।। गुरू दर्शन ।।

उसके बाद हम गुरू दर्शन (सत्संगति) करना चाहिए। गुरू का अर्थ है ‘‘गु’’ का अर्थ अन्धकार और ‘‘रू’’ का अर्थ दूर करना अर्थात् अन्धकार को दूर करना।

दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधुनां वन्दनेन च।
न चिरं तिष्ठते पापं, छिद्र हस्ते यथोदकम्।।

देव और गुरू का दर्शन से चिरस्थायि पाप कर्म भी नाश होता है जैसे अंजली से पानी गल जाता है।

सन्त समागम प्रभु भजन तुलसी दुलर्भ दोय।
सुत दारा अरू लक्ष्मि, पापी के भी होय।।

सन्तों का समागम और प्रभु का भजन संसार में अत्यंत दुर्लभ है। सौभाग्य से ही मिलता है। स्त्रि धन संपम्त्ती आदि पापी आदि को मिलता है। कारण साधु सर्वत्र नहिं मिलतें-

‘‘शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवों नहीं सर्वत्र, चन्दनं न वने वने।।’’

हर पर्वत पर माणिक नहीं होते हैं, हर हाथी के मस्तिष्क पर मोती नहीं होती है, हर वन में चन्दन वृक्ष नहीं मिलता है तद्वत् हर जगह में सज्जन साधु पुरूष नहीं मिलता है भाग्य से मिले तो मत छोड़ना। सन्त के पास जाना हो तो-

‘‘सनत मिलन को चालिये, तज माया अभिमान।
ज्यों-ज्यों पग आगे धरैं, कोटी यज्ञ फल जान।।’’

सन्तों के पास जाओं तो माया और अभिमान को छोड़कर पैर को आगे आगे जैसे रखेंगे वैसे कोटी पूजा का फल मिलते हैं।

एक भक्त जब चलने लगा, गुरू दर्शन के लिये तो गुरू महाराज का कमण्डल बाहर रखा हुआ था। उसे कहा-कहां जा रहे हो? इधर आओ। उसने कहा मैं गुरू महाराज के दर्शन करने के लिए जा रहा हूं। तो कमण्डल ने बुलाया और उससे कहा-

गुरू दर्शन से प्रथम कमण्डल, कहता मुझको देखो।
मुझ जैसा अपने को, गुरू चरणों में मत फेंको।।
क्योंकि त्यागियों की सेवा में, यह मेरा जीवन बीता।
बहुत सुने उपदेश, मगर फिर भी रीते का रीता।।

खाली पड़ा रहता है बेचरा भर नहीं पाया आज तक। ऐसे कमण्डल बनकर नहीं आना। जब श्रावक गुरू महाराज के पा पहुंचा तो हाथ में लाई सामग्री को किस प्रकार से अर्पण किया-

‘‘उदक-चन्दन-तन्दुलन-पुष्पकैः चरू सुदीप सुधूप फलार्धकै‘।
धवल-मंगलगान-रवाकुले, जिनगृहे गुरूणां अहं यजे।।’’
ऊँ ह्मीं श्री रत्नत्रय प्राप्तये गुरूभ्यो अर्धं निर्वापामीति स्वाहा।।

अर्घ चढाकर विराजित आचार्य, उपाध्याय, साधुओं को नमस्कार करना चाहिए, आर्यिका माताजी के लिए वन्दामी, ऐलक-क्षुल्लक, क्षुल्लिका जी के लिये इच्छामि या इच्छाकार, ब्रह्माचारी-ब्रह्माचारिणी जी को हाथ सादर जोडत्रकर वन्दना करना चाहिये। विश्व के अन्दर गुरू का सबसे बड़ा महत्व है। हर धर्म, हर संस्कृति में, हर संप्रदाय में धर्म को जिन्दा रखनेवाले गुझ है ही। अब पिन्छी कहती है-

‘‘जो पिन्छी का पीछा करते, वे श्रावक कहलाते।
जब तक पिच्छी का पीछा है मोक्ष नहीं जा पाते।।
जिनने पिच्छी पकड़ी उनको मोक्ष लक्ष्मी वरती।
ऐसे त्यागी सन्तों का, पिंच्छी खुी पीछा करती।।’’

गुरू संतों का वर्णन मुह से शब्दों से वर्णन न कर सकते। गुरू एक ऐसा माध्यम है जो परमात्मा से साक्षात्कार करता है। कबीरदास कहते है-

‘‘कबीर वे नर अंध है, गुरू को कहते ओर।
हरि रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नहीं ठौर।।’’

गुरू का अपने जीव में कोई महत्व नहीं समझते हैं वे मनुष्य अन्धे हैं। भगवान रूठ जाये तो गुरू ठौर है और यदि गुरू रूठ गया तो कोई ठौर नहीं। नाराज सो महाराज नहीं, महाराज तो नाराज नहीं। प्रवचन सुनना चाहिए। उनके दर्शन एवं आहारदानादि का लाभ भी जरूर लेना चाहिए। यथासमय वैयावृत्ति भी करनी चाहिए। जिन्हें आपने अपना धर्म गुरू माना है वर्ष भर में एक बार सपरिवार दर्शन करने के लिये अवश्य जाना चाहिए। इस प्रकार देव-शास्त्र-गुरू के दर्शन करके मन्दिर जी से बाहर निकलते समय तीन बार आस्सही-आस्सही-आस्सही बोलना चाहिए। आस्सही बोलने का तात्पर्य है कि जिन देवों क्षेत्रपालादि से हमने दर्शन पूजन आदि के लिए स्थान लिया था, उन्हें सौंप दिया। दर्शन करके मन्दिर जी से बाहर निकलते समय देव-शास्त्र-गुरू को पीठ नहीं दिखानी चाहिए। ऐसा शास्त्रकारों का मत है।