘‘आदर्श मिव’’ दर्पण के समान स्पष्ट रूप से बतलाता है। कारण कहते हैं परिणााम को, भावों को, उन परिणामों का क्या फल मिलेगा? यह करणानुयोग ग्रंथ में बतलाता है।

चरणानुयोगः-

गृहमेघ्य-नगाराणां, चारित्रोत्पति-वृद्धि-रक्षागम्!
चारणानुयोग-समर्थ, सम्यग्ज्ञानं विजयानाति।।4।।

गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ती, वृद्धि और रक्षा कैसे हो। इन तीनों को बताने वाला चरणानुयोग ग्रंथ है।

जीवा जीव सुतत्वे पुण्ये च बन्ध मोक्षो च।
द्रव्यानुयोग दीपः, श्रृत-विद्यालोक-मातनुते।।5।।

द्रव्यानुयोग ग्रंथ जीव और अजीव तत्वों की, सात तत्वों की, पुण्य और पाप की स्वरूप वर्णन करता है। ये चारों अनुयोग हमारे जीवन में जब तक अवतरित नहीं होंगे, तब तक मोक्ष मार्ग बन नहीं सकता। कहा भी हैः-

‘‘स्वाध्यायं परमं तपः’’ उस स्वाध्याय के भेद तत्वार्थ सूत्र गंथ में कहते है ‘‘वाचना-पृच्छनानु प्रेक्षाम्नाय धर्मोपदेशः’’ यदि आप को पढ़ने के लिए आता है तो ‘‘वाचना’’ भी स्वाध्याय है। किसी से धर्म सम्बंधी प्रश्न पूछना भी ‘‘पृच्छना’’ स्वाध्याय है। सुने हुये को, पढ़े हुये को बार-बार चिन्तन करना ‘‘अनुप्रेक्षा’’ स्वाध्याय है। शब्दों को, ग्रंथ को, शुद्धि पूर्वक पढ़ना, व्याकरण की शुद्धि पूर्वक पढ़ना, छन्द, समास, सन्धि का ध्यान रखते हुए ग्रंथ का विश्लेषण करना-पढ़ना ‘‘आम्नाय’’ नाम का स्वाध्याय है।

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आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वेदनी चार प्रकार की कथाओं को कहना ही ‘‘धर्मोपदेश’’ है। धर्म का उपदेश करना भी ‘‘स्वाध्याय’’ है। प्रथमानुयोग पढ़ने से ‘‘संवेग’’ जाग्रत होता है, करनानुयोग पढ़ने से ‘‘प्रशमता’’ आती है, कारण कषायों का उपशमन होता है। चरणानुयोग अनुकम्पा, करूणा, दया गुण बतलाता है और द्रव्यानुयोग ‘‘आस्तिक्य-गुण’’ को प्रकट करता है। संवेग, प्रशम, अनुकम्पा और आस्तिक्य यह चार सम्यक्त्व का लक्षण है। जिनदेव का आज्ञा और शास्त्र का अनुशासन में जो कार्य (क्रिया) करते रहते हैं वे भी स्वाध्याय ही है। ‘‘स्व आत्मने अध्येति इति स्वाध्याय’’ जहां हम आत्मा के निकट रहकर अपना अध्ययन करते हैं उसका नाम है स्वाध्याय है जहां हमारी चेतना सचेत और सावधान रहे, वहीं स्वाध्याय है। विश्व की जितनी भी सोने से लेकर जागने तक और जागने से लेकर सोने तक क्रियाओं का हर प्रकार का ज्ञान हमें स्वाध्याय के माध्यम से होता है। अपने जीवन को किस प्रकार से जियें यह भी हमें स्वाध्याय से मिलता है। इसलिये हर रोज नियम से त्रीकाल स्वाध्याय करना चाहिए।

स्वाध्याय के बाद आपने एक-दो समयानुसार माला भी फेर सकते हैं। माला अनेक प्रकार रहते हैं, शुद्ध धातु का माला हो तो अच्छि है। माला क्यों फेरे आज तक मालूम नहीं-माला में कितने दाने होते हैं ?

माला फेरत युग गया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डारिकै, मन का मनका फेर।।

माला में 108 दाने होते हैं। माला के अंदर 108 दाने क्यों होते हैं? 108 के सभी अंकों को आपस में जोडिये तो नौ बन जायेंगे। विश्व में 9 (नौ) की संख्या ऐसी हैकि इसका दुगुन करते जाओ और उसका योग लगाओं तो 9 (नौ) ही निकलता है। कुछ भी कार्य करते समय, चाहे पाप, चाहे पुण्य करो 108 प्रकार का आश्रव होता रहता है। आलोकचना पाठ में कहते हैं-

‘‘समरंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।
कृत कारित मोदन करिकैं, क्रोधदि चतुष्टय धरिकैं।।’’

मन वचन काय से कर्मों का आश्रय होता है। मन से समरंभ मन से समारंभ, मन से आरंभ इस प्रकार मन सम्बन्धित तीन, वचन सम्बधि तीन, काय सम्बधि तीन (3$3=9) नौ प्रकार होता है। नौ (9) प्रकार कत, नौ प्रकार कारित, नौ प्रकार अनुमोदन (9$3=27) 27 प्रकार होता है। 27 प्रकार के क्रोध, 27 प्रकार के मान, 27 प्रकार के माया, 27 प्रकार के लोभ, इस प्रकार 108 कर्म आने के लिए द्वार है। इस को आश्रव भी कहते है। उन 108 कर्मों का आश्रव हमारे जीव से निकल जाय, प्रभु मा नाम लेने से रोग जाय, अथवा आनेवाले पाप कर्म रोक जाय, मन स्थिर को जाय इस भावन से 108 बार मंत्र स्मरण करते हैं। माला में 108 दाने रहते हैं। हर एम समय आश्रव कर्मों का 108 प्रकार से हो रहा है। कम से कम चैबीस घंटे में एक बार तो माला फेरना मंत्र जपना चाहिए।